विचार: भारतीयों को सशंकित कर रहा है चीन, लेकिन रिश्तों में सुधार की उम्मीद कम
सर्वेक्षण के साथ अंतरराष्ट्रीय मामलों में सजग भारतीयों की रुचि यह दर्शाती है कि भारत के समक्ष चुनौतियों को लेकर उनमें और खासकर युवाओं में गहरी समझ है। आने वाले समय में उनके दृष्टिकोण में कुछ बदलाव भी प्रत्यक्ष होंगे लेकिन जिस तरह की परिस्थितियां आकार ले रही हैं उसमें उनके मनोभावों को और मजबूती ही मिलेगी।
हर्ष वी. पंत शिवम शेखावत। डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका की दोबारा कमान संभालने के बाद से वैश्विक ढांचे में अस्थिरता-अनिश्चितता का भाव निरंतर बढ़ने पर है। नीति निर्माण से जुड़े उनके मनमाने एवं एकतरफा रवैये का असर अमेरिका के दोस्तों के साथ ही उसके प्रतिद्वंद्वियों पर भी समान रूप से पड़ रहा है। यूक्रेन-रूस युद्ध, पश्चिम एशिया में जारी टकराव, दक्षिण एशिया में आतंक का बढ़ता प्रकोप और चीन की आक्रामकता में हो रही वृद्धि जैसे पहलू भी अंतरराष्ट्रीय मामलों की दशा-दिशा पर अपना असर डाल रहे हैं।
समय के साथ वैश्विक मामलों में भारत की भूमिका भी बढ़ी है, तो वैश्विक ढांचे को नया आकार देने में भारतीयों की आकांक्षाएं भी उसी अनुपात में बढ़ रही हैं। आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन-ओरआएफ ने एक सर्वे के जरिये इन आकांक्षाओं की थाह लेने का प्रयास किया है। इसमें कुछ दिलचस्प संकेत उभरते हैं। इस बार ओरआएफ का विदेश नीति संबंधी सर्वे चीन की चुनौतियों के संदर्भ में युवा भारत के मन की थाह लेने पर केंद्रित है। आखिर देश का युवा विदेश नीति संबंधी निर्णयों एवं चुनौतियों को किस रूप में देखता है।
इस सर्वे में देश के 19 शहरों में 11 भाषाओं के जरिये 18 से 35 वर्ष की आयु के पांच हजार से अधिक युवाओं से संवाद किया गया। चूंकि यह सर्वे पिछले वर्ष 22 जुलाई से 26 सितंबर के बीच हुआ, इसलिए इसमें ट्रंप के दोबारा अमेरिका की कमान संभालने के प्रभाव से लेकर पहलगाम आतंकी हमले और उसके जवाब में आपरेशन सिंदूर जैसे अभियान एवं भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़े तनाव पर नजरिया सामने नहीं आ सका, लेकिन इसकी व्यापक झलक जरूर मिलती है कि वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों और उनके प्रति भारत के दृष्टिकोण को लेकर हमारा युवा वर्ग क्या सोचता-समझता है।
सबसे प्रमुख पहलू तो यह उभरा कि भारत की विदेश नीति के प्रति समर्थन में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है और करीब 88 प्रतिशत उत्तरदाताओं का रवैया इसे लेकर सकारात्मक है। वर्तमान परिस्थितियों से निपटने में भारत की सफलता को लेकर यह बढ़ते भरोसे का प्रतीक है। चीन को लेकर भावनाओं का आकलन करना था तो उत्तरदाताओं के बीच भी इस मुद्दे की महत्ता बखूबी महसूस हुई। 89 प्रतिशत ने माना कि चीन के साथ सीमा विवाद भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसके बाद 86 प्रतिशत ने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को दूसरी, जबकि 85 प्रतिशत ने पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद को तीसरी सबसे प्रमुख चुनौती के रूप में चिह्नित किया।
