विचार: भ्रम पैदा करती भाषा नीति, हिंदी का दोहरा अपमान और अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व
भारत में असली राजभाषा अंग्रेजी है। हिंदी को राजनीतिक कारणों से ‘राजभाषा’ कहकर प्रपंच चलाया जा रहा है। यही मराठी तमिल या अन्य क्षेत्रीय नेताओं द्वारा हिंदी पर चोट करते रहने का भी कारण है। हिंदी का नाहक दोहरा अपमान होता है। इसकी तुलना में ब्रिटिश राज में भाषा-नीति अपेक्षाकृत पारदर्शी और यथार्थपरक थी। शासन की भाषा अंग्रेजी थी पर केवल अपने लिए। देश के वृहत शिक्षा-संस्कृति क्षेत्र स्वायत्त थे।
शंकर शरण। भारतीय बौद्धिक किसी भी मुद्दे पर लड़ते-उलझते रहने में मशगूल रहते हैं, उसके समाधान की चिंता से निर्लिप्त। कई मुद्दों पर वही तर्क-वितर्क दशकों से सुने जाते हैं, पर मुद्दे की स्थिति जस की तस या बिगड़ती जाती है। भाषा नीति इसका उदाहरण है। अभी अधिकांश विवाद ठाकरे बंधुओं की निंदा पर केंद्रित है। कुछ समय पहले तमिल नेता स्टालिन की फजीहत करने में ही ज्यादा ऊर्जा खर्च हुई थी, जबकि भारत की भाषा नीति विगत आठ दशकों में क्या बनी और क्या हुई, इस पर उदासीनता ही रही है।
ठाकरे बंधु हाल में राजनीतिक मंच पर आए। उनका मात्र एक प्रदेश में थोड़ा प्रभाव है, किंतु इससे पहले क्या था? सच तो यह है कि स्वतंत्र भारत की भाषा नीति शुरू से बिन पतवार की नाव है। औपचारिक रूप से हिंदी ‘राजभाषा’ है, पर व्यवहार में हर क्षेत्र में सिर्फ अंग्रेजी का स्थान बढ़ता गया। यह उन नीतियों का परिणाम है, जिन्हें किसी अहिंदी नेता ने नहीं बनाया। अंग्रेजी द्वारा हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं का क्रमशः विस्थापन किसी तमिल या मराठी राजनीति की देन नहीं है, लेकिन इस पर कोई विचार नहीं कर रहा है।
संविधान बनने के समय से ही उत्तर भारतीय, मुख्यतः हिंदी-भाषी नेताओं के निर्देशन में ही बहुत कुछ तय होता रहा है, पर उनके द्वारा बनी भाषा-नीति के नतीजों की कभी समीक्षा नहीं हुई कि वह किस उद्देश्य से बनी और परिणाम क्या हुए? भ्रामक भाषा नीति का दोष किसी एक नेता या दल को देना व्यर्थ है। संपूर्ण भारतीय नेतृत्व और बौद्धिक वर्ग भाषा नीति पर भ्रम का कारण और शिकार, दोनों रहा। इसका निराकरण करने में असमर्थ और अनिच्छुक भी। आज देश के छोटे-छोटे कस्बों में भी देखा जा सकता है कि अग्रगामी शिक्षा, रोजगार और व्यापार की भाषा अंग्रेजी है।
अंग्रेजी न जानने वाले भी कामकाजी और व्यवस्थापक हो सकते हैं, पर सीमित स्तर तक। जिसे अपनी बौद्धिक और रचनात्मक क्षमता बढ़ाने की इच्छा है, जो सहज मानवीय आकांक्षा है, वह बिना अंग्रेजी प्रवीणता के विफल रहेगा। यदि कोई भारतीय केवल अंग्रेजी जानता हो और किसी भारतीय भाषा में एक नोट भी लिख न लिख सकता हो, तब भी उसे आगे बढ़ने में कठिनाई नहीं होगी। ऐसा दुनिया के किसी अन्य महत्वपूर्ण देश में नहीं है।
भारत में असली राजभाषा अंग्रेजी है। हिंदी को राजनीतिक कारणों से ‘राजभाषा’ कहकर प्रपंच चलाया जा रहा है। यही मराठी, तमिल या अन्य क्षेत्रीय नेताओं द्वारा हिंदी पर चोट करते रहने का भी कारण है। हिंदी का नाहक दोहरा अपमान होता है। इसकी तुलना में ब्रिटिश राज में भाषा-नीति अपेक्षाकृत पारदर्शी और यथार्थपरक थी। शासन की भाषा अंग्रेजी थी, पर केवल अपने लिए। देश के वृहत शिक्षा-संस्कृति क्षेत्र स्वायत्त थे। उसमें शासकीय दखलंदाजी नहीं थी। हर विषय के विद्वान ही उसके शिक्षण-प्रशिक्षण की सामग्री और विधान तय करते थे। ब्रिटिश राज में साहित्यिक, सांस्कृतिक क्रियाकलापों का विकास सचमुच समाज का काम था, सरकार का नहीं। स्वतंत्र भारत में उस क्रियाकलाप का ह्रास आरंभ हो गया। यह ह्रास स्वतंत्र भारत की अपनी नीतियों से हुआ।
