[डॉ. श्रीरंग गोडबोले] किसी दीनदार मुस्लिम के लिए सिद्धांत विवेक पर हावी होता है। इस्लामी सिद्धांत के निम्न तीन स्रोत हैं- कुरान, हदीस (पैगंबर मुहम्मद के कथनी एवं व्यवहार का आधिकारिक विवरण) तथा सीरत (पैगंबर मुहम्मद की जीवनी) या सुन्नत (पैगंबर मुहम्मद द्वारा दी गई पद्धति या परंपरा)। व्यक्तिगत या सामाजिक स्तर पर, यह केवल मजहबी-किताबी स्वीकृति है, जो मुस्लिमों के किसी विचार या कार्य को नैतिक या कानूनी ठहराता है।

अच्छाई, न्यायपरायणता, बुद्धिमानी, शील, पाप-पुण्य के संबंध में मुस्लिमों की धारणाएँ इस्लाम के मजहबी, किताबी बारीकी से निर्धारित करते हैं। यह आवश्यक नहीं की इनके इस्लामी मानक वैश्विक मानकों से मेल खाते हों। इनके विपरीत होने की भी संभावना होती है। यदि भारतीय मुस्लिम 6 वर्षों तक खिलाफत आंदोलन से प्रभावित थे, तो माना जा सकता है कि इसका मजहबी-किताबी आधार था। मजहबी-किताबी आधार की वैधता कालातीत होने के कारण इस आंदोलन का इतिहास में पूर्ववर्ती आधार होने का तथा भविष्य में इसे दोहराये जाने का अनुमान लगाया जा सकता है।

क्या है 'पैन -इस्लाम', पहली बार कब हुआ प्रयोग

आगे बढ़ने से पहले, शब्द ‘पैन-इस्लाम’ (अखिल-इस्लामवाद) के बारे में जानना आवश्यक है। ‘पैन-इस्लाम’ शब्द का पहला प्रयोग फ्रांज वॉन वर्नर (उर्फ मुराद एफेंदी) द्वारा तुर्किसो स्केजेन ('तुर्की रेखा-चित्र' का जर्मन अनुवाद, 1877) पुस्तक में और बाद में 1881 में फ्रांसीसी पत्रकार गेब्रियल शार्म्स द्वारा किया गया। इसके निकटतम इस्लामी पर्यायवाची शब्द, इतिहाद-ए-इस्लाम या इत्तिहाद-ए-दीन और उहुव वेट-ए-दीन लंबे समय से भारत, मध्य एशिया और इंडोनेशिया के ओटोमन और मुस्लिम शासकों के बीच पत्राचार में इस्तेमाल किए जा रहे थे। पैन-इस्लाम एक अपेक्षाकृत देर से निर्मित शब्द है। इसकी जड़ें कुरान की निम्नलिखित आयत में हैं, "यह है तुम्हारा (पैगंबर और उनकी उम्मतों का) तरीका कि वह एक ही तरीका है, और (हासिल उस तरीके का यह है) कि मैं तुम्हारा रब हूँ, सो तुम मुझसे डरते रहो।"

