राजीव सचान : पाकिस्तान की दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं। वह न केवल गंभीर आर्थिक संकट से घिरा है, बल्कि राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी संकट से भी। औसत पाकिस्तानियों के लिए जीवन-यापन करना दूभर है। यह स्थिति रातोंरात नहीं बनी, लेकिन पिछले वर्ष मार्च में जारी वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट में पाकिस्तान को भारत से खुशहाल बताया गया था। इस हैपीनेस इंडेक्स में भारत को 136वें पर पायदान दिखाया गया था और पाकिस्तान को 121वें पर। इस रिपोर्ट पर राहुल गांधी समेत कई विपक्षी नेताओं की बांछें खिल गई थीं। उन्होंने सरकार पर जमकर कटाक्ष किए थे। ऐसे ही कटाक्ष तब किए गए थे, जब ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि भारत की स्थिति पाकिस्तान और श्रीलंका से भी खराब है।

यह रिपोर्ट उन्हीं दिनों आई थी, जब पाकिस्तान में खाद्यान्न संकट खड़ा हो रहा था और श्रीलंका में खाने-पीने की वस्तुओं की किल्लत के कारण हाहाकार मचा हुआ था। इसी तरह की एक रिपोर्ट प्रेस फ्रीडम यानी मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स की ओर से आई थी। इसमें भारत को संयुक्त अरब अमीरात, जहां कोई निजी मीडिया नहीं और चीन के दमन से त्रस्त हांगकांग से भी नीचे दिखाया गया था। इसे बेशर्मी के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो इस रिपोर्ट को सही मान रहे थे और सरकार पर तंज कस रहे थे। इससे भी हास्यास्पद रिपोर्ट आई थी वी-डेम की ओर से। इसमें यह बताया गया था कि अकादमिक स्वतंत्रता के मामले में पाकिस्तान और अफगानिस्तान की स्थिति भारत से बेहतर है।

निःसंदेह खुशहाली, कुपोषण, अकादमिक स्वतंत्रता आदि के मामले में भारत में सब कुछ सही नहीं, लेकिन यह मान लेना हास्यास्पद है कि भारत की स्थिति पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि से भी खराब है। केवल कथित शोध संस्थानों से ही ऐसे सूचकांक नहीं जारी होते, जो भारत को नीचा दिखाते हैं, पश्चिमी मीडिया का एक हिस्सा भी यह बताता रहता है कि भारत में सब कुछ गया-बीता है। याद करें कि कोरोना काल में पश्चिमी मीडिया भारत की कैसी दयनीय और भयानक तस्वीर पेश कर रहा था।

यह सही है कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान स्थिति खराब थी और हजारों लोगों ने उपचार के अभाव में दम तोड़ दिया था, लेकिन दुनिया के अन्य देशों और यहां तक कि विकसित देशों में भी हालात कोई अच्छे नहीं थे। भारत से कहीं कम आबादी और बेहतर स्वास्थ्य ढांचे वाले विकसित देशों में भी लोग उपचार के अभाव में दम तोड़ रहे थे और लाशों के ढेर लगे हुए थे, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने ऐसा कुछ नहीं दिखाया-बताया। वह भारत में चिताओं के फोटो छाप रहा था, लेकिन यूरोप और अमेरिका में कोरोना से मरे किसी भी व्यक्ति की फोटो नहीं दे रहा था।

पश्चिमी मीडिया ने नीतिगत रूप से दोहरे मापदंड बना रखे हैं। पश्चिमी देशों में आतंक, आपदा से मरे लोगों के फोटो नहीं दिखाए जाते, लेकिन अन्य देशों में आतंक, आपदा से मरे लोगों के फोटो दिखाने में कोई संकोच नहीं किया जाता। यही कारण है कि दुनिया ने 9-11 हमले में मारे गए किसी व्यक्ति का शव नहीं देखा। पश्चिमी मीडिया गैर-पश्चिमी देशों के प्रति किस तरह दुराग्रह से ग्रस्त रहता है, इसके प्रमाण रह-रहकर मिलते ही रहते हैं। एक प्रमाण यूक्रेन युद्ध शुरू होने के समय मिला था और एक हाल में गुजरात दंगों पर बीबीसी की डाक्यूमेंट्री के रूप में सामने आया। समझना कठिन है कि सरकार को उस पर प्रतिबंध लगाने की क्यों सूझी, क्योंकि इससे उसे अनावश्यक प्रचार ही मिला। अब यह कोई दबी छिपी बात नहीं कि पश्चिमी मीडिया के एक हिस्से के साथ वहां की तमाम संस्थाएं भारत को प्रगति करते हुए नहीं देखना चाहतीं।

पश्चिमी संस्थाओं के भारत को नीचा दिखाने वाले जो शरारती शोध एवं सर्वेक्षण आते रहते हैं, उनमें यही संदेश निहित होता है कि वे विश्व मंच पर भारत का उभार नहीं देखना चाहते। गौर करें कि घोर अराजक कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान पश्चिमी देश और उनका मीडिया किस तरह भारत को नसीहत दे रहा था, लेकिन तब उनकी बोलती बंद हो गई थी, जब कनाडा सरकार ने आपातकाल लगाकर ट्रक चालकों की हड़ताल बलपूर्वक खत्म की थी। अभी पिछले महीने जर्मनी में कोयला खदान के विस्तार के लिए एक गांव को उजाड़ने के विरोध में धरने पर बैठे पर्यावरण कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया। पुलिस ने ग्रेटा थनबर्ग समेत इन कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी कि यदि वे खदान के किनारे से नहीं हटे तो उन्हें बलपूर्वक हटा दिया जाएगा। पिछले महीने की ही एक खबर यह है कि ब्रिटेन ने व्यवधान पैदा करने वाले विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए पुलिस को और अधिकार देने वाले कानूनी उपायों को स्वीकृति दी है। अब पुलिस को व्यवधान पैदा होने के पहले ही प्रदर्शनकारियों से निपटने का अधिकार होगा।

दुनिया का कोई लोकतंत्र ऐसा नहीं, जहां समस्याएं और खामियां न हों, लेकिन कई पश्चिमी संस्थाओं को भारतीय लोकतंत्र में सब कुछ गड्ढे में जाता दिखाई देता है। यही कारण है कि कुछ संस्थाओं ने कथित तौर पर ‘शोध’ करके बताया कि भारत तो अब लोकतंत्र रह ही नहीं गया है। यह तय है कि आने वाले समय में भारत को नीचा दिखाने का सिलसिला कायम रहेगा। हैरानी नहीं कि अदाणी समूह के खिलाफ आई हिंडनबर्ग की रिपोर्ट भी इसी सिलसिले की एक कड़ी हो। हालांकि अभी इस मामले का पूरा सच सामने आना बाकी है, लेकिन यह हैरान करता है कि भारत में तमाम लोग इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि अदाणी गलत हैं और हिंडनबर्ग सही।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)