जागरण संपादकीय: मार्ग दुर्घटनाओं की राष्ट्रीय आपदा, सालभर में जाती है 3.3 लाख लोगों की जान
देश में लाइसेंस प्रक्रिया बेहतर बनाने के लिए इसे औपचारिकताओं से बाहर निकालकर वास्तविकताओं की परिधि में लाना होगा। नई प्रक्रिया अधिक डिजिटल एवं मानकीकृत होने के साथ ऐसी बने जिसमें गलतियों की गुंजाइश न छूटे। आरंभिक से लेकर अंतिम पड़ाव तक सभी पहलुओं की गहन जांच-परख की जाए न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप हो।
आदित्य सिन्हा। भारत में सड़क दुर्घटनाओं से जुड़ा संकट एक आपात स्थिति का संकेत करता है। इस राष्ट्रीय आपदा से जुड़े आंकड़े हतप्रभ करने वाले हैं। केवल वर्ष 2022 में ही 1.68 लाख लोगों का जीवन सड़क दुर्घटनाओं की भेंट चढ़ गया। यह संख्या दावोस, मोनाको या फिर भूटान की राजधानी थिंपू की आबादी से भी अधिक है। जबकि अनौपचारिक आंकड़ों के अनुसार साल भर के दौरान देश में औसतन 3.3 लाख लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं।
यह संख्या आइसलैंड की आबादी से अधिक या द्वितीय विश्व युद्ध में जान गंवाने वाले अमेरिकी सैनिकों से भी अधिक है। स्पष्ट है कि सड़क दुर्घटनाओं के मामले में भारत बहुत ऊपर है। विश्व की 11 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाएं भारत में होती हैं, जबकि वैश्विक वाहनों का मात्र एक प्रतिशत ही देश में है। रोजाना 450 से अधिक भारतीय सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि खचाखच भरा एक एयरबस ए 380 विमान रोज दुर्घटनाग्रस्त हो रहा है, पर यह मुद्दा सुर्खियों से गायब रहता है। इसमें जवाबदेही भी तय नहीं की जाती।
त्रासद सड़क हादसों के और भी दुखद पहलू हैं। जैसे इनमें जान गंवाने वालों में 15 से 29 साल के लोग सर्वाधिक होते हैं। अक्सर ये अपने घर के कमाऊ लोग होते हैं या फिर आगे कमाने का दारोमदार इनके ही कंधों पर होता है। सड़क हादसों में चार में से एक मौत इसी आयुवर्ग के लोगों की होती है। हादसों में आधी मौतें दोपहिया वाहनों या पैदल यात्रियों से जुड़ी होती हैं। यह तथ्य कमजोर बुनियादी ढांचे और सड़क पर सबसे कमजोर लोगों के प्रति सुरक्षा की लापरवाही को उजागर करता है। इन हादसों में मारे जाने वाले लोगों की संख्या किसी महामारी या आतंकी हमले की तुलना में भी कहीं ज्यादा है, लेकिन इस समस्या के समाधान की दिशा में न तो आवश्यक कानूनी पहल हो रही है और न ही सुधारों की शुरुआत। संक्षेप में कहा जाए तो सड़क हादसे मानवजनित सबसे बड़ी आपदा होने के बावजूद सबसे ज्यादा अनदेखी के शिकार हैं।
सड़क हादसों से जुड़े संकट की जड़ों में घटिया इंजीनियरिंग, निम्न गुणवत्ता वाली परियोजनाएं, साइनबोर्ड न होना या भ्रामक साइनबोर्ड और इंजीनियरों एवं सलाहकारों की जवाबदेही का अभाव जैसे पहलू हैं। सरकार और एनएचएआइ ने ब्लैक स्पाट चिह्नित करने और दुर्घटना आशंकित क्षेत्रों में नए सिरे से डिजाइनिंग जैसे कदम उठाए हैं, लेकिन बात बन नहीं पा रही है। सामान्य सड़कों से लेकर राजमार्गों तक समाधान दूर की कौड़ी बना हुआ है। कई जगह उचित साइनेज तो छोड़िए लेन मार्किंग भी सही से नहीं हुई है। एक सवाल यह भी है कि जिन सड़कों पर संकेतक चिह्न हैं, क्या वाहन चालक वहां उनका अनुपालन करते हैं?
