डा. एके वर्मा। भारतीय लोकतंत्र और संविधान प्रारंभ से ही अनेक झंझावातों से गुजरा है। शुरू में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, विभाजन, सांप्रदायिक हिंसा, शरणार्थी-पुनर्वास, औपनिवेशिक मानसिकता, पाकिस्तान एवं चीन विवाद आदि से विदेशी विद्वानों को लगता था कि भारत में लोकतंत्र और संविधान ढह जाएगा। भारत की जनता, सरकार और विपक्ष ने उन्हें गलत साबित किया। आज स्थिति विचित्र है।

विपक्षी दल सतारूढ़ भाजपा/राजग को अपदस्थ करने हेतु न केवल उस पर आधारहीन आरोप लगाते रहते हैं, वरन देश की संवैधानिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और संविधान को ही लांछित करने का प्रयास करते हैं। यह लोकतंत्र के आत्मा पर प्रहार करने जैसा है। संविधान, संवैधानिक संस्थाएं और संवैधानिक प्रक्रियाएं लोकतंत्र का आत्मा हैं।

विपक्षी दल इन पर लगातार आक्रामक हैं। नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी और अन्य दलों के नेता संविधान की प्रति लहराकर यह दिखाने की कोशिश करते हैं जैसे संविधान खतरे में है और उन्हें उसे बचाना है। संविधान में संशोधन करने और उसके खतरे में होने में बहुत फर्क है। केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है कि सरकार/संसद संविधान में बदलाव या संशोधन तो कर सकती है, लेकिन संविधान के‘मूल-ढांचे’ में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।

जो नेता संविधान की दुहाई देते हैं, वे स्वयं संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं। इसमें सभी दलों के नेता शामिल हैं। साफ है कि किसी के भी द्वारा संविधान नष्ट या उसके खतरे में होने और लोकतंत्र के लिए संकट खड़े हो जाने की बात करना भ्रम फैलाना और संविधान की अस्मिता पर आक्रमण जैसा है। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में कई बार संविधान को केवल बदलने का ही नहीं, वरन नष्ट करने का भी प्रयास किया।

1959 में प्रधानमंत्री नेहरू ने केरल में नंबूदरीपाद की निर्वाचित वामपंथी सरकार को अकारण भंग कर अनुच्छेद 356 का मनमाना इस्तेमाल किया। जून 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने हेतु अनुच्छेद 352 के अंतर्गत ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लगाया तथा लोकतंत्र और संविधान को दरकिनार कर हजारों नेताओं एवं बेगुनाह लोगों को ‘मीसा’ और ‘डीआइआर’ जैसे कठोर कानूनों के अंतर्गत जेल भेज दिया। इनमें ‘अपील, दलील और वकील’ का प्रविधान ही न था।

अनेक दलों के नेता, जिन्हें कांग्रेस ने आपातकाल में जेलों में ठूंस दिया था, वे भी मोदी विरोध के चलते आज उसी कांग्रेस के साथ खड़े दिखते हैं। आपातकाल में अखबारों पर ‘सेंसरशिप’ लगा दी गई थी। उसी दौरान कांग्रेस ने 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में कुछ बड़े बदलाव किए और ऐसे प्रविधान जोड़े, जिसे संविधान-निर्माताओं ने अस्वीकार कर दिया था। इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय तक को नहीं छोड़ा और तीन वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की उपेक्षा कर न्यायमूर्ति एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था।

विपक्ष काफी समय से संवैधानिक संस्थाओं और खासकर चुनाव आयोग को निशाना बना रहा है। चूंकि चुनाव ही सत्ता की सीढ़ी है, इसलिए लोकसभा चुनाव में परास्त होने और अनेक राज्यों में अप्रासंगिक होने से चुनाव आयोग पर आरोप तथा लांछन लगाना विपक्ष के लिए काफी आसान हो गया है। कभी वह चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों और निर्णयों पर अंगुली उठाता है, कभी उसे भाजपा के इशारे पर काम करने वाला बताता है, कभी ईवीएम, मतदाता सूची में अनियमितता, डाटा देने में विलंब, दलीय पक्षपात आदि का मुद्दा उठाकर चुनाव आयोग की छवि नष्ट करने का प्रयास करता है।

अनेक राज्यों में बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार आदि के अवैध घुसपैठियों ने फर्जी तरीकों से आधार, पैन, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र आदि दस्तावेज प्राप्त कर कई निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता-सूचियों में अपना नाम अंकित करा लिया है। यह लोकतंत्र और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है, क्योंकि केवल भारतीय नागरिकों को ही मत देने का अधिकार है। चुनाव आयोग ने इस पर अपना रुख सख्त करते हुए सभी राज्यों में ‘मतदाता सूचियों के गहन पुनरीक्षण’ का निर्णय लिया है। बिहार में वह ऐसे लोगों की पहचान संबंधी पहल कर चुका है, पर विपक्ष को इस पर आपत्ति है और इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी। न्यायालय ने आयोग की इस कार्रवाई पर रोक नहीं लगाई। देखना है कि न्यायालय इस पर क्या अंतिम निर्णय लेता है?

राहुल गांधी तो विदेश में भी चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते रहे हैं। गत अप्रैल में उन्होंने अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में भारतीय चुनाव प्रणाली पर ‘गंभीर अनियमितताओं’ का आरोप लगाया और विशेष रूप से महाराष्ट्र में मतदाता सूची में अनियमितताओं का जिक्र किया। जब नेता-प्रतिपक्ष ही लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं पर विदेश में ऐसे अनर्गल आरोप लगाएगा, तो न केवल भारतीय लोकतंत्र की वैश्विक छवि खराब होगी, वरन जनता के मन में भी शंका उत्पन्न होगी।

देश में मतदाताओं, प्रत्याशियों और दलों की विशाल संख्या, चुनावों की बारंबारता, प्रक्रियाओं की जटिलता, तकनीकी-प्रशासकीय चुनौतियां, सांप्रदायिक और लोकतांत्रिक संवेदनशीलता आदि को समायोजित कर अत्यधिक मेहनत से संपन्न की जाने वाली कठिन चुनाव प्रक्रिया पर नेता और राजनीतिक दल एक मिनट में कालिख पोत देते हैं।

यह अक्षम्य अपराध है। संभव है कि चुनाव प्रक्रिया में कुछ अधिकारी, कर्मचारी किसी निर्वाचन क्षेत्र में गलती करें, कुछ क्षेत्रों में जाने-अनजाने कोई त्रुटि हो, कुछ मतदाता सूचियों में कहीं अनियमिताएं भी दिखें, लेकिन चुनाव आयोग उसका उत्तरदायित्व निर्धारित करता है और चिह्नित लोगों को विधि अनुसार दंड भी देता है, लेकिन विपक्ष द्वारा संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं को लांछित करना अनुचित और अवांछनीय है। यदि विपक्षी दलों ने लोकतंत्र, संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और संवैधानिक प्रक्रियाओं के प्रति आक्रामक रवैया नहीं छोड़ा, तो जनता की आस्था लोकतंत्र और संविधान में घट सकती है जो लोकतंत्र, सत्तापक्ष और विपक्ष सभी के लिए हानिकारक होगी।

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड पालिटिक्स में निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)