आदित्य सिन्हा। किसी देश को यदि दीर्घकालिक एवं स्थायी प्रकृति की आर्थिक प्रगति का लक्ष्य हासिल करना है तो उसके लिए शोध एवं विकास (आरएंडडी) में निवेश आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य होता है। इतिहास ऐसी मिसालों से भरा हुआ है। ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति सुव्यवस्थित वैज्ञानिक अन्वेषण और पेटेंट अधिकारों को संहिताबद्ध करने की कवायद से प्रेरित थी, जिसने विभिन्न उद्योगों में नए आविष्कारों को प्रोत्साहित किया।

बीसवीं सदी में महाशक्ति के रूप में अमेरिका के उभरने के पीछे विज्ञान को सरकारी नीतियों के केंद्र में रखने की अहम भूमिका थी। अमेरिका ने इस दौरान नेशनल साइंस फाउंडेशन और डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी-डारपा जैसे संस्थानों की स्थापना के साथ रक्षा, अंतरिक्ष और मेडिकल शोध में बड़े पैमाने पर निवेश किया। इसने एयरोस्पेस से लेकर इंटरनेट तक जैसे तमाम क्षेत्रों को नए आयाम दिए। हाल में चीन के उभार और विशेषकर एक प्रौद्योगिकी महाशक्ति के रूप में बनी उसकी पहचान में शोध एवं विकास को नीतियों के केंद्र में रखने की अहम भूमिका रही है। संभावनाशील अत्याधुनिक तकनीकों में चीनी सरकार और औद्योगिक क्षेत्र के निवेश ने बीजिंग को बढ़त दिलाई है। स्पष्ट है कि जिस देश ने विज्ञान को अपनी नीतियों के मूल में रखा, तो न केवल उसने समृद्धि के नए प्रतिमान गढ़े, बल्कि अपनी संप्रभुता का भी विस्तार किया।

भारत के आरएंडडी परिदृश्य पर निवेश के सूखे को समाप्त करने के लिए सरकार ने हाल के वर्षों में भरसक प्रयास किए हैं। अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एएनआरएफ), हाई-टेक क्षेत्रों के लिए विस्तारित उत्पादन आधारित प्रोत्साहन-पीएलआइ योजना से लेकर सेमीकंडक्टर, अंतरिक्ष और क्वांटम टेक्नोलाजी में निवेश विज्ञानोन्मुखी विकास की दिशा में गंभीर नीतिगत प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। हालांकि निजी क्षेत्र ने इसमें सही तालमेल नहीं दिखाया, जो जोखिम लेने का इच्छुक नहीं दिखता।

अमेरिका, जापान और चीन जैसे देशों की शोध एवं विकास गतिविधियों में जहां निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत तक है, वहीं भारत में यह महज एक तिहाई के दायरे में सिमटा हुआ है। विकास की गति जिन कारणों से अपेक्षित रूप से तेजी नहीं पकड़ पा रही, उनमें से एक यह भी है। निजी क्षेत्र के इस सतर्कता भरे रवैये के पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो पहला यही दिखता है कि तमाम कंपनियां उन प्रतिस्पर्धी क्षेत्रों में सक्रिय हैं जहां लागत का पहलू बहुत मायने रखता है और उनमें मुनाफा भी बहुत ज्यादा नहीं होता। ऐसे में किसी दीर्घकालिक नवाचार से मिलने वाले लाभ को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है।

उद्योग और अकादमिक जगत के बीच की कमजोर कड़ी से भी कंपनियों को अक्सर कुशल शोधार्थी नहीं मिल पाते और अत्याधुनिक शोध से वे दूर रह जाती हैं। तमाम भारतीय कंपनियों में कारपोरेट गवर्नेंस का स्तर भी एक बड़ा अवरोध है, जिसमें दीर्घकालिक क्षमता निर्माण पर तात्कालिक लाभ को तरजीह दी जाती है। चूंकि भारत में विज्ञान-केंद्रित स्टार्टअप्स के लिए गहन वेंचर कैपिटल (उद्यमों के लिए जोखिम पूंजी) इकोसिस्टम का अभाव है तो शुरुआती उड़ान भरने के लिए भी उन्हें वित्तीय ईंधन नहीं मिल पाता। नियामकीय अनिश्चितता और सीमित बौद्धिक संपदा समर्थन भी कंपनियों को शोध एवं निवेश में प्रयास बढ़ाने के प्रति हतोत्साहित करता है। परिणामस्वरूप भारत में शोध एवं विकास को संपदा से अधिक बोझ समझा जाता है।

