हर्ष वी. पंत। पिछला कुछ समय भारत के लिए काफी उथल-पुथल भरा रहा है। देश को अप्रैल में पहलगाम के नृशंस आतंकी हमले का घाव झेलना पड़ा। मासूम पर्यटकों पर हुए उस हमले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। कुछ देशों को छोड़ दिया जाए तो पूरी दुनिया भारत के दर्द को समझते हुए संवेदनाएं प्रकट कर रही थी। कई देश और प्रमुख नेताओं ने आतंकी हमले की कड़ी निंदा करते हुए भारत के साथ एकजुटता दिखाई।

इस हमले से उपजे आक्रोश से देश में ऐसी भावनाएं उबलने लगीं कि इस आतंकी हमले के जिम्मेदार पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाया जाना आवश्यक है। मोदी सरकार में उड़ी के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा के बाद एयर स्ट्राइक के जरिये पाकिस्तान पर हुए प्रहार से यह तय माना जा रहा था कि भारत कोई न कोई बड़ी कार्रवाई अवश्य करेगा।

यहां तक कि पाकिस्तान में ऐसी अकटलें तेज थीं कि इस बार भारत की कार्रवाई का स्वरूप एवं दायरा कैसा होगा। अंतत: आपरेशन सिंदूर के रूप में भारत ने एक सफल सैन्य अभियान के माध्यम से पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाया कि आतंक की उसे बड़ी कीमत चुकानी होगी जो पिछली बार से अधिक बड़ी होगी।

आपरेशन सिंदूर ने पाकिस्तान को ऐसी चोट दी, जो उसकी कल्पना से भी परे थी। आखिर किसने सोचा होगा कि पाकिस्तान जिस पंजाब सूबे को अपनी शान समझता है, वहां तक भारत की मिसाइलें आतंकी ढांचे को ध्वस्त कर देंगी या फिर उसकी नाक समझी जाने वाली सेना के मुख्यालय के बगल में सैन्य ठिकाने भारतीय हमले में तबाह हो जाएंगे।

ऐसी सामरिक बढ़त के बावजूद इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आपरेशन सिंदूर और उसके बाद बने माहौल में नैरेटिव की लड़ाई में भारत कुछ पिछड़ गया। याद रहे कि पहलगाम हमला उस दौरान हुआ था, जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस भारत के दौरे पर थे। उसके चलते जयपुर प्रवास का उनका कार्यक्रम भी प्रभावित हुआ था।

जब भारत ने आपरेशन सिंदूर शुरू किया तो अमेरिकी सरकार के स्वर ऐसे थे कि भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़े तनाव में दखल देने की उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। यूरोपीय नेता भी यही कहते सुनाई पड़ रहे थे कि भारत को अपनी रक्षा के लिए हरसंभव विकल्पों का उपयोग करने का पूरा अधिकार है। फिर ऐसा कैसे हुआ कि अमेरिका एकाएक न केवल बीच-बचाव में कूदता हुआ दिखा, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप संघर्ष विराम का श्रेय लेने के लिए सामने आ गए।

भारत को इस स्थिति पर मंथन करना होगा कि सब कुछ उसके पक्ष में होने के बावजूद ऐसा होता हुआ क्यों नहीं दिखाई दिया। इसका एक कारण तो पश्चिमी मीडिया का पारंपरिक रूप से भारत विरोधी रवैया रहा। पश्चिमी मीडिया में सक्रिय भारत विरोधी तत्वों और पाकिस्तानी पत्रकारों-टिप्पणीकारों ने पाकिस्तान के दुष्प्रचार को हाथोंहाथ आगे बढ़ाया। पाकिस्तान ने खुद को पीड़ित के रूप में दिखाया। उसने यह भी सामने रखा कि वह पहलगाम आतंकी हमले की जांच में सहयोग करने को तत्पर है, लेकिन भारत ही इसके लिए तैयार नहीं।

