यूपी विधानसभा चुनावः कांग्रेसियों को हजम नहीं हो रहा 'यूपी को ये साथ पसंद है'
कांग्रेस के मंचों पर भले ही 'यूपी को साथ पसंद है' नारा लिखा दिखाई देता हो परंतु निचले स्तर पर यह हजम नहीं हो रहा है। तीन चरण के बाद भी कांग्रेस का असंतोष कम नहीं हो रहा।
लखनऊ [अवनीश त्यागी] । उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस ने गठबंधन तो किया है, लेकिन उसका सियासी असमंजस अभी बरकरार है। गठबंधन के साइड इफेक्ट सामने आने लगे हैं। कई क्षेत्रों में उम्मीदवारों ने खुली बगावत कर रखी है, लेकिन अनुशासन की तलवार चलाने से पार्टी हिचक रही है। जाहिर है कि चुनाव के बाद पार्टी को बड़ी परेशानियों से रूबरू होना पड़ेगा।
कांग्रेस के मंचों पर भले ही 'यूपी को साथ पसंद है' नारा लिखा दिखाई देता हो परंतु निचले स्तर पर कांग्रेसियों को हजम नहीं हो रहा है। तीन चरण का चुनाव बीतने के बाद भी कांग्रेस आंतरिक असंतोष कम नहीं कर पा रही। वहीं पार्टी हाईकमान भी बगावत बढऩे के डर से बागियों पर एक्शन लेने से कतरा रहा है। इसी कारण गठबंधन की बंदिशें लांघते हुए कांग्रेस प्रत्याशियों की संख्या 105 से बढ़कर 111 हो गयी है। न अधिकतर बागी मानने को तैयार हुए और न पार्टी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई कर पा रही। एक दर्जन से अधिक सीटों पर गठबंधन में दरार साफ है, वहीं दो दर्जन से ज्यादा क्षेत्रों में स्थानीय नेताओं द्वारा गठबंधन धर्म नहीं निभाने की शिकायतें लंबित हैं। अनुशासन तोडऩे वालों पर कड़ी कार्रवाई न कर नरमी बरते जाने से असंतुष्टों की गतिविधियां तेज होती जा रही हैं
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यही वजह है कि लखनऊ मध्य सीट पर मारूफ खान बागी रहकर चुनाव में बने हुए हैं तो बहराइच के पयागपुर क्षेत्र में भगतराम मिश्रा नाम वापस लेने का निर्देश मिलने के बाद भी मैदान में डटे हैं। नेतृत्व की हिदायत नहीं मानने के कारण बछरावां समेत आधा दर्जन सीटों पर बागी कार्यकर्ता निर्दल अथवा अन्य छोटे दलों से प्रत्याशी बनकर चुनौती दे रहे हैं। गठबंधन से खफा एक पूर्व विधायक का कहना है कि संगठन में धधक रहा असंतोष चुनावी नतीजे आने के बाद बड़ा विस्फोट करेगा।
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कार्रवाई के बजाए लीपापोती
गठबंधन का धर्म न निभाने वालों पर कार्रवाई करने के बजाए लीपापोती की जा रही है। सूत्रों का कहना है कि शीर्ष नेताओं का दोहरा रवैया भी अनुशासनहीनता को बढ़ावा दे रहा है। अमेठी और रायबरेली में आपसी टकराव को 'फ्रेंडली फाइट का नाम दिया गया तो अन्य स्थानों पर कार्रवाई करने का नैतिक साहस नेतृत्व नहीं जुटा पा रहा है। रायबरेली में दो विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार करने पहुंचे प्रियंका गांधी व राहुल गांधी भी कार्यकर्ताओं को अनुशासन का संदेश नहीं दे सके। उन्होंने गठबंधन के उम्मीदवारों के समर्थन में प्रचार करने के बजाए केवल कांग्रेस की जनसभाओं को संबोधित किया। इसी तरह लखनऊ मध्य क्षेत्र में भी सहयोगी दल के उम्मीदवार के पक्ष में सभाएं करने के लिए कांग्रेस के शीर्ष नेता नहीं गए। प्रदेश कमेटी के एक पदाधिकारी को कहना है कि जिन सीटों पर विवाद अधिक रहा वहां कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार को कमजोर नहीं होने देने की रणनीति पर कार्य किया है।
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आयातित प्रत्याशी का विरोध
गठबंधन में कई सीटें ऐसी भी रही जहां पर कांग्रेस के निशान पर सपा नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा गया। मसलन बागपत क्षेत्र से लड़े कुलदीप के खिलाफ स्थानीय कमेटी खुला विरोध कर रही थी। लखनऊ पूर्वी क्षेत्र में भी कमोबेश ऐसे ही हालात थे। बुलंदशहर की शिकारपुर सीट पर हरियाणा के कांग्रेस नेता को उतारने का स्थानीय स्तर पर खुला विरोध भी नुकसानदेह साबित होगा।
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चुनाव बाद संगठन बदलेगा
गठबंधन के साइड इफेक्ट को देखते हुए हाईकमान ने चुनाव के बाद प्रदेश संगठन में बदलाव का मन बना लिया है। प्रदेश प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद भी इसका संकेत दे चुके हैं। सूत्रों का कहना है कि गठबंधन आगामी लोकसभा चुनाव तक चलाने के प्लान पर तब ही अमल संभव होगा जब संगठन को आमूलचूल बदला जाए। बता दें कि चुनाव से ऐन पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाए राजबब्बर भी गठबंधन का विरोध करते रहे हैं। उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी संभाली जरूर परंतु उन्हें प्रदेश कमेटी बदलने का अधिकार नहीं मिला। उनको पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा. निर्मल खत्री द्वारा बनायी गयी कमेटी से ही काम करना पड़ा। चुनाव बाद प्रदेश कमेटी ही नहीं अनुसांगिक संगठनों में भी बदलाव तय है।
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जवाब मिलने पर कार्रवाई होगी
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अनुशासन समिति संयोजक व पूर्व मंत्री रामकृष्ण द्विवेदी का कहना है कि बड़ी संख्या में शिकायतें मिल रही है जिन पर संबंधित नेताओं से जवाब मांगा गया है, जिसके आधार पर कार्रवाई की जाएगी। अनुशासनहीनता किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं होगी।
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