यह बहुत ही चौंकाने, चिंता से भर देने और निराश करने वाला है कि बंबई उच्च न्यायालय ने 2006 में मुंबई की सात लोकल ट्रेनों में भीषण बम विस्फोट करने के सभी 12 आरोपितों को बरी कर दिया। उसने इन सभी को बरी करते हुए यह टिप्पणी भी की कि अभियोजन पक्ष दोष साबित करने में पूरी तरह विफल रहा।

उसने एक तरह से उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया, जबकि ट्रायल कोर्ट ने 2015 में इन 12 में से पांच को मृत्युदंड और सात को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस भीषण आतंकी घटना की जांच महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते यानी एटीएस ने की थी। यदि यह मान लें कि उच्च न्यायालय का निष्कर्ष सही है, तो भी आखिर इसका क्या मतलब कि उसे ट्रायल कोर्ट के फैसले पर अपना फैसला देने में इतने वर्ष लग गए।

यह तो देर ही नहीं, अंधेर भी है। यदि आतंकवाद के गंभीरतम मामलों में हमारा न्यायिक तंत्र इतनी धीमी गति से आगे बढ़ेगा तो यह दावा तो किया ही नहीं जा सकता कि भारत आतंकवाद से कड़ाई से निपट रहा है। न्यायिक तंत्र में यह कड़ाई नहीं दिखाई देती। पहले भी ऐसा होता रहा है। आखिर कब तक होता रहेगा?

यह भी देखने में आया है कि निचली अदालतों के फैसले की हाई कोर्ट और उसके निर्णयों का निपटारा करने में सुप्रीम कोर्ट को भी खासा समय लग गया। अब भी आतंकवाद के कई बड़े मामले उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं। इस तरह से हम आतंकवाद से नहीं लड़ सकते।

विश्व समुदाय भी इस पर सवाल उठा सकता है कि आखिर भारत की जांच एजेंसियां एवं न्यायिक तंत्र आतंकवाद के गंभीर मामलों में भी सचेत और सक्रिय क्यों नहीं हैं? पुलिस, जांच एजेंसियों और अदालती प्रक्रिया की सुस्ती पहले ही बहुत महंगी पड़ चुकी है। इस सुस्ती का सीधा लाभ आतंकी और उनके हमदर्द उठा रहे हैं।

माना जाता था कि समय के साथ यह सुस्ती दूर होगी, लेकिन आतंकवाद के मामलों की तत्परता से सही जांच और समय पर उनका अदालती निपटारा अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है। यह खेद और लज्जा की बात है कि आतंकवाद से पीड़ित होने के बावजूद भारत उसका सभी स्तरों पर प्रभावी ढंग से मुकाबला करता हुआ नहीं दिख रहा है।

बंबई उच्च न्यायालय का फैसला लोकल ट्रेनों में विस्फोट से मारे गए करीब 190 लोगों के स्वजनों एवं 800 से अधिक घायलों और उनके करीबियों को गहरी पीड़ा देने और हताश करने वाला है। सरकारी सिस्टम देश के लोगों को नीचा दिखा रहा है। उनके घाव कुरेद रहा है। धिक्कार है। उच्च न्यायालय के फैसले पर तू तू-मैं मैं करने वाले घटिया और देशघाती राजनीति से बाज आएं तो अच्छा। कई नेता तो ऐसे हैं, जो ऐसे मामलों में भी वोट बैंक की राजनीति करते हैं।