[ शंकर शरण ]: एक बड़े शिक्षा निदेशक ने कहा कि यहां शिक्षा में भाषा-नीति की समस्या बहुत गंभीर हो चुकी है। कितनी भी बहस हो, कोई समाधान नहीं निकलता। ऐसे में जो फॉर्मूला चल रहा है, वही चलाते रहना ठीक है। वह सचमुच एक ऐसा सत्य कह रहे थे, जिसकी आशंका लगभग दो सौ साल पहले ही व्यक्त की गई थी। रोचक यह है कि इस सच को उन अंग्रेजों ने देखा था जो लॉर्ड मैकाले के विरोधी थे। मैकाले का विश्वास था कि भारतीय भाषाओं में कोई ज्ञान ही नहीं है। इसलिए भारतीयों की भलाई के लिए उन्हें अंग्रेजी और यूरोपीय शिक्षा देनी चाहिए, पर विरोधी अंग्रेजों को आशंका थी कि ‘पूरी जनता को शब्दों और विचारों के लिए किसी दूर, अनजान देश पर पूरी तरह निर्भर बनाकर हम उनका चरित्र गिरा देंगे, उनकी ऊर्जा मंद कर देंगे और यहां तक कि उन्हें किसी भी बौद्धिक उपलब्धि की आकांक्षा रखने में असमर्थ बना देंगे।’

भाषा शिक्षा की नींव है

आज वही आशंका चरितार्थ हो रही है। सारा विमर्श राजनीतिक और तकनीकी दृष्टि से हो रहा है। मानों भाषा कोई निर्जीव यंत्र हो, इसका बच्चे के आत्मविश्वास, चरित्र या बौद्धिक विकास से कतई संबंध न हो। कुछ लोग पहली कक्षा से ही अंग्र्रेजी पढ़ाना चाहते हैं, कुछ हिंदी के प्रति दुराव दर्शाते हैं तो कुछ बचपन से ही कई भाषाएं पढ़ाने की बात करते हैं। ऐसे लोग शिक्षा में भाषा का स्थान ही नहीं समझते। भाषा शिक्षा की नींव है। नींव सशक्त हुए बिना भवन अस्थिर रहेगा और याद रखें कि नींव दो-तीन नहीं हुआ करतीं! हमारे बड़े-बड़े लोग भी यह मशहूर बात भूल गए हैं कि बच्चे की शिक्षा अपनी भाषा में सर्वोत्तम होती है। इसलिए बच्चे की पूरी क्षमता अपनी भाषा पर अधिकार करने में लगानी चाहिए। अपनी भाषा पूरी संवेदना से सीख ले तो उसके लिए दूसरी, तीसरी भाषाएं सीखना सदैव आसान रहेगा।

भारतीय भाषाएं लुप्त होती जा रहीं

परंतु राजनीति और करियर के नाम पर यहां शिक्षा को जैसे नष्ट किया गया, उसे समझाना कठिन है। अंग्रेजी के बढ़ते अधिकार और कई मामलों में एकाधिकार के कारण सभी भारतीय भाषाएं दुर्बल होकर लुप्त होती जा रही हैं। हम भूल चुके हैैं कि अपनी भाषा माता समान होती है। उसके बिना पालन-पोषण रामभरोसे ही रहेगा। आज हमारी अनेक राष्ट्रीय दुर्बलताओं, समस्याओं का मूल कारण इसी में है। यह किसी सरकार की नहीं, हमारी अपनी समस्या है। बच्चों को पहली कक्षा से ही अंग्र्रेजी पढ़ाना पागलपन, अत्याचार और अपराध है। इस पर रवींद्रनाथ टैगोर की सवा सौ वर्ष पहले कही गई मार्मिक बात आज भी अक्षरश: सत्य है। जैसे मिट्टी से अंकुरित होते बीज को समय रहते पर्याप्त जल, प्रकाश और वायु की अनिवार्य आवश्यकता होती है, वैसे ही दुनिया को समझना शळ्रू करने वाले बालक को अपनी भाषा के सर्वोत्तम साहित्य से परिचित कराना अनिवार्य है। उसकी संपूर्ण निहित क्षमता और व्यक्तित्व के उभरने का मूल साधन वही है।

असली भाषा साहित्य की भाषा होती है

भाषा केवल पाठ्य-पुस्तक, अखबार पढ़ने या गपशप से नहीं आती। असली भाषा साहित्य की भाषा ही होती है। जिससे जीवंत संबंध रखने से ही वह आती है। उसके बिना अच्छी भाषा और बुद्धि की चाह छोड़ दें। अपनी भाषा पर भरोसा और लगाव के बिना कोई भाषा-नीति सफल होने वाली नहीं। ब्रिटेन, अमेरिका से भी सीखना चाहिए कि किस तरह उन्होंने अपनी भाषा में अपना ही नहीं, संपूर्ण विश्व के महान साहित्य और विद्वत संस्करणों को सुलभ कराया। वह कोई सरकार का काम नहीं था। उसे अदद लेखकों, प्रकाशकों और संस्थाओं आदि ने सहज धर्म के रूप में स्वेच्छापूर्वक किया। उस तुलना में स्वतंत्र भारत में हमने अपनी भाषाओं के साथ क्या किया?

