विचार: राजनीतिक दुर्भावना का निशाना बनी हिंदी, ठाकरे जैसे नेताओं का हिंदी विरोध न केवल महाराष्ट्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अपमान
हिंदी विरोध की निकृष्ट राजनीति द्वारा अपनी कमजोर होती राजनीतिक जमीन को मजबूत करने की ठाकरे बंधुओं की कोशिश कितनी सफल होगी यह तो भविष्य ही बताएगा। इतना अवश्य स्पष्ट है कि यह विरोध न केवल महाराष्ट्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अपमान है बल्कि स्वयं मराठी लोगों के हित में भी नहीं है।
प्रो. निरंजन कुमार। संकीर्ण राजनीति जनहित तथा राष्ट्रहित के बजाय तुच्छ स्वार्थ से संचालित होती है। ऐसी राजनीति करने वाले नेता वास्तविक मुद्दों के बजाय जाति, क्षेत्र और भाषा के छद्म मुद्दों पर जनता को बरगलाते हैं, जिसमें स्वार्थ प्रथम और जनहित या राष्ट्र अंतिम होता है। ऐसी ही राजनीति इन दिनों महाराष्ट्र में हिंदी विरोध के नाम पर देखी जा रही है।
कथित भाषा को लेकर हो रही यह राजनीति राष्ट्रहित में तो नहीं ही है, बल्कि ‘मराठी मानुष’ के लिए भी हितकारी नहीं है। यह हालिया विवाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत कक्षा पांच तक के लिए तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य बनाने के राज्य सरकार के फैसले से शुरू हुआ। हालांकि विरोध के बाद हिंदी को वैकल्पिक कर दिया गया, लेकिन अपना सियासी वजूद गंवा रहे उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) ने इसमें तमिलनाडु या कर्नाटक की तर्ज पर एक मौका देखा।
यूबीटी और मनसे ने मिथ्या आरोप लगाया कि सरकार मराठियों पर हिंदी थोप रही है। हिंदी के इस विरोध के पीछे विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थ दिखता है, जिसकी अभिव्यक्ति उस मंच पर दिखी जब दशकों तक एक दूसरे के विरोधी रहे उद्धव और राज ठाकरे एक साथ आ गए। साफ है कि बीएमसी सहित आगामी निकाय चुनाव से पहले अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए ये नेता हिंदी विरोध को आखिरी दांव के रूप में आजमा रहे हैं।
हिंदी एवं उत्तर भारतीयों का विरोध करने वाले इन नेताओं को जानना चाहिए कि मराठी अस्मिता के दो सबसे प्रखर प्रतीक छत्रपति शिवाजी और उनके पुत्र छत्रपति संभाजीराजे का हिंदी और हिंदी क्षेत्र के लोगों से क्या संबंध था। जब औरंगजेब ने 1666 में शिवाजी को आगरा में धोखे से नजरबंद कर लिया, तब टोकरियों में छिपकर भगाने में स्थानीय हिंदी पट्टी के लोगों की अहम भूमिका रही।
यही नहीं, शिवाजी ने 1674 में अपने राज्याभिषेक के लिए काशी यानी हिंदी क्षेत्र के ही पुरोहितों को बुलाया था। शिवाजी के पुत्र संभाजीराजे का भी हिंदी वालों से गहरा नाता था। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स’ पुस्तक में बताते हैं कि संभाजीराजे हिंदी के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने हिंदी भाषा में ‘सातशतक’, ‘नखशिखा’ और ‘नायिकाभेद’ नामक तीन पुस्तकें भी लिखीं। मराठा इतिहास के एक महत्वपूर्ण स्रोत ‘मराठी बखरों’ के अनुसार काशी, प्रयाग, मथुरा आदि से उनका आत्मीय संपर्क रहा, जहां से विद्वानों-कलाकारों को वे बुलाते थे।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में एक अस्त्र बनाने का विचार महाराष्ट्र के ही एक सपूत ने दिया था। 1864 में महाराष्ट्र के श्रीमान पेंठे ने मराठी भाषा में ‘राष्ट्रभाषा’ नामक पुस्तक में लिखा कि आज देश की एकता के लिए एक भाषा की जरूरत है और वह भाषा हिंदी ही हो सकती है। महाराष्ट्र के ही लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और काका कालेलकर आदि ने भी हिंदी अपनाने की पुरजोर वकालत की। आज महाराष्ट्र की जनता को शिवाजी, संभाजीराजे और स्वाधीनता आंदोलन की महान, उदार विरासत को बताने की जरूरत है ताकि वे इन संकीर्ण नेताओं के बहकावे से बच सकें।
