राष्ट्र निर्माण का आधार स्तंभ है ज्ञान, देश में फिर लौटता ज्ञान-विज्ञान को प्राचीन काल में मिलने वाला सम्मान
इसरो की सफलता गाथा विज्ञान और ज्ञान को उस युग में मिलने वाले सम्मान का प्रमाण है जो नए युग के स्वतंत्र भारत में एक बार फिर से लौटा है। वर्ष 2019 में इसरो ने चंद्रयान-2 लांच किया था जिससे चांद की सतह पर उतरने के बाद वहां की स्थलाकृति का अध्ययन करने और उसकी सतह का मानचित्रण करने की आशा थी।
सृजन पाल सिंह : भारत का चंद्रयान-3 मिशन अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ रहा है। गत 14 जुलाई को लांच हुए इस मिशन का उद्देश्य दुनिया में पहली बार चांद के दक्षिणी ध्रुव पर लैंड करने का इतिहास रचना है। इसमें सफलता के बाद भारत चांद पर अपना रोवर उतारने वाला दुनिया का चौथा देश बन जाएगा।
चंद्रयान-3 के लांच का सफर काफी लंबा रहा है। इससे पहले 2008 में भारत ने चंद्रयान-1 लांच किया था। वह सुदूर अंतरिक्ष में भारत का पहला मिशन था। चांद पर पानी की मौजूदगी के बारे में उसने महत्वपूर्ण जानकारी दी। वह अभियान इस कारण भी ऐतिहासिक रहा, क्योंकि यह इस दिशा में भारत का पहला प्रयास था।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारत की सफलता असल में भारतीय सभ्यता की ऐतिहासिक शक्ति है। विज्ञान, ज्योतिष, गणित, खगोल-विज्ञान, भूगोल और भौतिकी को यहां वैदिक युग के दिनों से ही प्रोत्साहन मिला है। आर्यभट ने प्राचीन काल में प्रतिष्ठित नालंदा विश्वविद्यालय स्थित वेधशाला में खगोलशास्त्र का अध्ययन किया था। उन्होंने इस विचार को खारिज कर दिया था कि पृथ्वी अचल है। उनकी परिकल्पना थी कि पृथ्वी गोल है, जो अपनी धुरी पर घूमती है। आर्यभट ने सूर्य और चंद्रग्रहण, चांद के द्वारा प्रकाश के परावर्तन, पृथ्वी और चांद के बीच की सटीक दूरी और ऐसी ही अन्य बातों को लेकर कई अन्य सिद्धांत भी दिए।
तब ऐसा माना जाता था कि खगोल विज्ञान का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे भारत के लोग जलवायु और वर्षा के बारे में अच्छी तरह जान पाएंगे। इसके मूल में खेती-बाड़ी के उद्देश्यों से लेकर त्योहारों और मौसमों की तारीखों का पता लगाना और समुद्र में आने-जाने से लेकर मछली पकड़ने से जुड़ी जानकारियों को जुटाना था।
वेदांग ज्योतिष को खगोल विज्ञान पर सबसे प्राचीन ग्रंथों में से एक माना जाता है, जिसकी रचना लगध ऋषि ने की थी। इसमें खगोलीय गणना की विधियों के बारे में विस्तार से बताया गया है, जिनसे चंद्र और सौर कैलेंडर बनाए जाते रहे। भारत की परंपरा में हमेशा से ही ज्ञान का सृजन होता रहा है। नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी और विक्रमशिला जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की स्थापना उस समय के शासकों द्वारा की गई, जो उनके शासनकाल की समाप्ति के बाद भी वर्षों तक ज्ञान के केंद्र बने रहे।
विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त वंश के सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी। चौथी से छठी शताब्दी तक गुप्त वंश के हिंदू शासकों के संरक्षण में इस बौद्ध महाविहार का तेजी से विकास हुआ, जिसके बाद इस क्षेत्र पर पाल वंश का नियंत्रण हो गया। पाल वंश के राजाओं ने इस विश्वविद्यालय को नष्ट नहीं किया। इसके बजाय उन्होंने इसे सुरक्षित रखते हुए इसका विस्तार किया। अधिकांश प्राचीन भारतीय शासकों के साथ ही उन्होंने भी ज्ञान सृजन के महत्व को समझा। विभिन्न वंशों के राजाओं ने तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों सहित अनेक प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों के संरक्षक की भूमिका निभाई। तुर्क-अफगानी आक्रांता और अंग्रेज जब तक नहीं आए, तब तक ज्ञान एवं उसके केंद्रों को दिव्य और इतना पवित्र माना जाता था कि युद्ध के समय में भी उन्हें क्षति नहीं पहुंचाई जाती थी।