साहित्यकारों की रचनाएं सुलभ नहीं

अपने श्रेष्ठ साहित्य को हमने घर-निकाला दे दिया! यहां महान भारतीय साहित्य और साहित्यकारों की रचनाएं कहीं सुलभ नहीं हैैं। जो हैं भी, वे अधिकांश त्रुटिपूर्ण, गंदे, उपेक्षित रूप में छापी जाती हैं। जबकि इन्हें सुंदर रूप में देश के कोने-कोने में सबके लिए सुलभ कराने के लिए समाज या सरकार के पास धन की कमी नहीं है! गीता-प्रेस के उदाहरण से देखें, जिसके महान कार्य को मात्र एक व्यक्ति ने कर दिखाया। तब अपने संपूर्ण साहित्य को भी घर-घर पहुंचाया ही जा सकता था। बस इसका महत्व और आवश्यकता नहीं समझी गई। इससे होने वाले लाभ और न करने से होने वाली हानि नहीं आंकी गई।

भाषा संस्कृति की अनूठी अभिव्यक्ति

अपनी भाषा, साहित्य और शिक्षा के लिए यह सहज कार्य यूरोप के छोटे-छोटे देश भी सौ साल से करते आ रहे हैं। वैसे भी इस कार्य का कोई विकल्प नहीं है। अन्यथा जैसे ग्रीक या मिस्न आदि सभ्यताएं लुप्त हो गईं, वह किसी रूप में भारतीय सभ्यता के साथ भी हो सकता है, बल्कि ऐसे भी हो सकता है कि पता भी न चले कि वह कब खत्म हो गई! भाषा अपने समाज की संस्कृति को अनूठी अभिव्यक्ति देती है। ऐसे में यदि भाषा कमजोर होगी तो उसका असर संस्कृति पर भी पड़ेगा।

भाषाओं में लिपि का अंतर

भारत में ‘कई भाषाओं’ की बाधा वाली बात काल्पनिक है। पहले तो सभी राज्यों में अपनी-अपनी भाषा में शिक्षा देने में कोई आपत्ति नहीं। फिर अधिकांश भारतीय भाषाओं में कोई बड़ा अंतर नहीं है। इसीलिए सदियों से भारत में सहज सामाजिक-सांस्कृतिक एकता रही है। वर्णमाला से लेकर शब्दावली तक में भारी समरूपता है। इसीलिए संस्कृत पूरे देश में एक जैसी सम्मानित है तथा हिंदी भी संपूर्ण भारत में बोली, समझी जाती है। हमारी भाषाओं में मुख्यत: लिपि का अंतर है, जिसे भाषाओं के अंतर के रूप में अतिरंजित दर्शाया जाता है।

अंग्रेजी ने कर दी भारतीय भाषाओं की दुर्गति

वस्तुत: अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व ने कुछ दशकों में ही सभी भारतीय भाषाओं की दुर्गति करके रख दी है। हमारी अपनी भाषा के शब्दों, सूत्रों, मूल्यों आदि के मूल अर्थ खोते जा रहे हैं। उन अर्थों को अनुवादित नहीं किया जा सकता जो समाज के सदियों के अनुभव से उपलब्ध हुए थे। उन्हें अंग्र्रेजी में विकृत किए जाकर पुन: भारतीय भाषाओं में बलपूर्वक थोपा गया है। आज यहां पढ़े-पढ़ाए जाने वाले सामाजिक ज्ञान तथा सिनेमा, सीरियलों में भी इस दुर्गति के दुखद उदाहरण देख सकते हैं। इससे हमारी कल्पना-शक्ति और विचार-शक्ति क्षीण हुई है।

शैक्षिक और संस्कृति में गिरावट

बहरहाल ये सभी बिंदु समकालीन विमर्श में लुप्त हैं। उसमें किसी लक्ष्य का संधान या किसी गड़बड़ी को रोकने जैसी चेतना नहीं दिखती। जब तक भारतीय भाषाओं को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम ही नहीं, बल्कि अपनी भाषा पर अधिकार कर लेना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य नहीं बनाया जाएगा तब तक शैक्षिक और संस्कृति में गिरावट को रोकना कठिन है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )

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