स्वयं से संघर्षरत पाकिस्तान, फिर ना बन जाए 1971 जैसी गृहयुद्ध की स्थिति
सत्ता से बाहर होने पर बौखलाए इमरान मौजूदा सरकार के खिलाफ भी आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं। वह 28 अक्टूबर से सरकार विरोधी जुलूस निकाल रहे हैं। इसी दौरान 3 नवंबर को नवीद नामक व्यक्ति ने उन पर हमला कर दिया।
बलबीर पुंज : पाकिस्तान में इस समय सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगला सेनाध्यक्ष कौन होगा? 29 नवंबर को निवर्तमान सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा का दूसरा कार्यकाल भी समाप्त हो रहा है। भावी सेनाध्यक्ष के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर, लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा और लेफ्टिनेंट जनरल अजहर अब्बास प्रबल दावेदार हैं। नए सेनाध्यक्ष के शरीफ बंधुओं (नवाज-शहबाज) और इमरान खान से कैसे संबंध होंगे? इस प्रश्न का पाकिस्तान के भविष्य से सीधा संबंध है।
सेना से सीधे टकराने वाले इमरान अगले सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में या तो सरकार-विपक्ष में आम-सहमति होने या इसे चुनाव तक टालने की बात कर रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि शरीफ सरकार द्वारा प्रस्तावित विकल्पों में जनरल मुनीर का हर समय नियमों से चलने वाला व्यवहार इमरान को पसंद नहीं। इसी कारण इमरान ने मुनीर को खुफिया एजेंसी आइएसआइ मुखिया के पद से हटाया था। इस बीच इमरान पाकिस्तान में आमूलचूल परिवर्तन लाने का आह्वान कर चुके हैं। उन्होंने कई मामलों में भारत की प्रशंसा भी की है। क्या यह बदलाव का संकेत है?
वास्तव में, सेनाध्यक्ष की नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल होने या उसे टालने में इमरान की नीयत और पाकिस्तान की कड़वी हकीकत छिपी है। सच यही है कि इमरान किसी बदलाव हेतु नहीं लड़ रहे। वह स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने और पुन: प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में अपने अनुकूल सेनाध्यक्ष चाहते हैं। ऐसे में जिज्ञासा स्वाभाविक है कि क्या पाकिस्तान में पसंदीदा सेनाध्यक्ष होना नेताओं के लिए हमेशा उपयोगी होता है?
इतिहास यही बताता है कि आरंभ से ही पाकिस्तानी सेनाप्रमुख सरकार के बजाय अपनी महत्वाकांक्षाओं और संस्था के प्रति अधिक वफादार होता है। 2016 में जनरल बाजवा को तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने नियुक्त किया था। अगले ही वर्ष नवाज को पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय ने अयोग्य ठहराकर प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ कर दिया। कहा जाता है कि इसकी पटकथा स्वयं पाकिस्तानी सेना ने लिखी थी, क्योंकि जिस जांच समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर शरीफ पर कार्रवाई हुई, उसमें आइएसआइ और सेना के अधिकारी भी शामिल थे। इससे पहले सेना नवाज का तख्तापलट भी कर चुकी थी। उनसे पूर्व इस्कंदर मिर्जा (1958) और जुल्फिकार अली भुट्टो (1977) भी सैन्य तख्तापलट के शिकार हुए। लियाकत अली और बेनजीर भुट्टो इससे बचने में सफल तो रहे, किंतु कालांतर में अपनी जान गंवा बैठे।
