डा. लक्ष्मी शंकर यादव। देश के कई पूर्वोत्तर राज्यों के बीच आपसी सीमा विवाद लंबे समय से जारी है। दरअसल पहाड़ और जंगल जैसे दुर्गम क्षेत्रों में सीमांकन का कार्य बेहद मुश्किल होने के कारण कई बार किसी क्षेत्र विशेष पर दोनों निकटतम राज्यों की ओर से दावा किया जाता रहा है। लिहाजा धीरे धीरे यह विवाद का रूप धर लेता है जो किसी तात्कालिक कारण से कई बार उग्र रूप भी धारण कर लेता है।

विदित हो कि असम और मेघालय राज्यों की 884 किलोमीटर की सीमा में कुल 12 स्थान विवादित हैं जिनमें से छह जगहों का समझौता हो गया है। जिन क्षेत्रों का समझौता हुआ है उस हिसाब से देखा जाए तो लगभग 70 प्रतिशत सीमाई इलाका विवाद मुक्त हो गया है। गृह मंत्री ने यह उम्मीद जताई है कि शेष छह स्थानों का विवाद भी जल्द सुलझ जाएगा।

गृह मंत्री अमित शाह के पद संभालने के बाद पूर्वोत्तर राज्यों के कई विवादों के स्थायी समाधान निकालने की दिशा में काफी तेजी से काम हुआ है। इससे पहले अगस्त 2019 में त्रिपुरा में नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसके बाद 23 जनवरी 2020 को ब्रू-रियांग शरणार्थियों के 23 वर्ष पुराने विवाद को समाप्त करने के लिए समझौता किया गया। इसके चार दिन बाद 27 जनवरी 2020 को बोडोलैंड के 50 वर्ष पुराने विवाद को खत्म करने में सफलता हासिल हुई। चार सितंबर 2021 को कार्बी-आंगलोंग समझौता होने से कार्बी क्षेत्र में चला आ रहा पुराना विवाद समाप्त हो गया। इस तरह राज्यों के विवादों को सुलझाने में केंद्र व राज्य सरकारें काफी आगे बढ़ी हैं।

इस सीमा विवाद को समाप्त करने के लिए बनी सहमति एक बहुत बड़ी कामयाबी है। इस समझौते ने पूर्वोत्तर इलाके में स्थायी शांति की उम्मीद जगा दी है। दोनों राज्यों के बीच हुआ यह समझौता उत्तर पूर्व अन्य राज्यों के लिए नया माडल बनकर समस्त विवादों को हल करने की नई राह दिखा सकता है। इस समझौते की राह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की यह सलाह अत्यंत प्रेरणादायक बनी कि 'जब भारत-बांग्ला देश आपसी सीमा विवाद सुलझा सकते हैं तो देश के दो राज्य अपने विवाद क्यों नहीं हल कर सकते हैं।Ó

निश्चित रूप से इस समझौते से भारतीय संघ राज्य की परिकल्पना और मजबूत हुई है। संघीय ढांचे में दो राज्यों अथवा दो प्रशासनिक इकाइयों के बीच भौगोलिक सीमाओं के बंटवारे को लेकर विवादों का होना एक सामान्य बात है। ऐसे किसी मामले को भारतीय संविधान की भावना का आदर करते हुए आपसी सहमति से हल कर लेना एक विशेष उपलब्धि है। इन राज्यों के बीच के विवाद को सुलझाने के लिए वर्ष 1985 में देश के सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीशी वाईवी चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित समिति भी कोई हल नहीं निकाल सकी थी।

असम और मेघालय राज्यों के सीमा विवाद से जुड़े जिन क्षेत्रों के विवाद का समझौता हुआ है उनमें ताराबारी, गिजांग, हाहिम, बोकलापारा, खानापारा, पिलंगकाटा एवं रातवेरा हैं जो मेघालय में पश्चिम खासी हिल्स, री-मोई और पूर्वी जयंतिया हिल्स का और असम से कछार, कामरूप जिलों का हिस्सा है। समझौते में दोनों राज्यों की 36.79 वर्ग किलोमीटर जमीन के लिए भेजी गई सिफारिशों में इस बात का उल्लेख है कि असम 18.51 वर्ग किलोमीटर जमीन अपने पास रखेगा तथा 18.28 वर्ग किलोमीटर मेघालय को दे देगा। जिन छह स्थानों का विवाद सुलझा है उनमें 36 गांव हैं जिसके लिए समझौता हुआ है। इसके लिए दोनों राज्यों ने पिछले साल अगस्त में इस जटिल सीमा मुद्दे पर तीन-तीन समितियां बनाई थीं और चरणबद्ध तरीके से विवाद को सुलझाने का संकल्प लिया था।