देखा जाए तो भारत में सड़कों का इन्फ्रास्ट्रक्चर उतनी बड़ी समस्या नहीं, जितनी सड़कों पर चलने को लेकर अनुशासनहीनता दिखती है। ऐसे में ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने की राज्यों की प्रक्रिया का सवालों के घेरे में आना स्वाभाविक है। समय के साथ भारत में सड़कों की दशा और वाहनों की गति के मोर्चे पर व्यापक परिवर्तन देखने को मिले हैं, लेकिन लाइसेंसिंग मानक कमोबेश जस के तस बने हुए हैं। जिस हिसाब से हाई स्पीड वाहन और एक्सप्रेसवे की संख्या बढ़ी है उसके अनुपात में लाइसेंसिंग प्रक्रिया समयानुकूल नहीं बन पाई है। देश के अधिकांश हिस्सों में ड्राइविंग टेस्ट के नाम पर महज खानापूर्ति होती है, जिसमें एक सीमित हिस्से में गाड़ी को रिवर्स करने या उसे पार्किंग में लगाने जैसे कौशल परखे जाते हैं। तमाम आवेदकों को वास्तविक सड़क की परिस्थितियों, रात्रि ड्राइविंग, हाईवे मर्जिंग या इमरजेंसी रिस्पांस जैसी कसौटियों पर नहीं परखा जाता। इससे भी बदतर बात है कि तमाम लाइसेंस तो बिना किसी जांच-परख के ही जारी कर दिए जाते हैं जिसमें बिचौलिये रिश्वत के जरिये यह काम करा देते हैं। इस मोर्चे पर प्रशासनिक हीलाहवाली को दूर करना भी बहुत आवश्यक हो गया है।
भारत की तुलना में विकसित देशों में लाइसेंसिंग प्रक्रिया बहुत व्यापक एवं खरी है। जर्मनी में ड्राइविंग लाइसेंस अनिवार्य क्लासरूम निर्देश, सिमुलेटर यानी आभासी प्रशिक्षण और निगरानी के अंतर्गत कुछ घंटों की ड्राइविंग के बाद ही दिया जाता है। ऐसे में भारत का लाइसेंसिंग ढांचा न केवल कालवाह्य, बल्कि खतरनाक भी हो गया है। यह नौसिखिए चालकों को सड़कों पर उतरने की अनुमति देकर हादसों को आमंत्रण देता है। हादसों को रोकने की पहली सीढ़ी बनने के बजाय यह उन्हें बढ़ावा देने का जरिया बन गया है। साठगांठ वाली ऐसी लाइसेंसिंग प्रक्रिया से पीछा छुड़ाना आवश्यक हो गया है।
देश में लाइसेंस प्रक्रिया बेहतर बनाने के लिए इसे औपचारिकताओं से बाहर निकालकर वास्तविकताओं की परिधि में लाना होगा। नई प्रक्रिया अधिक डिजिटल एवं मानकीकृत होने के साथ ऐसी बने जिसमें गलतियों की गुंजाइश न छूटे। आरंभिक से लेकर अंतिम पड़ाव तक सभी पहलुओं की गहन जांच-परख की जाए, न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप हो। देश में आटोमेटेड ड्राइविंग टेस्ट ट्रैक बनाए जाएं जहां सेंसरों के जरिये रीयल टाइम मानिटरिंग संभव हो सके। लाइसेंस को आधार बायोमीट्रिक के साथ भी जोड़ा जाए और केंद्रीकृत डाटाबेस बने ताकि लाइसेंस के दोहराव और फर्जी पहचान से बचा जाए। ऐसी प्रक्रियाएं सभी राज्यों में एकसमान हों जिसे एक साझा राष्ट्रीय लाइसेंसिंग ढांचे से संबद्ध किया जाए, जिसमें प्रदर्शन, नवीनीकरण और दंड विधान का प्रविधान हो। ड्राइविंग स्कूलों का नियमित आडिट और उनके प्रदर्शन की पब्लिक रेटिंग की जाए।
लाइसेंस जारी होने के बाद भी नियमों के अनुपालन और जवाबदेही के स्तर पर कोई ढिलाई नहीं दी जा सकती। किसी भी लापरवाही के लिए ड्राइवर और संबंधित प्राधिकारी संस्था को दंडित करना आवश्यक होगा। यह पूरी प्रक्रिया तत्काल एवं त्वरित गति के साथ पूरी की जाए। वाणिज्यिक ड्राइविंग लाइसेंसों के मामले में मानक और ऊंचे रखने होंगे जिनके नियमित नवीनीकरण को लेकर भी सतर्क रहना होगा। एक प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना भी करनी होगी जिसमें नागरिक अधिकार और सशक्त हो सकें। इन सभी उपायों को समग्रता में अपनाने से सड़क हादसों को घटाने में मदद मिल सकती है।
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)
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