आज भारत में हिंदी ऐसी पटरानी है, जिससे अन्य सभी रानियां खार खाती हैं और रोज जली-कटी सुनाती हैं। पटरानी असहाय यह सब झेलने को लाचार है। हिंदी को झूठे राजत्व की दोहरी प्रवंचना से मुक्ति देना अच्छा होगा। तब कालक्रम में वह अपना सही स्थान पा लेगी। तब उसे अन्य भारतीय भाषाओं के नेताओं, बौद्धिकों की नाहक कटूक्तियों से छुटकारा मिलेगा। फिर उसे पहले जैसा सद्भाव मिल जाएगा। ब्रिटिश जमाने में हिंदी को राष्ट्रीय कामकाज की भाषा बनाने के सभी प्रयत्न अहिंदी नेताओं, ज्ञानियों ने किए थे।
गांधीजी, राजगोपालाचारी, केएम मुंशी, टैगोर आदि महापुरुषों ने हिंदी की क्षमता और भूमिका पहचानी थी, किंतु यह तब था, जब देश में हिंदी वैसी ही एक भाषा थी, जैसी तमिल या तेलुगु थी। आज प्रशासन, शिक्षा और उद्योग व्यापार में अंग्रेजी की महत्ता वैसे भी अबाध बढ़ रही है। शंका हो तो 1963 और 1976 के राजभाषा कानून और नियम की तुलना करके देखें। फिर उसमें 1986, 2007 और 2011 में किए गए संशोधन भी। सभी दिखाते हैं कि स्वतंत्र भारत के सात दशक में अंग्रेजी और हिंदी में ऊंच और नीच की खाई लगातार बढ़ती गई है।
आज हर कर्मचारी या छात्र जानता है कि किसी नियम, दस्तावेज, पुस्तक आदि को सही-सही जानना हो तो मूल अंग्रेजी वाली ही पढ़ना ठीक है। वरना ऊटपटांग या गड़बड़ अनुवाद से कुछ भी समझने, करने में व्यर्थ झमेला उठाना पड़ता है। सभी संकेत बताते हैं कि सारे अकादमिक कार्य, प्रकाशन, शोध आदि अंग्रेजी में होते हैं। चाहे उनका स्तर कामचलाऊ या लज्जाजनक क्यों न हो। हिंदी में अब कोई साहित्यिक पत्रिका तक नहीं, जिसे पूरे देश में जाना जाता हो। ऐसा पहले न था।
ब्रिटिश काल और बाद में भी पूर्वगति के बल पर एक पीढ़ी तक राष्ट्रीय महत्व और प्रसार रखने वाली अनेकानेक हिंदी पत्रिकाएं थीं। अब सब बंद हो चुकी हैं। जबकि हिंदी भाषी जनसंख्या अधिक है, शिक्षितों की संख्या और उनकी आय, सबमें भारी वृद्धि हुई है। यह व्यापार-बाजार का सीधा सिद्धांत है: जिस चीज की मांग खत्म, उसका उत्पादन-व्यवसाय भी खत्म हो जाता है। अच्छा होगा कि केंद्र की राजभाषा नीति में ‘आल्सो इंग्लिश’ को बदल कर ‘ओनली इंग्लिश’ कर दिया जाए। इसके साथ ही सभी राज्य अपनी-अपनी भाषा में ही कार्य करने के लिए स्वतंत्र रहें।
अन्य राज्यों तथा केंद्र से उनका व्यवहार भी स्वेच्छा और आपसी सुविधा से हो, किसी केंद्रीय नीति से नहीं। यह सब करना केवल उतना ही कष्टकर होगा, जितना किसी घाव की शल्य-चिकित्सा के समय होता है। रोगी को थोड़े समय कष्ट होता है, पर वह अंततः निरोग हो जाता है। इसी प्रकार यदि भारतीय भाषाओं की सच्ची चिंता है तो सभी राज्यों में अपनी-अपनी भाषा में काम करने का निश्चय करना होगा। इससे भाषा के नाम पर राजनीति और द्वेष खत्म होगा। तब सभी भाषाओं के प्रति सभी देशवासियों में समान अपनापे का भाव होगा। यही हमारी सांस्कृतिक एकता और सच्चा संघवाद भी होगा।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)
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