नई दिल्ली [ उदय प्रकाश अरोड़ा ]। दुनिया में जाति, नस्ल और राष्ट्रीयता की तरह धर्म के नाम पर लड़ाइयां होती ही रही हैं। वस्तुत: प्रत्येक धर्म का अनुयायी यह समझता है कि जो रास्ता उसने अपनाया है वही सही है और शेष गलत हैं। यही सोच मनुष्य की सबसे भयंकर भूल है। यह मान्यता कि मेरा धर्म दूसरे से बेहतर है, समाज को ‘हम’ और ‘दूसरे’ के बीच विभाजित करता है। यह विभाजन दूसरे के प्रति घृणा पैदा करता है। घृणा ही हिंसा में परिवर्तित होकर युद्धों को जन्म देती है। धार्मिक कट्टरता, हिंसा और युद्ध की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को देखकर विभिन्न धर्मों के धर्माधिकारी यह महसूस करने लगे हैं कि धर्म के नाम पर अन्याय और उत्पीड़न की सीमाओं को पार किया जा चुका है। शांति स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक अपने को दूसरे से बेहतर समझना छोड़े। धर्म एक-दूसरे के निकट आएं और उनमें आपसी संवाद खूब बढ़े। इसी पर वर्तमान पोप फ्रांसिस ने यह कहा कि वे सभी धर्मों के बीच एक मौलिक एकता मानते हैं। वह काहिरा की अल अजहर मस्जिद के सर्वोच्च इमाम से इस विषय पर बातचीत भी कर चुके हैैं। पोप और इमाम की उस मुलाकात को विश्व ने कैथोलिक और दूसरे धर्मों के बीच की खाई को पाटने की दिशा में एक अच्छा कदम माना था। उदारवादियों और प्रगतिशील लोगों ने पोप के इस कदम की प्रशंसा की, क्योंकि उनसे पहले ईसाई इतिहास में इस तरह के विचार किसी भी पोप के नहीं थे।

मानवता का धर्म केवल एक ही है

यूरोप में एक विश्वधर्म के विचार की बात पहले पहल जॉर्ज बर्नाड शॉ ने छेड़ी थी। उनका कहना था कि धर्म केवल एक है, यद्यपि इसकी अलग-अलग सैकड़ों व्याख्याएं हैं। विभिन्न धर्मों के बीच संवाद करने की बात यूरोप में नई चीज हो सकती है, लेकिन भारत में हजारों वर्ष पुरानी है। सम्राट अशोक की राजसभा में विभिन्न संप्रदायों के बीच संवाद का आयोजन नियमित रूप से होता था। अपने एक अभिलेख में अशोक लिखते हैं कि जो व्यक्ति अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरे की निंदा करता है वह स्वयं अपने धर्म की हानि करता है। सेमेटिक परंपरा में अपनी धार्मिक आस्थाओं को ही सही माना जाता है, शेष को गलत। इसके विपरीत हिंदू धर्म अपने से भिन्न सभी दूसरे रास्तों को भी सम्मान देता है। हिंदू धर्म इस बात को मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर है। जब प्रत्येक में ईश्वर का वास है तो धर्म के आधार पर भेद कैसा? यह एकमात्र ऐसा धर्म है जिसका नामकरण अपने भूगोल से हो गया है। अन्य धर्म अपने प्रवर्तकों के नाम से जाने जाते हैं। मोहम्मद, ईसा, जरथुस्त्र और बुद्ध की तरह इसका कोई प्रर्वतक नहीं है।

हिंदू धर्म में आस्तिक और नास्तिक दोनों ही हैं

हिंदू परंपरा मानती है कि मानवता का धर्म एक ही है। चूंकि मानवता का धर्म एक ही है तो किसी के धर्मांतरण का प्रश्न ही नहीं उठता। हिंदू धर्म मानता है कि वह मानव धर्म है। मानव धर्म का अर्थ है सत्यनिष्ठा, मन वचन से पवित्रता, नैतिकता एवं आध्यात्मिकता, न कि किसी एक धार्मिक पुस्तक, पैगंबर के आदेशों में विश्वास। महात्मा गांधी लिखते हैं कि यदि दो शब्दों में हिंदू धर्म को परिभाषित किया जाए तो वे होंगे सत्य और अहिंसा। हिंदू धर्म को उन्होंने अहिंसात्मक साधनों से सत्य की खोज माना है। सत्य यदि साध्य है तो अहिंसा उस साध्य को प्राप्त करने का साधन है। विश्व के विभिन्न धर्मों के अनुयायी ईश्वर को ही सत्य मानते हैं, किंतु हिंदू धर्म में ऐसा नहीं है। ईश्वर में विश्वास करने वाले आस्तिकों के साथ-साथ ईश्वर को न मानने वाले नास्तिकों को भी हिंदू धर्म में स्थान दिया गया है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि नास्तिकों ने ईश्वर की सत्ता भले ही स्वीकार न की हो, पर सत्य की सत्ता अवश्य स्वीकार की। हिंदू धर्म यह दावा नहीं करता कि उसने पूर्ण सत्य को जान लिया है। दरअसल सत्य की खोज का नाम है हिंदू धर्म। सभी धर्म ग्रंथों की रचना में मनुष्य का योगदान रहा है। चूंकि मनुष्य पूर्ण नहीं है। अत: धर्म ग्रंथ कभी पूर्ण नहीं हो सकते। वेद, शास्त्र भले ही कितने पवित्र ओर पूजनीय हों, वे व्यक्ति के अपने विवेक के ऊपर नहीं हो सकते।

परस्पर संवाद से ही संभव है सद्भाव

हिंदू धर्म कब प्रारंभ हुआ इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता, पर यह निश्चित है कि विश्व में प्रचलित जो भी धर्म हैं उनमें यह सबसे पुराना है। परंपरा में जो शब्द इसके लिए प्रयुक्त होता है वह है सनातन धर्म। सनातन अर्थात प्राचीन, शाश्वत। यह सनातन इसलिए है, क्योंकि इसमें स्थायित्व है। अगर यह समय के साथ परिवर्तित नहीं होता तो न जाने कब का मिट चुका होता। हिंदू धर्म देश-काल से यह नहीं बंधा हुआ है। हिंदू होने का अर्थ गैर-हिंदू से रक्षा करने के लिए तैयारी करने वाला, भयभीत किंतु आक्रामक हिंदू नहीं है। सांप्रदायिकता हिंदू मानस की चीज नहीं है। धर्मों के प्रति यहां द्वेष नहीं है। ‘हम’ और ‘दूसरे’ का भेद नहीं है। उसके लिए भी यहां जगह है जो इसे नहीं मानता और अपनी असहमति दर्ज कराने से हिचकता नहीं। यह सुखद बात है कि आज पोप सहित अनेक धर्माधिकारी सार्वभौमिक धर्म के विषय में उसी दिशा में सोचने के लिए विवश हो रहे हैं जिस मार्ग को भारत हजारों वर्षों से दिखाता आ रहा है। इंसान को एक-दूसरे के निकट लाने और विश्व शांति की स्थापना के लिए यह आवश्यक हो गया है कि विभिन्न मतावलंबियों के बीच संवाद बढ़े, इसके लिए सभी तत्पर हों।

(लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैं)