नई दिल्ली [अनंत विजय]। कोरोना के कारण लॉकडाउन में लोगों के सामने बेहतरीन धारावाहिक प्रस्तुत करने के दूरदर्शन के प्रयासों के चलते ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के अलावा कई पुराने और लोकप्रिय रहे धारावाहिक फिर से प्रसारित किए जा रहे हैं।

इस दौरान कई पुरानी कहानियां भी सामने आ रही हैं। ऐसी ही एक कहानी प्रचारित की गई कि महाभारत के संवाद मशहूर लेखक डॉ. राही मासूम रजा ने लिखे। पर इस सच्चाई में एक और सच्चाई जरा दब सी गई कि रजा साहब को पंडित नरेंद्र शर्मा का भी साथ मिला था। किस्से इस तरह गढ़े गए कि इस संदर्भ में नरेंद्र शर्मा का नाम कोई लेता नहीं है, जबकि धारावाहिक निर्माण के दौरान जब रजा इसके संवाद लिख रहे थे तो पंडित नरेंद्र शर्मा उनकी काफी मदद कर रहे थे।

महाभारत की पटकथा से लेकर संवाद तक में दोनों लेखकों की भूमिका थी। प्रचारित तो यह भी किया गया कि रजा ने ‘भ्राताश्री’ और ‘माताश्री’ जैसे शब्द गढ़े, लेकिन ऐसा प्रचारित करने वाले यह भूल गए कि ‘महाभारत’ के पहले ही ‘रामायण’ का प्रसारण हो चुका था और उसमें मेघनाद अपने पिता रावण को पिताश्री कहकर ही संबोधित करता है। ‘रामायण’के संवाद तो रामानंद सागर ने लिखे थे। इसलिए इन शब्दों को गढ़ने का श्रेय रजा साहब को देना अनुचित है।

इस धारावाहिक को लिखने के दौरान होता यह था कि रजा साहब और नरेंद्र शर्मा में लगातार विमर्श होता रहता था और दोनों एक दूसरे की मदद करते थे। रजा जो भी लिखकर भेजते थे उसको पंडित नरेंद्र शर्मा देखते थे और उनकी सहमति के बाद ही उसका उपयोग होता था। पंडित नरेंद्र शर्मा की पुत्री लावण्या शाह के मुताबिक राही मासूम रजा ने कहा था कि महाभारत की भूल-भुलैया भरी गलियों में मैं पंडित जी की अंगुली थामे आगे बढ़ता गया।

दरअसल हिंदी फिल्मों से जुड़े एक खास वर्ग के लोग और माक्र्सवादी विचारधारा के अनुयायियों की ये पुरानी तिकड़म है जिसके तहत वे फिल्मों की लोकप्रियता का श्रेय उन संवाद लेखकों को देते रहे हैं जो हिंदी-उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग करते रहे हैं। ये लोग इसे हिंदुस्तानी कहकर प्रचारित प्रसारित करते हैं। गीतों या संवादों में भी हिंदी शब्दों की बहुलता को लेकर बहुधा उपहास किया जाता रहा, लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी हिंदी में संवाद लिखे गए, लोगों ने उसे खूब पसंद।

जब भी शुद्ध हिंदी की शब्दावली में गीत लिखे गए, वे काफी लोकप्रिय हुए। पंडित नरेंद्र शर्मा का लिखा 1961 की फिल्म ‘भाभी की चूड़ियां’ का एक गीत ‘ज्योति कलश झलके’ बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसे कई गीत हैं जहां हिंदी के शब्दों को लेकर रचना की गई, लेकिन न तो गाने वालों को और न ही संगीत देने वालों को कोई दिक्कत हुई। ये गीत कर्णप्रिय थे और लोकप्रिय भी हुए। आज यह गंभीर और गहन शोध की मांग करता है कि कैसे फिल्म जगत में हिंदी को हिंदी और उर्दू मिश्रित जुबान से विस्थापित करने की कोशिश हुई और हिंदुस्तानी के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ किया गया। 

इतना ही नहीं, अगर हम ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के संवादों पर गौर करें तो उनमें भी हिंदी अपनी ठाठ के साथ खिलखिलाती है। जब ये पहली बार दिखाए गए तब भी और जब अब एक बार फिर से दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे हैं तब भी, बेहद लोकप्रिय हैं। उस दौर के दर्शक अलग थे और जाहिर सी बात है कि तीन दशक के बाद दर्शक बदल गए हैं, लेकिन इनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है।

