जागरण संपादकीय: प्राथमिकता बने पहलगाम का प्रतिकार, अभी पाकिस्तान को जवाब देने का वक्त
पहलगाम में हिंदू पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तान की साजिश का खुलासा हुआ है। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने हिंदुओं और मुसलमानों को दो अलग कौमें बताकर इस हमले की नींव रखी थी। कश्मीर में पहली बार हिंदुओं पर हुए इस हमले के बाद घाटी में शांति मार्च निकाले गए और बंद रहा। भारत को पाकिस्तान की इस हरकत का मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए।
शिवकांत शर्मा: पहलगाम में हिंदू पर्यटकों का संहार भारत में एक बार फिर हिंदू-मुस्लिम विभाजन कराने की पाकिस्तानी सेना की साजिश का हिस्सा है। इसका संकेत पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने 16 अप्रैल को एक भाषण में हिंदुओं और मुसलमानों को हर पहलू से दो अलग कौमें बताकर दिया था। यही बात उन्होंने पिछले शनिवार को पाकिस्तानी सैन्य अकादमी की परेड में दोहराई। हम सब जानते हैं कि पाकिस्तान की इमारत इसी विचार की नींव पर खड़ी की गई थी। यदि इस आतंकी हमले को पाकिस्तानी सेना की विभाजनकारी साजिश मान भी लिया जाए तो भी उसकी सबसे बड़ी नाकामी तो उसी जगह पर हो गई, जिसे उसने लांच पैड बनाया। कश्मीर की घाटी में पिछले 35 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ कि हिंदुओं पर जिहादी हमले की मस्जिदों से भर्त्सना हुई हो, शांति मार्च निकाले गए हों और घाटी में बंद रहा हो।
जनरल मुनीर का दो देशों वाला सिद्धांत कोई नया नहीं है। कश्मीर पर पाकिस्तानी दावे का प्रमुख आधार यही रहा है। अनुच्छेद 370 के हटने और विश्व जनमत तथा मुस्लिम जनमत को उसके खिलाफ लामबंद करने में पूरी तरह विफल हो जाने के बाद पाकिस्तान हताशा की स्थिति में है। इसलिए संभव यह भी है कि कश्मीर के मुद्दे को विश्वमंच पर उछालने के लिए जनरल मुनीर के दिमाग में जनरल मुशर्रफ वाला दुस्साहस रहा हो। मुशर्रफ ने राष्ट्रपति क्लिंटन की भारत यात्रा के समय छत्तीसिंहपुरा का आतंकी हमला कराया था। पहलगाम आतंकी हमले लिए भी ऐसा समय चुना गया, जब उपराष्ट्रपति जेडी वेंस भारत की यात्रा पर थे, लेकिन यहां भी जनरल मुनीर के मंसूबे पूरे नहीं हुए। राष्ट्रपति ट्रंप और उपराष्ट्रपति वेंस दोनों ने हमले को आतंकी बताते हुए उसकी कड़ी निंदा की और भारत को पूरा समर्थन देने का आश्वासन दिया।
गुलाम जम्मू-कश्मीर के जिहादी आतंकी संगठन प्रतिरोध मोर्चा या टीआरएफ ने पहले तो हमले की जिम्मेदारी ली, लेकिन बढ़ते दबाव के बाद वह मुकर गया। अब पाकिस्तान चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत को चरितार्थ करते हुए किसी बाहरी संस्था से इसकी तटस्थ जांच कराने में मदद करने की पेशकश कर रहा है। भारत को इस पेशकश के झांसे में आने की जरूरत नहीं है। पाकिस्तान यह मांग करके दुनिया को दिखाना चाहता है कि हमले में उसका कोई हाथ नहीं है।
