अनुशासन का अर्थ है नियम के अंतर्गत चलना। अब प्रश्न है कि नियम क्या है? नियम, नैतिकता को कहते हैं और नैतिकता, सरलता और सुगमता को कहा जाता है। नैतिकता नीति से बना हुआ शब्द है, जिसका अर्थ होता है जीवन में सरल और सुगम बनना। प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही सरल और सुगम होता है, लेकिन जब वह बड़ा हो जाता है तो उसमें विकार आ जाते हैं। इसी बुराई से बचने के लिए संयम, नियम और अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है। अनुशासन दो प्रकार के होते हैं। एक बाहर का अनुशासन और दूसरा भीतर का या आंतरिक अनुशासन। बाहर का अनुशासन दिखावटी होता है और भीतर का अनुशासन मौलिक होता है।

बाहर के अनुशासन के लिए हम व्यायाम करते हैं, लेकिन भीतर के अनुशासन के लिए हमें प्राणायाम करना पड़ता है। भीतर का अनुशासन तभी आता है, जब मन में उठ रहे काम, क्रोध के वेग को प्राणायाम से नियंत्रित किया जाए। भीतर के अनुशासन के लिए प्राणायाम केसिवा और कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि भीतर की क्रिया को बाहर से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। आजकल अनुशासन का अर्थ गलत लगाया जाता है। बच्चे पढ़ने जाते हैं। टीचर उन्हें अनुशासन में रहने की बात कहते हैं। वहां अनुशासन का अर्थ बताया जाता है कि सीधे बैठे रहो, हिलो मत। यह अनुशासन नहीं है। केवल शरीर को सीधा करके बैठना अनुशासन नहीं होता। इसे तो हम व्यायाम कह सकते हैं, लेकिन हम व्यायाम को ही अनुशासन मान लेते हैं। हिलो मत का अर्थ अनुशासन नहीं है। अनुशासन तो भीतर से आना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति शिक्षक के भय से अथवा कमांडर के भय से सीधा खड़ा है, तो वह अनुशासन में नहीं है, वह भय के कारण अनुशासन में दिख रहा है। इसलिए जहां भय होगा, वहां अनुशासन नहीं हो सकता। पतंजलि ने संयम, नियम और आसन की बात की है। संयमपूर्वक नियम का पालन ही अनुशासन है। जो भीतर से नियम का पालन करे, विकारमुक्त हो जाए, काम क्रोध, अहंकार से प्रभावित न हो, उसे ही अनुशासित कहते हैं। देश में भगवान बुद्ध, महावीर और अनेक संत हुए हैं, उन्होंने आंतरिक अनुशासन का पालन किया। जिसने काम, क्रोभ, मद, मोह और ईष्र्या को नियंत्रित करना सीख लिया वह अनुशासनपूर्वक जीने लगा।

[आचार्य सुदर्शन महाराज]