इस मोर्चे पर कायम विसंगतियों को दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने एक जुलाई को रिसर्च डेवलपमेंट एंड इनोवेशन (आरडीआइ) योजना का एलान किया है। एक लाख करोड़ रुपये की यह योजना भारत को वैश्विक नालेज एवं इनोवेशन केंद्र के रूप में स्थापित करने के लिहाज से बाजी पलटने वाली साबित हो सकती है। इससे आरएंडडी निवेश की धारा में वित्तीय प्रवाह बढ़ेगा। इसमें कई उपयोगी प्रविधान किए गए हैं। जैसे नवाचार-केंद्रित परियोजनाओं के लिए निजी क्षेत्र को शून्य या बहुत कम ब्याज पर दीर्घकालिक ऋण या इक्विटी फंडिंग उपलब्ध कराई जाएगी। इससे उदीयमान क्षेत्रों से लेकर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए आवश्यक निवेश उपलब्ध हो सकेगा, जिससे क्वांटम टेक्नोलाजी, स्वच्छ ऊर्जा, सेमीकंडक्टर और एयरोस्पेस जैसे तमाम क्षेत्रों में नई संभावनाएं साकार होंगी।

आरडीआइ योजना के अंतर्गत वित्तीय संसाधन एक विशेष उद्देश्य कोष के माध्यम से द्वितीयक स्तर पर सक्रिय कोष प्रबंधकों को प्राप्त होंगे। ये प्रबंधक पूंजी को ऋण, इक्विटी या किसी अन्य रूप में डीप-टेक फंड को उपलब्ध कराएंगे। यह संस्थागत ढांचा रणनीतिक सुसंगति, जवाबदेही और दक्षता को सुनिश्चित करता है। हायर टेक्नोलाजी रेडीनेस लेवल्स (टीआरएल) के लिए स्पष्ट रूप से वित्तीय संसाधनों का प्रबंध करते हुए यह योजना भारतीय आरएंडडी परिदृश्य में उद्यमों का उस खतरनाक पड़ाव से बेड़ा पार लगाएगी, जहां अधिकांश उद्यम दम तोड़ देते हैं। इसमें उन उद्यमों पर विशेष ध्यान होगा, जिनकी तकनीक भारत की आर्थिक सुरक्षा एवं संप्रभुता की संरक्षा में सहायक होगी।

विशेष रूप से वैश्विक आपूर्ति शृंखला व्यवधानों एवं किसी देश द्वारा निर्यात नियंत्रण की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है। इस योजना में सरकार केवल संसाधन प्रदाता के रूप में ही नहीं, बल्कि एंकर निवेशक के रूप में भी एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाने जा रही है। इससे उन क्षेत्रों में भी निवेश का सवेरा होगा, जहां अभी तक निराशा का अंधेरा था। इसमें यह सुनिश्चित करने का भी प्रयास होगा कि वित्तीय संसाधन न केवल पर्याप्त रूप से उपलब्ध हो सकें, बल्कि वे परिणाम देने वाले हों, जहां प्रतिस्पर्धा एवं पारदर्शिता जैसे पहलुओं को अनदेखा न किया जाए।

शोध एवं विकास के क्षेत्र में एक वैश्विक शक्ति और 2047 तक प्रौद्योगिकी निर्यातक बनने की भारत की आकांक्षाओं के लिए यह नीति बहुत महत्वपूर्ण है। यदि इसे सही से अमल में लाया जा सका तो यह भारत के लिए वही भूमिका निभा सकती है, जैसी डारपा ने अमेरिका और नेशनल आइसी फंड ने चीन के लिए निभाई।

(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)