भाषा को लेकर किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई। न सिर्फ ‘रामायण’ या ‘महाभारत’ बल्कि अगर हम बात करें ‘कौन बनेगा करोड़पति’ या फिर ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ की भाषा हिंदी ही थी। ये सभी बेहद लोकप्रिय हुए। इस तरह के धारावाहिक न केवल लोकप्रिय हुए, बल्कि इन्होंने हिंदी का विकास भी किया, उसे मजबूती दी, उसे विस्तार दिया।

धारावाहिक के माध्यम से लोगों का हिंदी के कई शब्दों से परिचय हुआ, उनका उपयोग बढ़ा और शब्द चलन में आ गए। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ ने हिंदी के कई ऐसे शब्द फिर से जीवित कर दिए। ‘पंचकोटि’ जैसे शब्द तो लगभग चलन से गायब ही हो गए थे। ये इस धारावाहिक की लोकप्रियता ही थी जिसने ऐसे शब्दों में जान डाल दी। मुझे याद है कि वर्ष 2012 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मॉरीशस के तत्कालीन कला एवं संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था, ‘हिंदी के प्रचार- प्रसार में बॉलीवुड की फिल्मों और टीवी धारावाहिकों का बहुत बड़ा योगदान है।’

उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी जो भी हिंदी है वो सिर्फ हिंदी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों की बदौलत है। और वह हिंदी बोल रहे थे, न कि तथाकथित हिंदुस्तानी। वामपंथ के प्रभाव में हिंदी के साथ भी खिलवाड़ शुरू हुआ और भाषा को सेक्युलर बनाने की कोशिश शुरू हो गई। गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर हिंदी में उर्दू को मिलाने की कोशिशें सुनियोजित तरीके से शुरू की गईं।

हिंदी को कथित तौर पर सुगम बनाने की कथित कोशिश से हिंदी के कई शब्द अपना अर्थ खोने लगे, चलन से बाहर होने लगे। फिल्मों के प्रभाव को देखते हुए वहां भी कथित तौर पर हिंदुस्तानी को स्थापित करने की कोशिशें शुरू हुईं। इसके लिए पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे लेखक हाशिए पर धकेले जाने लगे।

हिंदी उर्दू मिश्रित संवाद और गीत लिखने वाले लोगों को प्रमुखता दी जाने लगी। अब यह तो नीति का हिस्सा होता है कि जिसे प्रमुखता देनी हो उसके पक्ष में माहौल बनाओ और जिसे गिराना हो उसके विपक्ष में माहौल बनाओ। इसके तहत हिंदी को कठिन बताकर उर्दू मिश्रित हिंदी को बेहतर बताकर स्थापित किया गया।

इस आधारभूत नियम का पालन बॉलीवुड में हुआ। इसका प्रकटीकरण साफ तौर पर महाभारत को लेकर राही मासूम रजा और नरेंद्र शर्मा वाले प्रकरण में होता है। लेकिन न तो रामायण की भाषा को हिंदुस्तानी किया गया, न महाभारत की भाषा को, परिणाम सबके सामने है। भाषा को दूषित करने के इस खेल में वामपंथियों ने भले ही उर्दू को अपना हथियार बनाया हो, लेकिन वे न तो उर्दू के हितैषी हैं और न मुसलमानों के।

अगर राही मासूम रजा की इतनी ही कद्र या फिक्र होती तो उनको हिंदी में बेहतरीन कृतियां लिखने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाता। साहित्य अकादमी में तो 1975 के बाद से वामपंथियों का बोलबाला रहा। सिर्फ राही मासूम रजा ही क्यों, किसी भी मुसलमान लेखक को इन वामपंथियों ने हिंदी में लिखने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया। दरअसल ये अपनी विचारधारा को मजबूत बनाने और अपने व अपने राजनीतिक आकाओं के हितों की रक्षा के लिए भाषा, धर्म, समाज सबका उपयोग करते रहे हैं।

साहित्य और संस्कृति को इस विचारधारा वालों ने राजनीति का औजार बनाकर इन विधाओं का इतना नुकसान किया जिसकी भरपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं। जरूरत इस बात की है कि भाषाई अस्मिता के साथ खिलवाड़ न किया जाए, भाषा के नियमों के साथ छेड़छाड़ न की जाए।

बॉलीवुड में विचारधारा के नाम पर लंबे समय तक बहुत ही खतरनाक खेल खेला गया, अब भी कई लोग ये खेल खेलना चाहते हैं, खेल भी रहे हैं, लेकिन अब बेहद चालाकी से ऐसा करते हैं ताकि पकड़ में न आ सकें, लेकिन वामपंथी यह भूल जाते हैं कि जनता सब जानती है। महाभारत के लेखन के लिए राही मासूम रजा को भी श्रेय मिले और बराबरी से पंडित नरेंद्र शर्मा को भी। अर्धसत्य का दौर समाप्त होने को है।