आरंभिक इस्लामी इतिहास में खिलाफत

उत्तराधिकारी के अर्थ में खलीफा का उल्लेख कुरान की 2.30, 4.59, 6.165, 35.39 और 38.26 आयतों में है। पहले मुस्लिम शासक कोई और नहीं बल्कि पैगंबर मुहम्मद (570-632) स्वयं थे। उन्होंने 610 में अपने मिशन की शुरुआत की और सन 622 में मदीना पर शासन शुरू कर दिया। इस प्रकार अगले 10 साल तक वे रसूल (पैगंबर), मुबल्लिग (दीन प्रसारक), इमाम (राज्य प्रमुख), मुफ्ती (न्यायविद) और काज़ी(न्यायाधीश) भी रहे। न तो कुरान और न ही पैगंबर मुहम्मद ने अपने खलीफा को नियुक्त किया! इस्लाम में, पैगंबर मुहम्मद अंतिम पैगम्बर हैं (कुरान 33:40) और उनका यह स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता। हांलाकि, शासक के उनके स्थान को अन्य मुस्लिम ले सकता है। इस बारे में कुरान का आदेश यूं है, “ए ईमान वालो! तुम अल्लाह तआला का कहना मानो और रसूल का कहना मानो और तुममे जो लोग हुकूमत वाले हैं उनका भी...”। हदीस में एक शासक के प्रति निष्ठा के बारे में कई आज्ञाएँ हैं, उदाहरण के लिए, "जो कोई भी पृथ्वी पर अल्लाह के एक शासक को बेइज्जत करता है, अल्लाह उसे बेइज्जत करेगा" (तिर्मिज़ी, मिश्कात अल मस्बीह, खंड 2, इस्लामिक बुक सर्विस, दिल्ली, पृ. 560)। पहले खलीफा अबू बक्र की उपाधि, खलीफातु रसूल अल-अल्लाह (रसूल अल्लाह का उत्तराधिकारी) थी। पहले चार खुलाफा, अबू बक्र (632–4), उमर (634-44), उथमन (उस्मान, ओटोमन 644-56) और अली (656-61) को सुन्नी मुस्लिमों द्वारा अरबी लहजे में 'खलीफा उर-राशिदुन' (सही सलामत निर्देशित खुलाफा) कहा गया है।

इस्लाम का स्वर्ण युग

ये सभी चार खुलाफा कुरेश कबीले से थे, जिसमें कि पैगंबर मुहम्मद का हाशिमी वंश भी शामिल था। उनके शासन-काल में इस्लामी सेनाओं ने सासानी साम्राज्य को परास्त किया, बीजान्टिन साम्राज्य को उजाड़ दिया, दक्षिण और मध्य एशिया में विस्तार किया तथा उत्तर अफ्रीका से इबेरिआ के प्रायद्वीप में प्रवेश किया। पहले चार खुलाफा (सन 632- 661) की अवधि को इस्लाम का स्वर्ण युग माना जाता है। विडंबना यह है कि स्वर्ण युग के चार खुलाफा में से तीन की हत्या कर दी गई। अली के बाद, खिलाफत उमैया वंश के हाथों में चली गई, और उथमन के कबीले के ये लोग 90 वर्ष तक शासन करते रहे। सन 750 में, अब्बासी राजवंश ने उमैया को उखाड़ फेंका और बगदाद, इराक में अपनी खिलाफत को स्थापित किया। हालांकि अब्बासियों को इस्लामी जगत में कई अन्य राजवंशों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए मजबूर किया गया था, लेकिन उन्होंने 1517 में मिस्र पर ओटोमन तुर्की की जीत तक, खिलाफत पर अधिकार का दावा करना जारी रखा। ओटोमन खिलाफत का दावा 1517 से 1924 तक चला। ओटोमन साम्राज्य सिर्फ एक और मुस्लिम साम्राज्य या राज्य नहीं था। सन 1453 में जब से सुल्तान महमद ने कांस्टेंटिनोपल (क़ुस्तुन्तुनिया, आधुनिक इस्ताम्बुल) को जीता, ओटोमन तुर्की साम्राज्य ने कुछ पांच शताब्दियों तक, ईसाई यूरोपीयों के विरोध में इस्लाम का झंडा लहराया।

इस्लामी इतिहास में खिलाफत का मिथक

यद्यपि दीनदार मुस्लिम, मजहबी किताबों में निहित उम्माह की अवधारणा से बंधा हुआ है, लेकिन कठोर ऐतिहासिक वास्तविकता यह है कि मुस्लिमों ने एक दूसरे के गले काटे हैं या फिर एक दूसरे पर पाखंडी होने का आरोप लगाया है। वे अविश्वासियों से भिड़ने पर ही उम्माह के रूप में व्यवहार करने लगते हैं। पैगंबर की मृत्यु के मात्र दो दशक बाद ही, शियाओं ने अली से पहले किसी खलीफा के होने से इंकार किया। खवारिजों ने तो खिलाफत की आवश्यकता पर ही प्रश्न चिन्ह उठाया। सुन्नियों के बीच भी, इस बात पर बहस जारी है कि खलीफा को कुरैश कुल से ही होना चाहिए या नहीं।

