विचार: मुंबई बम धमाकों के सभी दोषी बरी, राष्ट्रीय सुरक्षा के भरोसे को झटका
बरी किए गए छोटे-मोटे अपराधी नहीं बल्कि ज्ञात आतंकी संगठनों से जुड़े लोग थे। यह मानना कि वे शांतिपूर्वक समाज में शामिल हो जाएंगे भोलापन है। आशंका है कि रिहाई उन्हें आतंकी नेटवर्क के साथ फिर से जुड़ने तथा और आतंकी हमलों की साजिश बुनने में सक्षम बना सकती है। हाई कोर्ट का फैसला आपराधिक न्याय प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करता है।
अशोक कुमार। 7/11 मुंबई ट्रेन विस्फोटों के लगभग दो दशक बाद बांबे हाई कोर्ट द्वारा सभी 12 दोषियों को बरी करने के फैसले ने देश को झकझोर दिया। इसमें 180 से ज्यादा लोग मारे गए थे और 800 से अधिक घायल हुए थे। न्यायिक स्वतंत्रता और कानून का शासन हमारे लोकतंत्र के आधार स्तंभ हैं, पर इतने बड़े मामले में आपराधिक न्याय प्रणाली का ध्वस्त होना न केवल कानूनी, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े गंभीर सवाल खड़े करता है।
सितंबर 2015 में आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) के नेतृत्व में नौ साल की लंबी जांच के बाद महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) की एक विशेष अदालत ने इन बम विस्फोटों में 13 में से 12 अभियुक्तों को दोषी ठहराया था। पांच को मौत की सजा, सात को आजीवन कारावास और एक को बरी कर दिया गया था। मौत की सजा पाए एक दोषी कोविड के कारण जेल में मर गया था।
बांबे हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपों को साबित करने में ‘पूरी तरह विफल’ रहा और सभी 12 लोगों को बरी कर दिया। हाई कोर्ट की टिप्पणियां प्रक्रियात्मक कठोरता पर आधारित हैं। विशेष अदालत ने जिन साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त आधार पाया था, उन्हें ही खारिज करना न केवल पीड़ितों और जांच के लिए अनुचित है, बल्कि खतरनाक भी।
बरी किए गए छोटे-मोटे अपराधी नहीं, बल्कि ज्ञात आतंकी संगठनों से जुड़े लोग थे। यह मानना कि वे शांतिपूर्वक समाज में शामिल हो जाएंगे, भोलापन है। आशंका है कि रिहाई उन्हें आतंकी नेटवर्क के साथ फिर से जुड़ने तथा और आतंकी हमलों की साजिश बुनने में सक्षम बना सकती है। हाई कोर्ट का फैसला आपराधिक न्याय प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करता है। जब बड़े आतंकी मामलों में न्याय से इन्कार होता दिखता है तो लोग उचित प्रक्रिया में विश्वास खोने लगते हैं। इसके चलते मीडिया ट्रायल और न्यायेतर कार्रवाई की मांग होती है। हैदराबाद में दुष्कर्मियों के मुठभेड़ मामले में ऐसा देखा गया। ऐसे फैसले आतंकवाद के प्रति सख्त राष्ट्र के रूप में भारत की वैश्विक छवि को भी कमजोर करते हैं।
बालाकोट हमले, आपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाइयों और ‘किसी भी आतंकी कृत्य को युद्ध माना जाएगा’ जैसी घोषणाओं ने ताकत का प्रदर्शन किया, पर 7/11 के मामलों में आतंकियों के बरी होने से यह धारणा बनती है कि भारत आतंकवाद के मामले में एक ‘नरम राज्य’ है। एटीएस और एनआइए जैसी एजेंसियों के लिए यह नतीजा बेहद निराशाजनक है। वर्षों की उच्च जोखिम वाली जांच और मेहनत की अनदेखी की जा रही है। यह उचित प्रक्रिया या निष्पक्ष सुनवाई को छोड़ने का तर्क नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय आघात और सुरक्षा खतरों से जुड़े मामलों में न्यायिक संवेदनशीलता का आह्वान है। विशुद्ध रूप से प्रक्रियात्मक दृष्टिकोण से जनता के विश्वास, मनोबल और सुरक्षा को कमजोर करने का जोखिम भी है।
बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाने वाले आतंकवाद को बिना सजा के नहीं छोड़ा जा सकता है। न ही संदिग्धों को आतंकी नेटवर्क में फिर से शामिल होने के लिए रिहा किया जा सकता है। आतंकियों का बरी होना जांच, अभियोजन और न्याय प्रणाली में सुधार के लिए एक चेतावनी है। भारत की औपनिवेशिक युग की आपराधिक न्याय प्रणाली आतंकवाद का सामना करने में सक्षम नहीं। आतंकी उन्नत उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं और बहुत कम सुबूत छोड़ते हैं, फिर भी यह व्यवस्था प्रत्यक्षदर्शियों जैसे पारंपरिक प्रमाणों की मांग करती है। नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करना महत्वपूर्ण है, लेकिन पुराने मानदंडों का आंख मूंदकर पालन करने से उच्च जोखिम वाले राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में न्याय से समझौता नहीं होना चाहिए।
यह मामला न्यायपालिका को गंभीर आत्मचिंतन के लिए बाध्य करता है। दो अदालतें इतने अलग-अलग नतीजों पर कैसे पहुंच सकती हैं? एक मौत की सजा सुनाती है, दूसरी पूरी तरह से बरी कर देती है? उड़ीसा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और अब वरिष्ठ अधिवक्ता एस. मुरलीधर का दो आरोपियों का प्रतिनिधित्व करने में शामिल होना जटिलता को बढ़ाता है। जहां निष्पक्ष कानूनी प्रतिनिधित्व एक मौलिक अधिकार है, वहीं एक पूर्व शीर्ष न्यायाधीश की भागीदारी नैतिक और संस्थागत चिंताओं को जन्म देती है।
भारत की आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद के मामलों में न्याय सुनिश्चित करने के लिए सुधार और संस्थागत आत्मनिरीक्षण जरूरी हैं। आपराधिक न्याय प्रणाली में पुलिस, अभियोजन और न्यायपालिका शामिल हैं। पुलिस इलेक्ट्रानिक निगरानी, साइबर फोरेंसिक और बहुभाषी खुफिया जानकारी जैसी बदलती तकनीक के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही है। न्यायपालिका को भी तकनीकी प्रगति के साथ तालमेल बिठाना होगा। यूएपीए, मकोका और सीआरपीसी जैसे कानून एन्क्रिप्टेड डाटा, विदेशी संचालकों और छद्म युद्ध से निपटने के लिए विकसित हो रहे हैं, फिर भी न्यायिक देरी, असंगत फैसले और बाहरी प्रभाव परिणामों में बाधा बन रहे हैं।
सुधारों में न केवल जांचकर्ताओं के लिए, बल्कि न्यायाधीशों और अभियोजकों को भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में विशेष प्रशिक्षण की जरूरत है। गवाहों की सुरक्षा और फोरेंसिक प्रोटोकाल को मजबूत करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। गवाह अक्सर बड़े अपराधियों की धमकियों के आगे झुक जाते हैं।
न्याय अपने परिणामों से अनभिज्ञ होकर, अलग-थलग होकर काम नहीं कर सकता है। 7/11 के दोषियों का बरी होना भारत की संस्थागत परिपक्वता की परीक्षा है। सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है। अब सुरक्षा के प्रति सचेत दृष्टिकोण के साथ मामले की फिर से जांच करनी होगी। क्या वह व्यवस्था, जिसने मुंबई के सबसे घातक ट्रेन हमले के लिए किसी को भी दोषी नहीं पाया, न्याय सुनिश्चित करने का दावा कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट को न केवल कानूनी दृष्टि से, बल्कि राष्ट्रीय जवाबदेही की भावना से भी इस मामले पर विचार करना होगा।
(लेखक उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी हैं)
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