दोनों राज्यों के बीच विवाद का मुख्य बिंदु असम के कामरूप जिले की सीमा से लगे पश्चिम गारो हिल्स में लिंगपोह जिला है। अंग्रेजी शासन काल के दौरान यह इलाका कामरूप जिले का हिस्सा था, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यह हिस्सा गारो हिल्स और मेघालय के अंतर्गत आ गया। असम इसे मिकिर पहाडिय़ों का हिस्सा मानता है। मेघालय ने मिकिर हिल्स के ब्लाक-1 और ब्लाक-2 पर ऐतराज जताया। कार्बी आंगलोंग क्षेत्र असम का हिस्सा है। मेघालय का कहना था कि यह क्षेत्र तत्कालीन यूनाइटेड खासी और जयंतिया हिल्स जिलों के हिस्से थे। विदित हो कि मेघालय को वर्ष 1972 में असम प्रांत से अलग करके नया राज्य बनाया गया था, परंतु मेघालय ने असम पुनर्गठन अधिनियम 1971 को चुनौती दी थी। इसी कानून की वजह से दोनों राज्यों के बीच विवाद हुआ था।

इस सीमा विवाद के कारण असम व अन्य राज्यों के बीच पूर्व में कई हिंसक घटनाएं भी हो चुकी हैं। 14 मई 2010 को असम के कामरूप की सीमा से सटे पश्चिमी खासी हिल्स के लिंगपोह में असम पुलिस के जवानों की गोलीबारी में खासी समुदाय के चार ग्रामीण मारे गए और 12 लोग घायल हो गए थे। असम व मिजोरम राज्य के सीमा विवाद के चलते 26 जुलाई 2021 को बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। यह घटना असम के कछार जिले की सीमा पर हुई। इस गोलीबारी में असम पुलिस के छह जवानों की मौत हो गई तथा एसपी सहित लगभग 50 पुलिस कर्मी घायल हो गए थे। इस हिंसा में दोनों राज्यों के तकरीबन 100 लोग घायल हुए थे।

आंतरिक सुरक्षा की मजबूती : वर्तमान में हमारा देश बाहरी सुरक्षा चुनौतियों से लड़ रहा है। ऐसे में यदि उसे आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से जूझना पड़ा तो यह एक नई समस्या होगी। इसलिए देश की ऐसी समस्याओं का स्थायी समाधान होना देश की एकता व अखंडता को मजबूती प्रदान करेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि उचित तालमेल बिठाकर अन्य समस्याओं का हल निकाल लिया जाएगा। मेघालय के अलावा मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड के साथ भी सीमा विवाद खत्म करने के लिए बातचीत चल रही है। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ 122 जगहों पर विवाद को सुलझाने के लिए एक विशेष रोड मैप पर चर्चा की जा चुकी है। यदि सभी विवादों का समाधान हो जाए तो पूर्वोत्तर के राज्य देश की तरक्की के इंजन बन सकते हैं।

उत्तर पूर्व के राज्यों में अफ्स्पा का निरंतर घटता दायरा। भारत सरकार ने पूर्वोत्तर के तीन और राज्यों असम, मणिपुर व नगालैंड के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून अफ्स्पा दायरे को घटाने का फैसला लिया है। उल्लेखनीय है कि इन इलाकों से (अफस्पा) हटाए जाने की मांग काफी दिनों से चल रही थी। इस हिसाब से सरकार ने सही दिशा में यह कदम उठाया है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। सरकार के इस फैसले के बाद अब यह कानून केवल 31 जिलों में पूरी तरह तथा 12 जिलों में आंशिक रूप से प्रभावी रह गया है। इन जिलों को एक अप्रैल से छह महीने के लिए अशांत घोषित किया गया है। असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड में कुल 90 जिले हैं। गौरतलब है कि अफ्स्पा के तहत किसी भी क्षेत्र में होने वाले उपद्रव को शांत करने के लिए सैन्य बलों को विशेष अधिकार हासिल होते हैं और उनके द्वारा की गई कार्रवाई कानूनी जवाबदेही से मुक्त होती है। इसीलिए अफ्स्पा को केवल अशांत क्षेत्रों में लागू किया जाता है।