भारत के लोग वास्तव में यह जानना चाहेंगे कि पर्यटकों के लिए जून में खोली जाने वाली दुर्गम बैसरन घाटी अप्रैल में किसकी अनुमति से खोली गई और घाटी की दुर्गमता को देखते हुए वहां पुलिस और सेना की सुरक्षा क्यों नहीं थी? एक बड़ा सवाल यह भी है कि दो हजार पर्यटकों को लेकर गए घुड़सवारों और माल बेचने वालों में से किसी ने भी अपने फोन से आतंकियों के वीडियो क्यों नहीं बनाए? इतना सुनियोजित हमला स्थानीय लोगों की मिलीभगत के बिना नहीं हो सकता था तो फिर खुफिया तंत्र को इसकी भनक क्यों नहीं लगी? यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ और किसकी चूक से हुआ, इसकी गहन जांच और दोषियों को सजा भी मिलनी चाहिए, लेकिन पहले पाकिस्तान की हरकत का प्रतिकार करने के बाद। हर काम का वक्त होता है। अभी पाकिस्तान को जवाब देने का वक्त है। ऐसा कहीं नहीं होता कि हमले का प्रतिकार करने से पहले लोग सेना और सरकार से इस्तीफा मांगने लगें। ऐसा न इजरायल में हमास के हमले के बाद हुआ और न अमेरिका में अलकायदा के हमलों के बाद। न ब्रिटेन में हुआ और न फ्रांस में। पूरा देश एकजुट होकर पहले प्रतिकार का समर्थन करता है। कार्रवाई पूरी हो जाने के बाद जांच होती है और जिम्मेदारियां तय होती हैं।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने विधानसभा के विशेष सत्र में आतंकी हमले की भर्त्सना करने हुए कहा, ‘हालांकि राज्य की सुरक्षा और पुलिस मेरे हाथों में नहीं है। फिर भी, मेजबान के तौर पर उन्हें सुरक्षित वापस भेजने की जिम्मेदारी मेरी थी। मैं वह नहीं निभा पाया। मेरे पास माफी के शब्द नहीं थे।’ उन्होंने कहा कि ऐसे मौके पर मैं पूर्ण राज्य की मांग भी नहीं दोहराना चाहता। कश्मीर से आतंक का साया हटाने की कुंजी उमर अब्दुल्ला के इस वाक्य में छिपी है, ‘बंदूक से आतंकवाद को नियंत्रित किया जा सकता है, खत्म नहीं।’ आतंकी हमले को एक सप्ताह बीत चुका है, लेकिन जिहादी आतंकी अभी तक हाथ नहीं आए हैं। किसी के माथे पर लिखा नहीं होता कि वह आतंकी है। जब तक कुछ भी लोगों में आतंकियों के लिए सहानुभूति है तब तक उन्हें खोजना आटे से नमक निकालने जैसा है। इसलिए सबसे पहले पंजाब की तरह कश्मीर से आतंकियों के लिए मौजूद सहानुभूति को समाप्त करने की जरूरत है, जो शिक्षा और विचारधारा को बदले बिना और जिहादी आतंकी को आतंकी माने बिना संभव नहीं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान सिंधु जलसंधि के स्थगन को अपनी आर्थिक दशा के परिप्रेक्ष्य में मानवीय मुद्दा बनाकर भारत को संयुक्त राष्ट्र के मंचों पर घेरने की कोशिश करेगा। उससे पहले भारत को हमले से मिल रही सहानुभूति का लाभ उठाते हुए वित्तीय कार्यबल एफएटीएफ के मंच पर आवाज उठाकर पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मिलने वाली आर्थिक मदद रुकवानी चाहिए। असली प्रतीक्षा ऐसे निर्णायक सैन्य प्रतिकार की है, जो उड़ी और पुलवामा की तुलना में और बड़े पैमाने पर हो। ऐसा मुंहतोड़ जवाब 2001 में श्रीनगर विधानसभा और दिल्ली के संसद भवन पर हुए हमलों या फिर 2008 के मुंबई हमले के बाद दिया होता तो पाकिस्तान पहलगाम जैसा हमला कराने की हिम्मत न करता। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर भारत को एक सीमित और सही अनुपात की सैन्य कार्रवाई के लिए अमेरिका, यूरोप, रूस और इजरायल का समर्थन मिल सकता है। पाकिस्तान संहारक अस्त्रों के प्रयोग का दुस्साहस न कर बैठे, यह अमेरिका और सऊदी अरब को मिलकर सुनिश्चित करना होगा। चीन इस समय अमेरिका से चल रहे व्यापार युद्ध में उलझा है और अपनी आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा है। इसलिए शायद प्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान की मदद के लिए आगे आने से बचेगा।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)














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