उद्धव ठाकरे की पोल तो इस तथ्य से भी खुल जाती है कि जब वह मुख्यमंत्री थे, तभी हिंदी को मराठी एवं अंग्रेजी कक्षा के साथ-साथ कक्षा एक से 12 तक अनिवार्य बनाने का फैसला जनवरी 2022 में कर लिया था। यह राजनीतिक पाखंड की पराकाष्ठा ही है कि बीएमसी समेत आगामी निकाय चुनावों में राजनीतिक लाभ के लिए उद्धव आज हिंदी विरोध को हवा दे रहे हैं।
इन नेताओं का राजनीतिक मुखौटा तब एकदम बेनकाब हो जाता है कि मराठी भाषा की चिंता करने वाले ठाकरे बंधु मुस्लिम इलाकों में मराठी के प्रश्न पर चुप्पी साध लेते हैं। मुस्लिम वोट बैंक के बारे में उद्धव गुट के नेता संजय राउत का हालिया कथन है कि मुस्लिम वोटों की चिंता करने की जरूरत नहीं, क्योंकि सब लोग हमारे साथ हैं। दरअसल यह मुस्लिम वोट बैंक छिटक न जाए, इसलिए मुस्लिम इलाकों में मराठी लागू कराने की उनकी कोई मंशा नहीं।
महाराष्ट्र के बच्चों को हिंदी से वंचित करना उनके करियर के लिए भी ठीक नहीं। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि मुंबई में ही हिंदी फिल्म एवं मनोरंजन उद्योग केंद्रित है, जिससे लाखों मराठी लोगों की आजीविका चलती है। आज करियर की भाषा के रूप में हिंदी एक नया मुकाम बना रही है। देश के चार सबसे बड़े अखबार हिंदी भाषा के ही हैं। देश में सबसे अधिक टीवी और यूट्यूब चैनल हिंदी के हैं। टेलीविजन विज्ञापनों में 70 प्रतिशत से अधिक विज्ञापन हिंदी में हैं, जिनके लिए हिंदी कापीराइटर्स चाहिए।
भारत के हर राज्य या महाराष्ट्र के ही तमाम विश्वविद्यालयों और कालेज में हिंदी पढ़ाई जाती है। यहां तक कि 200 विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। आर्थिक रूप से उभरते भारत में मल्टीनेशनल कंपनियों को अपने कंटेंट के लिए भारतीय भाषाओं और मुख्य रूप से हिंदी के कंटेंट राइटर या एडिटर की आवश्यकता होगी। दिल्ली विश्वविद्यालय में ही हिंदी पढ़ने वाले विदेशी छात्रों की संख्या एक दशक में दोगुनी हो गई है। हिंदी का विरोध महाराष्ट्र के बच्चों को तमाम अवसरों और नई संभावनाओं से वंचित ही करेंगे। इसके अतिरिक्त हिंदी का विरोध राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहार्द के लिए भी ठीक नहीं।
महाराष्ट्र के लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि ‘महाराष्ट्र’ नाम ही एक व्यापक भाव भूमि का प्रतीक है। महाराष्ट्र यानी वह क्षेत्र जो राष्ट्र का महाभाव लिए है, जो देश के सभी हिस्सों के लोगों को आत्मीय भाव से अपनाता हो। देश के किसी भी राज्य के नाम में राष्ट्र शब्द नहीं लगा है। हिंदी विरोध की निकृष्ट राजनीति द्वारा अपनी कमजोर होती राजनीतिक जमीन को मजबूत करने की ठाकरे बंधुओं की कोशिश कितनी सफल होगी, यह तो भविष्य ही बताएगा। इतना अवश्य स्पष्ट है कि यह विरोध न केवल महाराष्ट्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अपमान है, बल्कि स्वयं मराठी लोगों के हित में भी नहीं है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष हैं)
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