संजय गुप्त: अंततः बिहार सरकार ने जातिवार गणना के आंकड़े जारी कर दिए। यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। उसने बिहार सरकार को लोगों के निजी आंकड़े सार्वजनिक न करने का आदेश तो दिया, लेकिन साथ ही यह कहा कि यह एक नीतिगत मामला है और वह उस पर रोक नहीं लगा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को नोटिस जारी करते हुए मामले की सुनवाई जनवरी में करने का फैसला किया है। तब वह जातिगत सर्वेक्षण कराने के राज्य सरकार के अधिकार से संबंधित मुद्दे पर गौर करेगा।

नीतीश सरकार ने जातिवार गणना के आंकड़े जारी करने को एक उपलब्धि की तरह पेश किया है। कई विपक्षी दल यह आभास करा रहे हैं, जैसे नीतीश सरकार ने जातिवार गणना के आंकड़े जारी कर राजनीतिक फतह हासिल कर ली है। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल जनगणना के साथ पूरे देश में जातिवार गणना कराने की मांग कर रहे हैं। केंद्र सरकार इसके लिए तैयार नहीं, लेकिन उसे देश में जनगणना कराने का काम तो प्राथमिकता के आधार पर करना ही चाहिए, क्योंकि कायदे से वह 2021 में शुरू हो जानी चाहिए थी। अब जब कोविड का असर खत्म हो गया है, तब जनगणना कराने में देरी नहीं ठीक नहीं।

एक समय था कि कांग्रेस जातिवार गणना के विरोध में थी। उसने सत्ता में रहते समय सहयोगी दलों के दबाव में 2011 में जनगणना के साथ जातिवार गणना कराई तो, लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किए। अब वह देशव्यापी जातिवार गणना कराने को लेकर मुखर है और “जितनी आबादी उतना हक” का नारा भी लगा रही है। यह कांशीराम के उस नारे की नकल ही है, जिसमें वह कहा करते थे कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। देश में इसके पहले जातिवार गणना 1931 में अंग्रेजी सत्ता ने कराई थी। माना जाता है कि समय के साथ पिछड़ी जातियों की आबादी बढ़ी है और अगड़ी कही जाने वाली जातियों की कम हुई है। इसकी झलक बिहार की जातिवार गणना के आंकड़ों में भी दिख रही है।

अगड़ी जातियों की आबादी कम होने का एक कारण यह माना जाता है कि इन जातियों के अनेक लोग नौकरी या व्यापार के सिलसिले में बिहार से पलायन कर गए। जहां बिहार सरकार जातिवार गणना के आंकड़ों को अपनी जीत की तरह पेश कर रही है, वहीं कई दलों के नेता इन आंकड़ों की सच्चाई पर संदेह जता रहे हैं। इन नेताओं को यह शिकायत है कि उनकी जाति के लोगों की संख्या कम करके दिखाई गई है। भाजपा सांसद रविशंकर प्रसाद ने तो यह आरोप लगाया कि उन्हीं जातियों की जनसंख्या बढ़ी हुई दिखाई गई, जो जदयू या राजद का वोट बैंक हैं।

बिहार सरकार का तर्क है कि जातिवार गणना के आंकड़े जारी होने से जनकल्याण की योजनाओं को सही तरह लागू करने में मदद मिलेगी और उससे अति पिछड़ों, पिछड़ों के साथ अनुसूचित जातियों, जनजातियों यानी एससी-एसटी वर्ग का उत्थान होगा, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर किसी और खासकर जदयू और राजद नेताओं के पास नहीं कि जब बिहार में तीन दशकों से अधिक समय से इन दोनों ही दलों का शासन रहा है, तब फिर इन जातियों का उत्थान क्यों नहीं हुआ? बिहार में पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों की आबादी सबसे अधिक होने पर हैरानी नहीं। यदि देश भर में जातिवार गणना हो तो संभवतः यही सामने आएगा कि एससी-एसटी के साथ पिछड़े वर्गों की आबादी सबसे अधिक है।

जो भी हो, जितनी आबादी उतना हक की अवधारणा इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि जो वास्तव में आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पीछे हैं, उनके ही उत्थान पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह अवधारणा बहुसंख्यकवाद को भी बल देती दिखाई देती है। कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस ओर संकेत करते हुए कहा भी कि इसके परिणामों को समझने की जरूरत है। बाद में वह अपने कथन से पीछे हट गए, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने सीधा सवाल किया कि क्या अब कांग्रेस अल्पसंख्यकों के अधिकार कम करना चाहती है? उन्होंने यह भी कहा कि उनके लिए गरीब ही सबसे बड़ी जाति और सबसे बड़ी आबादी है। उन्होंने कांग्रेस पर हिंदुओं और गरीबों को बांटने का आरोप भी लगाया।

अनुसूचित जातियों- जनजातियों को आजादी के बाद से ही आरक्षण प्राप्त है। इसके बाद 1990 में मंडल आयोग की रपट लागू करके अन्य पिछड़ा वर्गों को भी आरक्षण के दायरे में ले आया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय की है, लेकिन कुछ राज्यों में यह प्रतिशत 60-70 से अधिक पहुंच गया है। निःसंदेह हर सरकार को गरीबी दूर करने को प्राथमिकता देनी चाहिए और ऐसा करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आरक्षण का लाभ पात्र लोगों यानी आर्थिक- सामाजिक- शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को ही मिले। विडंबना यह है कि अधिकांश दल सामाजिक न्याय के नाम पर जाति की राजनीति करते हैं। वे ऐसा करके दलितों और पिछड़ों के वोट तो ले लेते हैं, लेकिन उनके सामाजिक उत्थान के ठोस उपाय नहीं करते। ऐसे दल यह देखने से इन्कार करते हैं कि यदि देश का आर्थिक विकास धीमा होगा तो फिर गरीबों का भला नहीं किया जा सकता।

क्या यह कहा जा सकता है कि बिहार या अन्य राज्यों में पिछड़ी जाति के सभी लोग गरीब हैं और आरक्षण से एससी-एसटी एवं ओबीसी वर्ग की सभी जातियों को लाभ मिला है? सच यह है कि इन वर्गों की कुछ ही अपेक्षाकृत समर्थ जातियों को आरक्षण का लाभ मिला है। यह समझने की आवश्यकता है कि पिछड़ी और गरीब जातियों का उत्थान तब होगा, जब उन्हें अच्छी शिक्षा मिलेगी। राज्य सरकारें इसी काम में पीछे हैं।

बिहार की ही बात करें तो चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या स्‍वास्‍थ्‍य का या आधारभूत ढांचे का, वह अन्‍य राज्‍यों से कहीं पीछे है। इसी कारण बिहार के तमाम लोग दूसरे प्रदेशों में जाकर गुजर-बसर करने को विवश हैं। बिहार में मेधा की कमी नहीं। वहां के छात्र बड़ी संख्या में आइआइटी में चयनित होते हैं और आइएएस, आइपीएस बनते हैं। इसके बाद भी बिहार आर्थिक प्रगति नहीं कर पा रहा है। इसका एक कारण जाति की राजनीति है। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि सामाजिक न्याय के नाम पर जाति की राजनीति ठीक नहीं। इस राजनीति से समाज विभाजित होता है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]