मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। यह उक्ति इस तथ्य को इंगित करती है कि मनुष्य चाहे तो कोई भी असंभव कार्य इस दुनिया में कर सकता है। यह उसके जीवट के बलबूते संभव है। प्रारब्ध व संचित कर्म आदि के बावजूद मनुष्य संकल्प शक्ति के सहारे अपने भाग्य को बदल पाने में समर्थ है। ऐसा दुनिया के अनेक सफल और महान व्यक्तियों ने किया है। वर्तमान में भी अनेक लोग उसी दिशा में संलग्न हैं और भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा। तभी तो मनुष्य को ईश्वर का श्रेष्ठतम पुत्र कहकर संबोधित किया गया है। मनुष्य से यह भी अपेक्षा रखी गई है कि वह अपने कर्मो के सहारे इस सृष्टि रूपी बगिया को सुरम्य, सुरुचिपूर्ण और अनुशासित बनाए रखे। स्वर्ग-नरक जो कुछ भी है सब इसी धरती पर मौजूद हैं। शांति व आनंद से परिपूर्ण मनोदशा का नाम ही स्वर्ग है। शांति ऐसा वातावरण विनिर्मित करती है कि चारों ओर कथित स्वर्ग सरीखी परिस्थितियां स्वत: बनने लगती हैं। मनुष्य यदि चाहे तो वह निषेधात्मक चिंतन, ईष्र्या-द्वेष भाव आदि रखते हुए या फिर आपराधिक कर्म करते हुए नारकीय मनोदशा में भी रह सकता है। सच तो यह है कि इस धरती को स्वर्ग जैसा ऐश्वर्ययुक्त बनाए रखना ही ईश्वर को मनुष्य से अभीष्ट है। इसलिए मनुष्य को पूरी छूट दी गई है कि वह अपने मानव शरीर रूपी इस योनि में जितना भी कुछ श्रेष्ठतम संभव हो सकता है, वह अपनी जीवन-अवधि में पूरा कर दिखाए। इसी को कहते हैं, अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करना।

भाग्य का निर्माण करने के लिए मन की चंचलता को नियंत्रित करना आवश्यक है। अगर आप इस चंचलता को नियंत्रित नहीं कर सके तो वांछित कार्य के प्रति एकाग्र नहीं हो सकेंगे। मन की चंचलता हमें हमारे लक्ष्य से भटकाने का काम करती है। इसके अलावा तकदीर चमकाने के लिए आपको जीवन में होने वाले बदलावों के साथ सामंजस्य बिठाने के गुण को सीखना होगा। याद रखें, परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है। इस संसार में सिर्फ परिवर्तन का ही परिवर्तन नहीं होता। एक नई सुबह आपके साथ है तो फिर निकल पड़िए अपनी तकदीर बनाने।

[शशि शेखर शुक्ल]

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