इसरो की सफलता गाथा विज्ञान और ज्ञान को उस युग में मिलने वाले सम्मान का प्रमाण है, जो नए युग के स्वतंत्र भारत में एक बार फिर से लौटा है। वर्ष 2019 में इसरो ने चंद्रयान-2 लांच किया था, जिससे चांद की सतह पर उतरने के बाद वहां की स्थलाकृति का अध्ययन करने और उसकी सतह का मानचित्रण करने की आशा थी। हालांकि, उससे सारे संपर्क उस समय टूट गए जब उसका लैंडर चांद से महज 400 मीटर दूर था। यह कार्यक्रम प्रधानमंत्री मोदी जी के दिल के भी काफी करीब था और जब विज्ञानी उसकी विफलता से भावुक हुए तो उन्हें संभालने के लिए उस समय वह उनके साथ खड़े थे। देश अपने अंतरिक्ष विज्ञानियों के साथ खड़ा था और उनके कार्य की आंशिक सफलता पर भी उत्साहित था।
करीब साढ़े तीन वर्ष बाद इसरो के विज्ञानियों ने अपने पिछले मिशन की खामियों का पता लगाया और चंद्रयान-3 बनाया। उम्मीद है कि अगस्त के अंत तक वह सफलतापूर्वक चांद पर उतर जाएगा। करीब 978 करोड़ रुपये की चंद्रयान-2 परियोजना में पूर्ण सफलता न मिलने के बाद भी चंद्रयान-3 में 615 करोड़ रुपये का निवेश इसका प्रमाण है कि देश ऊंचे लक्ष्य तय करने के लिए तैयार है और इस दिशा में कुछ प्रयासों के विफल होने के बावजूद प्रौद्योगिकी के अपने रचनाकारों का उत्साह बढ़ाने की पर्याप्त क्षमता रखता है।
पिछले कुछ दशकों में भारत की विकसित होती आर्थिक शक्ति जीवन के सभी क्षेत्रों में साहसिक कदम उठाने से घबराती नहीं। नए भारत का प्रमाण यह नहीं कि कितनी गलतियां होती हैं या गलतिया होती भी हैं या नहीं, बल्कि इसे उन गलतियों से सीखकर दमदार वापसी के लिए जाना जाता है। भारत के पहले स्वदेशी लड़ाकू विमान तेजस और दुनिया की पहली सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस जैसे इंजीनियरिंग के ऐतिहासिक चमत्कारों को एक के बाद एक विफलता का सामना करना पड़ा, लेकिन अंत में वे सफल हुए और अपने अपने-अपने क्षेत्र के लिए आदर्श बने। इसरो अमेरिका के नासा, रूस के रोस्कोस्मोस और चीन के चीन नेशनल स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन जैसे अंतरिक्ष क्षेत्र के दिग्गजों की ताकत को टक्कर दे रहा है, जबकि उनके बजट की तुलना में इसके संसाधन कुछ भी नहीं हैं।
स्मरण रहे कि महान देश प्रौद्योगिकी और ज्ञान के सबसे मजबूत स्तंभों पर ही खड़े होते हैं। बख्तियार खिलजी ने नालंदा को नष्ट कर जला दिया था। इसी प्रकार पूरे भारत में ज्ञान के केंद्रों और भारतीय शिक्षण संस्थानों को भौतिक एवं नैतिक रूप से भी तहस-नहस किया गया। उस विध्वंस के सैकड़ों साल बाद हम न केवल अंतरिक्ष में अपने सबसे नजदीकी पड़ोसी यानी चंद्रमा को जानने में जुटे हैं, बल्कि अपनी सभ्यता की विस्मृत कर दी गई क्षमता का अनुभव भी कर रहे हैं।
(कलाम सेंटर के संस्थापक लेखक पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे हैं)














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