डा. विनोद यादव। पिछले कुछ महीनों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तिलवाड़ा साकिन, हरियाणा के टोपरा कलां और राजस्थान के बहज नामक पुरातत्व स्थलों से ताम्रयुगीन, महाभारतकालीन, मौर्यकाल, शुंग काल और कुषाण काल के अनेक महत्वपूर्ण पुरावशेष मिले हैं। तिलवाड़ा साकिन गांव में हुए उत्खनन से 4,000 साल पुराने रथ का पहिया मिला है, जो तांबे की परत से ढका हुआ है। 1900 से 1500 ईसा पूर्व के तांबे की कटारें, तलवारें, औजार मिले हैं।

तिलवाड़ा साकिन से केवल 10 किमी दूर सिनौली गांव से भी तांबे की परत चढ़े तीन युद्ध रथ और अति दुर्लभ लकड़ी के ताबूत में संरक्षित किए गए आठ मानव कंकाल, युद्ध में इस्तेमाल किए जाने वाले कवच, हेलमेट, तांबे की तलवारें, खंजर, स्वर्ण आभूषण प्राप्त हुए हैं। सिनौली में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने सर्वप्रथम 2005 में उत्खनन कार्य कराया था। तब पुरातत्वविदों को यहां से करीब 116 मानव कंकाल, स्वर्णनिधि (बड़ी संख्या में सोने के कंगन, सोने के मनके और सोने की मानवाकृति) प्राप्त हुई थी।

तिलवाड़ा साकिन और सिनौली में मिले पुरावशेषों में एकरूपता की झलक मिलती है। यह पूरा परिक्षेत्र कुरु वंश की राजधानी हस्तिनापुर के अंतर्गत आता था। तिलवाड़ा और सिनौली की खुदाई में जो बर्तन और दाह संस्कार के प्रमाण मिले हैं, वे महाभारत, रामायण और वेद जैसे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कथाओं से मेल खाते हैं। दोनों स्थलों से मिले गेरूए मृदभांड और तांबे के बर्तनों की संरचना, नक्काशी और आकार एक जैसा है। इन दोनों स्थलों से मिले अवशेषों की कार्बन डेटिंग भी हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी योद्धा जनजातियों में से एक यहां निवास कर रही थी।

ये लोग प्रवासी नहीं, बल्कि हड़प्पा सभ्यता से अलग संस्कृति वाले स्वदेशी योद्धा थे। इससे यह भी पता चलता है कि वैदिक युग के लोग बहुत कुशल कारीगर थे। उन्हें धातु पिघलाना, उसे ढालना और लकड़ी पर तांबे की परत चढ़ाना अच्छी तरह आता था। महिलाओं के कंकालों के साथ मिली तलवारें और अन्य पुरावशेष इस बात के सुबूत देते हैं कि प्राचीन भारत में महिलाओं की सामाजिक हैसियत पुरुषों के बराबर थी। गंगा-यमुना दोआब में स्थित पुरातात्विक स्थलों से मिले ये पुरावशेष वामपंथी इतिहासकारों के फैलाए उस झूठ की पोल खोलते हैं कि आर्य विदेशी आक्रमणकारी थे और वे अपने साथ रथ और हथियार लेकर आए। ये पुरावशेष आर्यों के भारतीय होने के सिद्धांत को पुख्ता करते हैं।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा-वृतांत में आज के हरियाणा के यमुनानगर जिले में स्थित सुघ नामक गांव के बौद्ध विहार का बहुत सुंदर वर्णन किया है। सुघ गांव के प्राचीन टीले पर सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए पुरावशेष आज भी मौजूद हैं। हाल में हरियाणा सरकार ने राज्य में 28 बौद्ध स्तूप निर्मित किए जाने की घोषणा की है। इसकी शुरुआत यमुनानगर के ऐतिहासिक गांव टोपरा कलां में भगवान बुद्ध के स्तूप निर्माण के साथ होगी। वर्तमान में टोपरा गांव प्राचीन टीले पर स्थापित है और मौर्य युग के मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों को यहां आसानी से देखा जा सकता है। हाल में आइआइटी, कानपुर के शोधकर्ताओं ने पुरातात्विक अवशेषों का पता लगाने की अत्याधुनिक तकनीक ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (जीपीआर) द्वारा टोपरा कलां गांव के टीले का गहन सर्वेक्षण किया।

इसके अंतर्गत विद्युत चुंबकीय तरंगों को जमीन के भीतर भेजा गया। इस तकनीक द्वारा शोधकर्ताओं को छह से सात फीट की गहराई पर स्तूप जैसी अर्ध गोलाकार संरचनाओं, ईंट की दीवारों और आवासीय कक्षों जैसे पैटर्न बने होने के संकेत मिले। शोधकर्ताओं की टीम ने एक और दिलचस्प जगह का भी पुरातात्विक सर्वेक्षण किया, जिसे स्थानीय लोग 'जरासंध का किला' कहते हैं, यहां भी दीवारनुमा संरचना होने के संकेत मिले हैं। पुरातात्विक उत्खनन की इसी कड़ी में एएसआइ को राजस्थान के डीग जिले के बहज गांव में भी 3500 ईसा पूर्व पुरानी सभ्यता के अवशेष मिले हैं।

खोदाई के दौरान शोधकर्ताओं को गांव में 23 मीटर की गहराई पर एक प्राचीन नदी तंत्र मिला। इतिहासकार इसे ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी से जोड़कर देख रहे हैं। इसके साथ ही मिट्टी के खंभों से बनी इमारतों के पुरावशेष, परतदार दीवार वाली खंदकें और भट्ठियां भी मिली हैं। 15 हवन-कुंड, शिव-पार्वती की टेराकोटा मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। यहां जो ब्राह्मी लिपि की मोहरें मिली हैं, वे समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक के सबसे पुराने साक्ष्य हैं। मथुरा से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बहज गांव सरस्वती बेसिन की सांस्कृतिक विरासत को जोड़ने वाली कड़ी है।

कुल मिलाकर खोदाई में मिले ये पुरावशेष साफ-साफ बता रहे हैं कि भारत की सांस्कृतिक विरासत और इतिहास की समझ सामान्य बोध से अधिक पुरानी और विस्तृत है। बस जरूरत है तो तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर भारत के गौरवशाली अतीत को नए नजरिए से देखने की। यह खोज न केवल इन क्षेत्रों की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहचान को नई ऊंचाई दे रही है, बल्कि भारतीय इतिहास और संस्कृति के उन अनछुए अध्यायों को फिर से खोलने और नए सिरे लिखने का अवसर भी दे रही है जिन्हें साजिश के तहत दबा दिया गया है।

(लेखक इतिहासकार हैं)