नहीं रही सर्व-सम्मत खिलाफत

सन 750 के बाद वैश्विक स्तर पर सर्व-सम्मत खिलाफत नहीं रही। इस्लामी साम्राज्य के केंद्र और सीमान्त में कई स्वतंत्र शासक स्व-घोषित 'अमीर-उल-मोमिनीन' (विश्वासियों का अगुआ) और 'खलीफा' बन गए। एक समय था, जब इस्लामी जगत में एक साथ तीन-तीन खुलाफा थें, जो विश्वासियों की निष्ठा होने का दावा करते थे। 'केंद्रीय' खिलाफत की अक्षमता के बावजूद उसकी महत्ता का मिथक उस पर पदानुक्रम का आवरण ओढ़कर तथा अल-मावर्दी (974-1058) और अल-गजाली (1058-1111) जैसे न्यायविदों की अतिप्रशंसा से चलाया गया। सन 1258 में मंगोलों के हाथों बगदादी खिलाफत की समाप्ति के बाद भी यह मिथक बचा रहा। सुन्नी मुस्लिम जगत का बड़ा हिस्सा पहले काहिरा के अब्बासी खुलाफा को और उसके बाद कांस्टेंटिनोपल के ओटोमन तुर्की सुल्तानों को अपनी निष्ठा जताता रहा।

भारत में खलीफा-सुल्तान की सांठगांठ

सन 711 में सिंध पर अरबों की विजय के प्रारंभिक दिनों से ही भारत केंद्रीय खिलाफत के इस मिथक से कुछ मात्रा में परिचित हुआ। लगभग पूरे मुगल-पूर्व काल में सुल्तानों के विधिक अधिकार का स्रोत और स्वीकृति पहले बगदाद के अब्बासी खुलाफा पर और बाद में काहिरा-स्थित उनके निष्क्रिय उत्तराधिकारियों पर निर्भर मानी जाती थी। गजना के महमूद (998-1030), शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश (1211-1236), मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351) जैसे सुल्तानों ने विशेष रूप से खलीफा का मानपत्र पाने का सफल प्रयत्न किया। यहां तक कि कुछ प्रांतीय सुन्नी राजवंशों ने, जिन्होंने दिल्ली से स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी, अब्बासी खुलाफा से मान्यता की प्रार्थना की, जिनके नाम इनके सिक्कों पर भी दिखाई देते हैं। दिल्ली की सल्तनत से स्वतंत्रता प्राप्त कुछ प्रांतीय सुन्नी राजघराने अब्बासी खुलाफा के नाम से राज्य करते थे। इन खुलाफा के नाम उनके सिक्कों पर अंकित हुआ करते थे। यह प्रथा 1526 में मुगलों के आगमन तक जारी रही, जिनका शासन, लगभग उसी समय प्रारंभ हुआ जब खिलाफत का काहिरा से कांस्टेंटिनोपल 'स्थानांतरण' हो रहा था। यद्यपि दोनों साम्राज्यों के बीच राजनयिक आदान-प्रदान 18वीं शताब्दी के अंत तक जारी रहा, परन्तु मुगलों ने अन्य स्वतंत्र शासकों की तरह (जैसे शिया फारस) कभी भी ओटोमन तुर्कों के 'वैश्विक खिलाफत’ के दावे को स्वीकार नहीं किया। जैसे ही मुगल शासन लड़खड़ाने लगा, स्थिति में धीरे-धीरे बदलाव आया। ओटोमन तुर्कों के प्रति भारत के मुस्लिमों का लगाव 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू होने के थोड़े प्रमाण हैं। दिल्ली के प्रसिद्ध मुहद्दिस (हदीस के ज्ञाता) शाह वली उल्लाह (1703-62) ने अपने ग्रन्थ ‘तफहिमात-इ-इलाहियाह’ (शाब्दिक अर्थ - अल्लाह का आदेश) में तुर्की सुल्तान को दो बार अमीर-उल-मोमिनीन के रूप में संबोधित किया। सन 1789 में ओटोमन खलीफा अब्दुल हमीद प्रथम से शाही अलंकरण प्राप्त करने के टीपू सुल्तान के प्रयत्न में यही बात उजागर होती है।