इससे पहले वर्ष 2015 में त्रिपुरा और 2018 में मेघालय से अफ्स्पा को पूरी तरह से हटा लिया गया था, जबकि मिजोरम से पिछली सदी के नौवें दशक में ही इसे पूरी तरह से हटा लिया गया था। देश के कुछ बु़िद्धजीवी और नागरिक समाज के लोग इस कानून की आलोचना करते रहे हैं। मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला अफ्स्पा को हटाने के लिए 16 वर्षों से आंदोलनरत हैं। इरोम शर्मिला ने केंद्र सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि विद्रोह से लड़ाई के नाम पर करोड़ों रुपये बर्बाद किए गए। यदि इस रकम का इस्तेमाल पूर्वोत्तर के विकास पर होता तो आज पूर्वोत्तर की तस्वीर अलग होती। दरअसल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना रहा है कि इस कानून से नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुठाराघात होता है। वहीं दूसरी तरफ यह भी सच है कि उत्तर पूर्व के राज्य अधिकांशत: उग्रवाद एवं अलगाववादी हिंसा से प्रभावित रहे हैं। इसीलिए इन इलाकों में अफ्स्पा को विस्तार मिलता रहा है। यहां यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हिंसा से पीडि़त उत्तर पूर्व का शेष भारत के साथ एकीकरण बनाए रखने में अफ्स्पा की ही प्रमुख भूमिका भी रही है। दरअसल इस कानून के अंतर्गत सुरक्षाबलों को बिना वारंट किसी भी नागरिक को गिरफ्तार करने का अधिकार है और यदि किसी संदिग्ध व्यक्ति की सुरक्षा बलों की गोलीबारी से मौत हो जाए तो यह कानून उन्हें अभियोजन से सुरक्षा भी प्रदान करता है।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पूर्वोत्तर के राज्यों में अफ्स्पा के तहत घोषित अशांत क्षेत्रों में कटौती की घोषणा की है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी की गई दो अधिसूचनाओं के मुताबिक नगालैंड राज्य के दीमापुर, चूमोकेदिमा, मोन, किफिरे, नोकलाक, फेक, पेरेन और जुंबोटो जिलों को एक अप्रैल से छह महीने के लिए अशंात घोषित कर दिया है। इसके अलावा कोहिमा, मोकोकचुंग, लोंगलेंग और वोखा जिले के कुछ हिस्सों को अशांत घोषित किया गया है। असम प्रांत के अधिसूचना के मुताबिक वहां के 23 जिलों को पूरी तरह से और एक उप-संभाग से आंशिक रूप से अफ्स्पा को हटा लिया गया है। वहीं तिनसुकिया, डिब्रूगढ़, चराईदेव, शिवसागर, जोरहाट, गोलाघाट, कार्बी आंगलोंग, पश्चिमी कार्बी आंगलोंग, दिमा हसाओ और कछार जिले के लखीमपुर उप-संभाग में अफ्स्पा पहले की तरह लागू रहेगा। मणिपुर राज्य में पूर्वी इंफाल जिले के चार थाना क्षेत्रों, पश्चिमी इंफाल जिले के सात पुलिस थाना क्षेत्रों एवं जिरीबाम, काकचिंग, धुवल और विष्णुपुर जिले के एक-एक पुलिस थाना क्षेत्र अशांत नहीं रहेंगे। जबकि अरुणाचल प्रदेश के कुल 23 जिलों में से तिरप, चांगलांग और लोगिंग तथा नामसाई में नामसाई एवं महादेवूर थाना क्षेत्रों को छह महीने के लिए अशांत घोषित किया है।

अफ्स्पा हटाए जाने का फैसला पूरी तरह से सुरक्षा आकलन पर आधारित होता है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पूर्वोत्तर में वर्ष 2014 की तुलना में वर्ष 2021 में हुई उग्रवादी घटनाओं में 74 प्रतिशत की कमी आई है। इसी तरह इस अवधि में सुरक्षाकर्मियों और आम लोगों की मौत की घटनाएं भी क्रमश: 60 और 40 प्रतिशत कम हुई हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में उग्रवाद से संबंधित घटनाएं वर्ष 2014 में 824, वर्ष 2015 में 574, वर्ष 2016 में 484, वर्ष 2017 में 308, वर्ष 2018 में 252 और वर्ष 2019 में 223 घटनाएं हुईं। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब अफस्पा के हटाए जाने का निर्णय पूर्वोत्तर के समग्र विकास में सहायक सिद्ध होगा।

( पूर्व प्राध्यापक, सैन्य विज्ञान विषय )