यहां तक कि चीन जैसे देश ने पाकिस्तान के इस प्रपंच का समर्थन भी किया। पाकिस्तान दुनिया के सामने परमाणु ब्लैकमेलिंग का दांव चलाने की कोशिश की, जिसमें वह कुछ सफल रहा। उसने दर्शाया कि भारत की मंशा उसके संवेदनशील इलाकों को निशाना बनाने की रही, जबकि वास्तविकता इसके उलट थी, क्योंकि आपरेशन सिंदूर की शुरुआत में ही भारत ने स्पष्ट किया था कि उसके निशाने पर केवल आतंकी ढांचा था। न कि नागरिक या सैन्य प्रतिष्ठान।

पाकिस्तानी प्रतिक्रिया के जवाब में ही भारत ने पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों पर हमले किए। यहां तक कि पाकिस्तान ने अपना एयरस्पेस खोले रखकर भी अपने नागरिकों की जान दांव पर लगा दी, पर भारत ने उस स्थिति में भी संयम का परिचय दिया। इसके बावजूद चीन और तुर्किये जैसे देशों ने खुलकर पाकिस्तान का समर्थन किया, जबकि भारत के पक्ष में कोई देश इस प्रकार सामने नहीं आया। इस प्रकरण के सबक एकदम स्पष्ट हैं कि यह भारत की लड़ाई है जो उसे खुद ही लड़नी होगी।

राजनीतिक, आर्थिक, कूटनीतिक एवं सामरिक सभी स्तरों पर भारत को अपना पक्ष मजबूत रखना होगा, जिसकी राह आत्मनिर्भरता से खुलेगी। आत्मनिर्भरता के साथ ही दृढ़ता भी आवश्यक होगी। हमें विचार करना होगा कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद एक कंगाल-तंगहाल एवं नाकाम देश जो तमाम मोर्चों पर संघर्षरत है, वह वैश्विक स्तर पर अपने पक्ष में नैरेटिव खड़ा करने में कैसे सफल हुआ। भविष्य में ऐसे किसी संघर्ष की स्थिति में हम उसकी काट कैसे करेंगे।

यह अच्छी बात है कि स्थिति को भांपते हुए भारत सरकार ने दुनिया भर में प्रतिनिधिमंडल भेजकर पाकिस्तान को बेनकाब करने का फैसला किया। विभिन्न दलों के नेताओं के अतिरिक्त विषय-विशेषज्ञों को भी इसमें जगह दी गई। इसके जरिये विश्व समुदाय को यह संदेश भी गया कि राजनीतिक रूप से भारत पूरी तरह एकजुट है। विपक्षी दलों के कई नेताओं ने बड़े प्रभावी ढंग से भारत का पक्ष भी रखा। इसके माध्यम से प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने दो टूक कहा कि आतंक को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और ऐसी किसी करतूत की पाकिस्तान को बड़ी कीमत चुकानी होगी।

भारत ने यह भी स्पष्ट किया कि वह पाकिस्तान की परमाणु ब्लैकमेलिंग में नहीं आने वाला। इसके जरिये भारत ने यह पक्ष भी सामने रखा कि उसकी लड़ाई आतंक से है और पाकिस्तान किसी भी प्रकार से उसकी प्राथमिकता में नहीं। दुनिया किसी भी तरह से उसे पाकिस्तान के साथ जोड़कर न देखे। वह पाकिस्तान जैसे असफल देश के साथ अपनी ऊर्जा एवं समय को व्यर्थ नहीं करना चाहता। भारत की प्राथमिकता व्यापक आर्थिक विकास के दम पर एक बड़ी अर्थव्यवस्था और जिम्मेदार महाशक्ति के रूप में स्थापित होना है। हालांकि अपनी शांति में खलल डालने एवं अपने नागरिकों पर हमले का कड़ा प्रतिकार करना भी उसका अधिकार है। प्रधानमंत्री मोदी के एक कथन में भारत का यह विचार पूरी तरह रेखांकित होता है कि-यह युद्ध का समय नहीं है तो यह आतंक का भी समय नहीं।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)