भारत के उलेमा का पुराना तुर्की लगाव

ओटोमन खिलाफत के संबंध में भारत के उलेमा की भूमिका 1840 के दशक में निश्चित हुई। सन 1841 में मक्का में स्थानांतरण के बाद वलीउल्लाह के पोते शाह मुहम्मद इसहाक (1778-1846) ने सर्वप्रथम ओटोमन राजनीतिक नीतियों का समर्थन किया। तब से वलीउल्लाह को मानने वाले उलेमा का रुझान वैश्विक खिलाफत पर ओटोमन दावेदारी के सक्रिय समर्थन का रहा। सन 1850 के दशक के प्रारंभ से ही स्वयं ओटोमन तुर्क अपने भारत-स्थित दूतों के द्वारा खिलाफत पर तुर्की सुल्तान की दावेदारी को बढ़ावा दे रहे थे। भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी (1812-1860) ने सन 1854 में ही भारत के मुस्लिमों में 'अमीरुल मोमिनीन' के प्रति सहानुभूति पाई इसमें कोई आश्चर्य नहीं। बल्कि एक कांसुलर रिपोर्ट में यह भावना 1835 या 1836 से होने का संकेत मिलता है।

तुर्की के धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के कारण से सन 1854 में जब क्रीमिया का युद्ध छिड़ा, तब भारत के, विशेषकर पश्चिमी सीमा-क्षेत्र के सभी मुस्लिमों में बड़ी रूचि और उत्तेजना पाई गई। इस्लामी शासन के बचे-खुचे अवशेष जैसे ही भारत से 1858 में लुप्त हुए, कांस्टेंटिनोपल से संबंध और घनिष्ट हुए। ब्रिटिशों के प्रतिशोध से बचने के लिए भारत के उलेमा, जो एक केंद्रबिंदु की खोज में थे, ओटोमन खलीफा की ओर देखने लगे। रहमतुल्लाह कैरानावी (1818-91), हाजी इमदादुल्लाह (1817-99), अब्दुल गनी (मृत्यु 1878), मुहम्मद याकूब (जन्म 1832) और खैरुद्दीन (1831-1908), मक्का चले गए और कुछ ने कांस्टेंटिनोपल का दौरा भी किया। करामत अली जौनपुरी जैसे ब्रिटिश-निष्ठा के पक्षधर उलेमा भी 'ब्रिटिश कौम और अपने दीन के निज़ामे हुक्मरानी (मजहबी प्रमुख) के बीच मित्रता' के आधार पर ही अपनी भूमिका रखते थे (कुरैशी, उक्त, पृ.8, 9)|

भारतीय मुस्लिम मानस में खिलाफत

तुर्की सुल्तान के प्रति लगाव केवल भारत के उलेमा तक सीमित नहीं था। सन 1850 के दशक से यह लगाव मुस्लिम प्रेस और सामान्य मुस्लिमों के मानस में दीखता है। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों के समय के नवजात मुस्लिम प्रेस के अध्ययन से पता चलता है कि सन 1875 के रूस-तुर्की युद्ध से ही मुस्लिमों में अखिल-इस्लामी भावना बढ़ने लगी। अगले चार दशकों में भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति उनकी भूमिका में यह भावना मौलिक होकर दृढ़ हो गई। इन चार दशकों में तुर्की-यूनानी युद्ध (1896), त्रिपोली पर इतालवी छापा (1911) और बाल्कन युद्ध (1912-14) जैसी घटनाएं हुईं। इन दिनों भारतीय मुस्लिम खुतबे में इस्लाम के खलीफा की लंबी उम्र, समृद्धि और जीत के लिए प्रार्थना कर रहे थे और 1870 से प्रेस तथा सार्वजनिक मंचों से इस हेतु दलीलें प्रस्तुत कर रहे थे। सर सैय्यद अहमद (1817-98) जैसे मध्यम-वर्ग के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने केंद्रीय तुर्की खिलाफत के मिथक को लोकप्रिय किया।