जनरल बाजवा के कार्यकाल में नवाज ही नहीं, इमरान को भी प्रधानमंत्री पद गंवाना पड़ा। दरअसल इमरान को बाद के दिनों में सेना का वैसा सहयोग प्राप्त नहीं हुआ, जैसा 2018 के चुनाव में मिला था। इसी खुन्नस में वह सेना विरोधी वक्तव्य दे रहे हैं। उनका सरोकार कथित लोकतांत्रिक हितों की रक्षा या नागरिक-सैन्य असंतुलन दूर करने से जुड़ा न होकर नितांत निजी है। फिलहाल पाकिस्तान में अस्थिरता की ऐसी स्थिति है कि वहां कुछ भी घटित हो सकता है। या तो वहां 1971 की भांति गृहयुद्ध भड़केगा या सेना द्वारा सीधा हस्तक्षेप हो सकता है या फिर लोकतांत्रिक मुखौटा पहनकर सेना ही देश पर शासन कर सकती है।
सत्ता से बाहर होने पर बौखलाए इमरान मौजूदा सरकार के खिलाफ भी आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं। वह 28 अक्टूबर से सरकार विरोधी जुलूस निकाल रहे हैं। इसी दौरान 3 नवंबर को नवीद नामक व्यक्ति ने उन पर हमला कर दिया। हमलावर इससे नाराज था कि इमरान पाकिस्तान को ‘रियासत-ए-मदीना’ बनाने का वादा कर रहे हैं, जबकि ‘रियासत-ए-मदीना’ को पैगंबर मोहम्मद साहब ने स्थापित किया था। ऐसे में इमरान परोक्ष रूप से अपनी तुलना पैगंबर साहब से करके ‘ईशनिंदा’ कर रहे, जिसकी सजा केवल मौत है। इमरान भले ही उस हमले में बच गए हों, मगर उन पर खतरा टला नहीं। इससे मुमताज कादरी का मामला याद आता है। कादरी पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर रहे सलमान तासीर की सुरक्षा में तैनात था, लेकिन उसने तासीर को ईशनिंदा के मामले में गोलियों से भून दिया था। जब कादरी को अदालत में प्रस्तुत किया गया, तब हजारों की भीड़ उसके समर्थन में नारेबाजी कर रही थी।
नवीद या कादरी कोई अपवाद नहीं हैं, क्योंकि इस्लाम के नाम पर बने इस देश का बड़ा जनमानस मजहबी जुनून में लगभग विक्षिप्त हो चुका है। पाकिस्तान में 1967-2021 के बीच 1,500 से अधिक ईशनिंदा के मामले दर्ज हुए। इनमें कई आरोपितों (मुस्लिम सहित) को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान मजहबी भीड़ ने या तो मौत के घाट उतार दिया या उनसे मारपीट की। हिंदू और ईसाई अल्पसंख्यकों का पाकिस्तान से अस्तित्व मिटाने के लिए भी ईशनिंदा कानून का दुरुपयोग होता है। पाकिस्तानी संसदीय समिति के अनुसार ईशनिंदा हिंसा में शामिल 90 प्रतिशत लोगों की आयु 18-30 वर्ष होती है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं। 2001-2018 के बीच वहां 4,847 शियों को सुन्नी कट्टरपंथियों ने मौत के घाट उतार दिया। लगभग 20 लाख अहमदिया मुसलमान पाकिस्तान में तिरस्कार और उत्पीड़न झेल रहे हैं, जिन्हें गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया है। यह सब पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप है।
पाकिस्तान में राजनीतिक वर्ग और सेना के बीच टकराव ऐसे समय में बढ़ा है, जब ध्वस्त आर्थिकी, कमरतोड़ महंगाई, भारी बेरोजगारी और मजहबी हिंसा से आमजन पहले ही त्रस्त है। पाकिस्तान तेजी से रसातल की ओर जा रहा है। सभ्यतागत-वैचारिक द्वंद्व के कारण वह राष्ट्र के रूप में भी सुदृढ़ नहीं है। फिर भी सेना वहां सत्तापक्ष, विपक्ष और व्यापक जनमानस को जिस प्रकार एकसूत्र में पिरोए हुए है, वह उसकी अपनी मूल सनातन सांस्कृतिक पहचान को समाप्त करने हेतु अरब संस्कृति को अपनाने की असफल छटपटाहट है। भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान का जन्म उस घृणा आधारित चिंतन के गर्भ से हुआ है, जो आज भी खंडित सनातन भारत और उसके नैसर्गिक बहुलतावादी-पंथनिरपेक्षवादी-लोकतांत्रिक चरित्र को मिटाने पर आतुर है। पाकिस्तान मात्र कोई देश नहीं, अपितु विषाक्त विचार है। भारत-हिंदू विरोध ही पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार है।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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