प्रशिक्षु पुलिस अधिकारियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने पुलिस की छवि बदलने की जो जरूरत जताई, उस पर इन अधिकारियों के साथ-साथ अन्य पुलिस अफसरों और कर्मियों को भी गौर करना होगा, क्योंकि पूरे पुलिस बल के सहयोग से यह अभीष्ट काम हो सकेगा। आज इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि इसकी सख्त जरूरत है कि भारतीय पुलिस अपनी नकारात्मक छवि से मुक्ति पाए। जब तक पुलिस इस छवि से मुक्त नहीं होती, तब तक वह जनता का भरोसा नहीं जीत सकती और जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक वह समस्याओं से घिरी रहेगी और अपना काम सही तरह नहीं कर पाएगी। पुलिस किसी भी राज्य की हो, उसकी छवि जन हितैषी बल की नहीं है। आम आदमी अपनी समस्या-शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस के पास जाने से पहले सौ बार सोचता है, क्योंकि उसे यह आशंका रहती है कि उसकी बात सही तरीके से नहीं सुनी जाएगी और उसके साथ खराब व्यवहार हो सकता है। बात केवल आम आदमी के साथ पुलिस थानों में होने वाले व्यवहार की ही नहीं है। बात अन्य सार्वजनिक स्थलों पर पुलिस के आचरण की भी है और उसकी मानसिकता की भी। आम आदमी की नजर में पुलिस हमेशा लोगों पर रौब जमाने या फिर उन्हें डांटने-फटकारने वाली मुद्रा में रहती है।

पुलिस के स्तर पर भले ही बातें जनता की सेवा की होती हों, लेकिन सेवाभाव की जगह वर्दी की धौंस-धमक ही अधिक नजर आती है। ऐसे पुलिसिया तेवर आम लोगों को सशंकित भी करते हैं और हतोत्साहित भी। हालांकि पुलिस के तौर-तरीकों में बदलाव की बातें एक लंबे अर्से से हो रही हैं, लेकिन स्थितियों में कोई उल्लेखनीय सुधार इसलिए नहीं पा रहा है, क्योंकि वह उस ढांचे के तहत ही काम कर रही है, जिसे अंग्रेजों ने कायम किया था। यदि पुलिस की छवि में सुधार लाना है तो उसकी कार्यप्रणाली और उसके नजरिये में बदलाव लाने के ठोस कदम उठाने होंगे। इस दिशा में कोशिश हो तो रही है, लेकिन बहुत ही धीमी गति से। आखिर यह एक तथ्य है कि 2006 के पुलिस सुधार संबंधी वे दिशानिर्देश अभी तक ढंग से लागू नहीं हो सके हैं, जो सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय किए गए थे। एक समस्या यह भी है कि पुलिस पर काम का बोझ तो बढ़ता जा रहा है, लेकिन वह संसाधनों के अभाव से मुक्त नहीं हो पा रही है। नि:संदेह पुलिस की छवि बदलने का काम पुलिस अधिकारियों को अपने हाथ में लेना होगा, लेकिन इसी के साथ नीति-नियंताओं को भी यह समझना होगा कि पुलिस की कुछ समस्याओं का समाधान उनके स्तर पर ही हो सकता है।