पंजाब शिक्षा के क्षेत्र में लगातार पिछड़ता जा रहा है और यदा-कदा यह बात किसी न किसी कारण से सामने भी आती रहती है। विगत दिनों घोषित हुए टीईटी के परिणाम से भी प्रदेश की शिक्षा प्रणाली की ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आई है जो भविष्य को लेकर चिंतित करने वाली है। यह हैरान करने वाला है कि शिक्षकों की भर्ती के लिए आयोजित की जाने वाली इस परीक्षा में मात्र दो प्रतिशत परीक्षार्थी ही सफल हो सके। परीक्षार्थियों का कहना है कि इस बार पेपर काफी कठिन थे और इसमें आइएएस व पीसीएस स्तर की परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्न भी डाल दिए गए थे, परंतु यदि इससे पूर्व 2010 व 2011 में घोषित परीक्षा परिणामों का अवलोकन करें तो तस्वीर बहुत जुदा नहीं है और इन दोनों सत्रों की परीक्षा में भी पास प्रतिशत चार से पांच फीसदी ही था। तो क्या हर वर्ष पेपर इतने कठिन दिए जाते कि उन्हें हल ही न किया जा सके? और यदि इतने कठिन प्रश्न पूछे ही जाते हैं तो क्या परीक्षार्थियों की तैयारी उस स्तर की नहीं होती? क्या वे यह मानकर चलते हैं कि आसान प्रश्न ही पूछे जाएंगे? कारण चाहे जो भी हो, लेकिन कहीं न कहीं इस स्थिति के लिए सरकार और परीक्षार्थी दोनों जिम्मेदार हैं। खासकर सरकार, क्योंकि शिक्षा मंत्री ने यह कह कर कि छह माह के अंदर फिर परीक्षा ली जाएगी एक तरह से गलती स्वीकार कर ली है। सरकार ने यदि शिक्षक भर्ती के लिए टीईटी की शर्त अनिवार्य की है तो इस परीक्षा का स्तर तय करना और इसकी निगरानी करना भी उसकी ही जिम्मेदारी है। इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिन चार या पांच प्रतिशत परीक्षार्थियों ने इस टेस्ट को 2010 व 2011 में पास किया है उन्हें भी नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इससे जहां प्रदेश में बेरोजगारी की समस्या जस की तस बनी हुई है, वहीं प्रदेश में बड़ी संख्या में रिक्त पड़े शिक्षकों के पद भी भरे नहीं जा पा रहे। इसका खामियाजा अंततोगत्वा नौनिहालों को भुगतना पड़ रहा है। सरकार को शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा करनी चाहिए और यदि इसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है तो वह भी करना चाहिए ताकि योग्य उम्मीदवारों को उचित पद और नौनिहालों को योग्य शिक्षक मिल सकें। यह प्रदेश के भविष्य के लिए बेहद जरूरी है।

[स्थानीय संपादकीय: पंजाब]

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