प्रणय कुमार। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के लिए लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी को कड़ी फटकार लगाई। न्यायालय ने राहुल गांधी से कहा कि वे उन स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध गैर-जिम्मेदाराना बयान न दें, जिन्होंने देश को आजादी दिलाई। यदि वे भविष्य में ऐसा कोई वक्तव्य देंगे तो न्यायालय स्वतः संज्ञान लेते हुए उनके विरुद्ध कार्रवाई करेगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने सत्य से उनका साक्षात्कार कराते हुए कहा कि महात्मा गांधी भी वायसराय को लिखे पत्र में "आपका वफादार सेवक" लिखते थे तो क्या इस आधार पर उन्हें अंग्रेजों का सेवक कहा जा सकता है या स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को कम करके आंका जा सकता है? जब उन्हें भारत के इतिहास-भूगोल के बारे में कुछ भी नहीं पता तो उन्हें ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।

उसने उन्हें यह भी याद दिलाया कि स्वयं उनकी दादी इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए सावरकर की प्रशंसा में पत्र लिखे थे। यद्यपि राहुल गांधी इस सत्य से अपरिचित हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। लगता है वामपंथी प्रभाव में वह अपनी दादी एवं कांग्रेस की रीति-नीति-परंपरा की उपेक्षा एवं अवमानना कर रहे हैं। कदाचित इसीलिए उन्होंने "भारत जोड़ो यात्रा" के दौरान महाराष्ट्र में वीर सावरकर पर अपमानजनक टिप्पणी की थी।

स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने के कारण वीर सावरकर को आजीवन कारावास की असहनीय यातनाएं झेलनी पड़ी थीं। अंडमान के सेलुलर जेल में कालापानी की सजा भोगते हुए उन्हें हवा-पानी, रोशनी जैसी प्रकृति प्रदत्त बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित रहना पड़ा था। कारावास से रिहाई के बाद भी उन्हें अंगेजों द्वारा लादे गए तमाम शर्त्तों एवं कठोर पाबंदियों के साथ रत्नागिरि जिले में नजरबंद रहना पड़ा। यह अकारण नहीं है कि स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने वाले तत्कालीन बड़े नेताओं में उनका बड़ा सम्मान था।

गांधी जी और आंबेडकर उनके अस्पृश्यता उन्मूलन एवं अछूतोद्धार की नीतियों से प्रभावित थे। मदनलाल धींगरा, शचींद्रनाथ सान्याल, रौशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी जैसे अनेक देशभक्तों ने भी उनके विचारों से किसी न किसी स्तर पर प्रेरणा ग्रहण की। अपनी तार्किकता, दूरदर्शिता एवं लेखकीय सक्रियता के कारण भी सावरकर देशवासियों को प्रेरित करते हैं। इसी कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर के निधन के पश्चात 26 फरवरी, 1966 को अपने शोक-संदेश में कहा था- "विनायक दामोदर सावरकर समकालीन भारत के महान नेता थे, जिनका नाम साहस एवं देशभक्ति की प्रेरणा देता है। वह महान क्रांतिकारी के सांचे में ढले ऐसे व्यक्तित्व थे, जिनसे अनगिनत लोगों ने प्रेरणा ली।"

उन्होंने 20 मई, 1980 को "सावरकर राष्ट्रीय स्मारक" के सचिव पंडित बाखले को लिखे पत्र में कहा था कि "वीर सावरकर का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध मजबूत प्रतिरोध हमारे स्वतंत्रता-आंदोलन के लिए बहुत अहम है। मैं आपको देश के विलक्षण सपूत के शताब्दी-समारोह के आयोजन के लिए बधाई देती हूं।" उन्होंने सावरकर की स्मृति एवं सम्मान में 1970 में डाक टिकट भी जारी किया, अपने निजी खाते से सावरकर ट्रस्ट को 11 हजार रुपये दान दिए तथा 1983 में सूचना प्रसारण मंत्रालय के फिल्म डिवीजन आफ इंडिया को सावरकर के जीवन पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने का आदेश दिया।

वस्तुतः राहुल गांधी एवं आज के अन्य नेताओं को स्वतंत्रता सेनानियों और अन्य महापुरुषों पर बोलते हुए यह सोचना और समझना होगा कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई किसी एक व्यक्ति ने नहीं, बल्कि सबने एकजुट होकर लड़ी थी। जाति, भाषा, प्रांत, पंथ, संप्रदाय जैसे विभेदकारी तत्वों से परे सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने मिल-जुलकर एक ही लक्ष्य के लिए काम किया तथा देश की स्वतंत्रता में अपने-अपने ढंग से योगदान दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय एवं जिला न्यायालय द्वारा मानहानि से जुड़े अलग-अलग मामलों में भी दिए गए फैसले हमें बेतुके बयानों एवं बेबुनियादी आरोपों के प्रति सजग करते हैं।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी की पत्नी एवं पूर्व राजनयिक लक्ष्मी पुरी पर मिथ्या आरोप लगाने से संबंधित मानहानि के एक मामले में तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य साकेत गोखले का वेतन संबद्ध (अटैच) करने का निर्देश दिया। जुर्माने की कुल राशि 50 लाख रुपये जमा होने तक गोखले का वेतन अटैच रहेगा। मानहानि से जुड़ा दूसरा प्रकरण "नर्मदा बचाओ आंदोलन" की नेता मेधा पाटकर द्वारा 2000 में गुजरात स्थित एनजीओ- "नेशनल काउंसिल फार सिविल लिबर्टीज" के तत्कालीन अध्यक्ष एवं दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना को अपशब्द बोलने एवं भ्रष्टाचारी बताए जाने का है। मानहानि के इस मामले में अदालत ने मेधा पाटकर को दोषी पाया।

मतभेद एवं असहमति अपनी जगह हैं, पर अच्छा होगा यदि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग बेतुके बयानों और अनर्गल आरोपों से बचें। सार्वजनिक जीवन में शिष्ट आचरण एवं भाषा की मर्यादा की अपनी महत्ता होती है। सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों को यह भी समझना होगा कि किसी स्वतंत्रता सेनानी, महापुरुष या फिर अन्य किसी व्यक्ति की रीति-नीति से असहमत होने का यह अर्थ नहीं होता कि आलोचना के बहाने उसका अपमान किया जाए और उसे नीचा दिखाया जाए। आलोचना एवं अपमान करने में अंतर होता है और यह अंतर किसी को भूलना नहीं चाहिए।

(लेखक शिक्षाविद् हैं)