तुर्की से लगाव का स्वरूप

1830 के दशक से भारतीय मुस्लिमों के तुर्की से लगाव को समझने के लिए तीन विशेषताओं को रेखांकित किया जाना चाहिए। पहला, अखिल- इस्लामवाद के तत्त्व से लगाव भारत के मुस्लिमों तक सीमित नहीं था। 17वीं शताब्दी के प्रारंभ से मध्य एशिया, इंडोनेशिया और मलेशिया में अखिल इस्लामवादी आंदोलनों में तुर्की से जुड़ाव स्पष्ट था। दूसरा, तुर्की खिलाफत का मिथक, सुल्तान अब्दुल-अजीज (1861-76) और उसके उत्तराधिकारी अब्दुल-हमीद द्वितीय (1876-1909) जैसे तुर्की के सुल्तानों द्वारा, तुर्की की आंतरिक उथल-पुथल और बाहरी यूरोपीय अतिक्रमण के विरुद्ध उनकी स्थिति को मजबूत करने के लिए प्रचारित किया गया था। साथ ही साथ अरबों में राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को प्रबल होने से रोकना भी इसका उद्देश्य था। इसमें उन्हें यूरोपीय शक्तियों द्वारा सहायता भी मिली, जिन्होंने ऑस्ट्रिया-हंगरी (1908), इटली (1912), यूनान और बुल्गारिया (1913) के साथ की गई संधियों द्वारा सुल्तान के दावों को स्वीकार किया। तीसरा, अन्य मुस्लिम देशों की भांति, ओटोमन खिलाफत को मुस्लिमों को एकत्र करने में सहायक समझकर शियाओं ने सुन्नियों का साथ दिया। इस दिशा में बद्रुद्दीन तैय्यबजी (1844-1906) और मुहम्मद अली रोगे जैसे बोहरा नेताओं ने उनके अंजुमन- इ- इस्लाम (बॉम्बे) संगठन के माध्यम से अगुवाई की। हैदराबाद (दक्खन) के चिराग अली (1844-1895) और उनके बाद अमीर अली (1849-1928), आगा खान (1877-1957), मिर्जा हसन इस्पहानी, मुहम्मद अली जिन्ना (1876-1948) और अन्य शिया नेताओं ने इसी दिशा को लेकर आगे काम किया।

भारत में खिलाफत आंदोलन

सन 1919 में खिलाफत आंदोलन का भारत में प्रारंभ हुआ। वास्तविकता यह है कि भारत में इस्लामी शासन के शुरुआती दिनों से उसे मजहबी-किताबी स्वीकृति एवं ऐतिहासिक पूर्वाधार था। केंद्रीय खिलाफत के मिथक को सुल्तानों और बादशाहों, उलेमा और बुद्धिजीवियों तथा सामान्य मुस्लिम जनता ने जीवित और पुरस्कृत किया। अखिल इस्लामवाद की यह भावना भारत तक ही नहीं, बल्कि अधिकांश मुस्लिम जगत में प्रचलित थी। 3 मार्च 1924 को तुर्की गणराज्य की ग्रैंड असेंबली ने खिलाफत को, जिसे कमाल अतातुर्क 'सभ्य और सुसंस्कृत जगत में मजाक का पात्र’ मानते थे, समाप्त कर दिया। खिलाफत की बहाली हेतु चले एक लंबे संघर्ष में भारत का खिलाफत आंदोलन मात्र एक कड़ी था। खिलाफत पुनः स्थापन की लड़ाई अब भी समाप्त नहीं हुई है।

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं।)