संजय गुप्त। संसद के मानसून सत्र का पहला सप्ताह बीत गया और इस पूरे सप्ताह दोनों सदनों में बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) के चुनाव आयोग के फैसले पर विपक्ष हंगामा करता रहा। उसने यह हंगामा संसद के बाहर भी किया।

राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर खास तौर पर निशाना साधा। पिछले दिनों उन्होंने यह भी कह दिया कि कर्नाटक के एक चुनाव क्षेत्र में धांधली हुई थी। उन्होंने चुनाव आयोग को एक तरह से धमकी दे डाली, जो कि संवैधानिक संस्था है। चूंकि राहुल गांधी कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता हैं, इसलिए पार्टी के अन्य नेता भी उनकी बात आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं।

लगता है विपक्ष ने ठान लिया है कि वह मतदाता सूची के सत्यापन के चुनाव आयोग के फैसले पर हंगामा करता ही रहेगा। यह हंगामा सुप्रीम कोर्ट की ओर से बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन के फैसले को सही ठहराने के बाद भी किया जा रहा है। शायद सत्तापक्ष ने भी मान लिया है कि विपक्ष इस मुद्दे के साथ ही अन्य कुछ मुद्दों पर हंगामा करता रहेगा। हो सकता है वह इस हंगामे के बीच ही कुछ विधेयक पास कराने की कोशिश करे। संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए विभिन्न मुद्दों पर संसद के भीतर-बाहर हंगामा करना विपक्ष की आदत बन गई है। पिछले 8-10 वर्षों से ऐसी आदत का परिचय कुछ ज्यादा ही दिया जा रहा है।

बिहार में इसी वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं। इसके पहले चुनाव आयोग ने इस राज्य में मतदाता सूची का सत्यापन कराना जरूरी समझा। उसकी यह प्रक्रिया अंतिम चरण में है। अब तो उसने यह भी कह दिया है कि वह सारे देश में मतदाता सूचियों का सत्यापन करेगा, क्योंकि यह किसी भी चुनाव में आवश्यक होता है कि वैध मतदाता ही वोट देने का अधिकार रखें। यह सही बात है। आखिर इसका क्या मतलब कि जो लोग वैध मतदाता नहीं हैं अथवा स्थायी रूप से अन्य कहीं बस गए हैं या फिर बाहरी देशों के लोग और यहां तक कि घुसपैठिए हैं, वे भी चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा ले सकें?

विपक्ष को चुनाव आयोग के इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि आखिर अनुचित तरीके से वोटर बने और बनाए गए लोगों को मतदान का अधिकार कैसे दिया जा सकता है? चुनाव आयोग ने यह पाया है कि बिहार में 60 लाख से अधिक लोग ऐसे हैं, जो इस राज्य में वोट डालने के अधिकारी नहीं हैं। क्या चुनाव आयोग ऐसे लोगों की अनदेखी कर दे? उसे ऐसे लोगों को वोट देने की अनुमति क्यों देनी चाहिए, जिनके बारे में उसे संदेह है कि वे भारत के नागरिक नहीं हैं अथवा राज्य विशेष छोड़कर स्थायी रूप से अन्यत्र बस गए हैं? क्या यह किसी से छिपा है कि हर कहीं ऐसे कई लोगों के नाम मतदाता सूची में होते हैं, जिनका निधन हो चुका होता है या जो कहीं और जा बसे होते हैं। कई बार उनकी जगह दूसरे लोग वोट दे देते हैं।

क्या इस सबसे चुनाव आयोग आंखें मूंद ले? सबसे आश्चर्य की बात यह है कि विपक्ष इस पर गौर करने से इन्कार कर रहा है कि उसके जो नेता चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए थे, उनकी दलीलें सही नहीं पाई गईं? इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन की प्रक्रिया पर रोक लगाने से मना कर दिया। उसने कुछ सुझाव चुनाव आयोग को अवश्य दिए, जिनसे आयोग सहमत नहीं। विपक्ष अपनी आपत्ति उचित ठहराने के लिए यह तर्क दे रहा है कि बिहार के लोगों को चुनाव आयोग ने पूरा समय नहीं दिया। वह यह भी पूछ रहा है कि आयोग विधानसभा चुनाव के पहले इस प्रक्रिया को क्यों पूरी करना चाहता है, लेकिन क्या यह कोई अनुचित बात है अथवा चुनाव आयोग को मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण नहीं करना चाहिए?

यह सही है कि बिहार में अच्छी-खासी संख्या में लोगों को चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया में भाग लेना पड़ा रहा है, लेकिन जनता के कुछ अधिकार होते हैं तो कर्तव्य भी। विपक्षी दल और विशेष रूप से राहुल गांधी यह माहौल बनाने में लगे हुए हैं कि चुनाव आयोग पिछले दरवाजे से भाजपा की मदद करने में लगा हुआ है और मोदी सरकार के इशारे पर ही सब कुछ कर रहा है। इसके पहले वे महाराष्ट्र में चुनाव प्रक्रिया में कथित धांधली का मुद्दा उठा चुके हैं। चुनाव आयोग उन्हें जवाब भी दे चुका है, लेकिन वे और उनके साथी कुछ समझने को तैयार नहीं।

विपक्षी दल और खासकर कांग्रेस मतदाता सूचियों के सत्यापन के साथ ऐसे भी मुद्दों को तूल देने में लगी हुई है, जो आम जनता की प्राथमिकता वाले नहीं हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने यह मान लिया है कि उसके अपने कारणों से उसकी जो राजनीतिक जमीन कमजोर हो रही है, उसे मजबूत करने का एकमात्र तरीका सरकार और संवैधानिक संस्थाओं पर उलटे-सीधे आरोप लगाने का है। इससे तो कांग्रेस और अधिक कमजोर ही होगी, क्योंकि औसत लोग अपने हित-अहित के मुद्दों को अच्छी तरह समझते हैं।

अच्छा हो कि राहुल गांधी इस पर ध्यान दें कि कांग्रेस अभी भी अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल कर सकती है, क्योंकि उसके पास करीब 20 प्रतिशत वोट हैं। कांग्रेस इस तथ्य को भी अनदेखा करना पसंद कर रही है कि चुनाव में हार-जीत लगी रहती है और भाजपा भी चुनाव हारती है। झारखंड में वह विधानसभा चुनाव नहीं जीत सकी। वह पश्चिम बंगाल में नाकाम रही थी। यह कांग्रेस की अपनी कमजोरी है कि भाजपा उस पर भारी पड़ती जा रही है। यदि कांग्रेस ने अपना रुख-रवैया सही नहीं किया तो उसके साथ खड़े क्षेत्रीय दल उसकी बची-खुची राजनीतिक जमीन पर भी कब्जा कर लेंगे। कई राज्यों में वह पहले ही क्षेत्रीय दलों के सामने बौनी पड़ चुकी है। बेहतर होगा कि कांग्रेस इस बात को समझे कि यह निराधार प्रचार करना सही नहीं कि भाजपा चुनाव आयोग के सहारे चुनाव जीत रही है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]