भले ही भारत-चीन ने तनाव घटाने की दिशा में कुछ प्रयास शुरू किए हैं, लेकिन अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि रिश्तों में सुधार को लेकर उम्मीद बहुत कम है। एक साल पहले चीन को लेकर भरोसे की जो कमी थी, वह और ज्यादा बढ़ गई। गलवन के हिंसक संघर्ष के पांच साल बाद भी चीन के प्रति दुराव कम नहीं हुआ है। अधिकांश युवा उसके उभार को लेकर चिंतित होने के साथ ही उसे एक सैन्य खतरे के रूप में भी देखते हैं। इनमें 81 प्रतिशत तिब्बत पर अवैध कब्जे को रिश्तों में बड़ा अवरोध मानते हैं। करीब 84 प्रतिशत युवा आर्थिक साझेदारी पर राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं, जो चीन से आयात घटाने के हिमायती हैं। वहीं, 79 प्रतिशत युवाओं का मानना है कि चीन की बीआरआइ परियोजना से दूर रहने का फैसला हमारे लिए हितकारी है।
भारत के लोगों और खासकर युवाओं के बीच रणनीतिक परिदृश्य पर हिंद महासागर क्षेत्र का महत्व बढ़ा है। इसके बाद दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बारी आती है। इसमें सामुद्रिक मोर्चे पर चीन के बढ़ते दखल की चिंता झलकती है। भारत की ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति को भी भरपूर समर्थन मिल रहा है। सर्वाधिक 72 प्रतिशत युवा नेपाल को सबसे भरोसेमंद पड़ोसी के रूप में देखते हैं। इसके बाद भूटान एवं श्रीलंका का स्थान आता है। बांग्लादेश को लेकर भरोसा 2022 से लगातार घटने पर है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के प्रति सर्वाधिक संशय बना हुआ है, लेकिन अफगानिस्तान को लेकर नजरिया पिछले साल के मुकाबले थोड़ा सुधरा है, जबकि पहलगाम की आतंकी घटना और आपरेशन सिंदूर के बाद तो पाकिस्तान को लेकर भावनाएं यकीनन और तल्ख हुई होंगी।
चाहे क्वाड जैसे संगठन में सहयोगियों से रिश्तों को प्रगाढ़ बनाना हो या रूस जैसे सदाबहार दोस्त को साधे रखना, रणनीतिक स्वायत्तता को लेकर भारत के प्रयासों को युवा वर्ग की सराहना मिल रही है। सबसे अधिक सकारात्मक रवैया अमेरिका को लेकर दिखा, जिसमें 86 प्रतिशत युवा उसके साथ रिश्तों को संतोषजनक मानते हुए अगले दस वर्षों में उसे सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार के रूप में देख रहे हैं। चूंकि ये भावनाएं पिछले कुछ समय में परवान चढ़ रहे रिश्तों के आधार पर पनपी हैं, इसलिए ट्रंप के रवैये को देखते हुए आगामी दिनों में कुछ अलग तस्वीर दिख सकती है।
हालांकि 54 प्रतिशत युवा अभी भी मानते हैं कि चीनी चुनौती की काट के लिए भारत को अमेरिका के साथ अपनी जुगलबंदी और बेहतर करनी चाहिए। जहां क्वाड को लेकर उत्साह है, वहीं शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ को लेकर संदेह है, क्योंकि इसमें चीन का दबदबा है। अधिकांश युवाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है तो एक बड़ा वर्ग जी-7 जैसे समूह में भी भारत को नियमित सदस्य के रूप में देखना चाहता है, ताकि इसमें शामिल अन्य विकसित देशों के साथ सक्रियता बढ़ाकर अपने हितों को पोषित किया जा सके।
सर्वेक्षण के साथ अंतरराष्ट्रीय मामलों में सजग भारतीयों की रुचि यह दर्शाती है कि भारत के समक्ष चुनौतियों को लेकर उनमें और खासकर युवाओं में गहरी समझ है। आने वाले समय में उनके दृष्टिकोण में कुछ बदलाव भी प्रत्यक्ष होंगे, लेकिन जिस तरह की परिस्थितियां आकार ले रही हैं, उसमें उनके मनोभावों को और मजबूती ही मिलेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि चीन-पाकिस्तान की खतरनाक होती जोड़ी को लेकर वे पहले से ही सतर्क हैं। यह भी ध्यान रहे कि चीन-अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता पहले से ही भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने का कंपास बनी हुई है।
(पंत आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष और शेखावत जूनियर फेलो हैं)
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