विचार : ट्रंप की धमकी को धता बताना जरूरी, अमेरिका को खटक रहा भारत का फायदा
अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत को एक रणनीतिक साझेदार बताता है और चीन की एक काट के रूप में देखता है। क्या कोई अपने रणनीतिक साझेदार को टैरिफ लगाने-बढ़ाने की धमकियां देता है और उसकी ऊर्जा नीति को लेकर सार्वजनिक प्रलाप करता है। इस तरह के आक्रामक कदम रक्षा प्रौद्योगिकी और आर्थिक सहयोग में दशकों के बने भरोसे पर आघात करते हैं।
आदित्य सिन्हा। यूक्रेन युद्ध के बाद से भारत रियायती दरों पर रूसी कच्चा तेल खरीद रहा है। इसने भारत को बड़ी आर्थिक बढ़त दिलाई है। भारत जिस ब्रेंट क्रूड के अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर तेल की खरीद करता आया है, उससे कहीं कम कीमत पर वह रूस से रोजाना 17 से 19 लाख बैरल तेल खरीद रहा है। इससे भारत के लिए घरेलू ईंधन कीमतों को नियंत्रण में रखने, महंगाई पर लगाम लगाने और विकास के लिए राजकोषीय गुंजाइश बढ़ाने में मदद मिली है। यह कोई अवसरवादी नीति नहीं, बल्कि अस्थिर वैश्विक बाजार में राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने का एक सुनियोजित कदम है।
भारत को हो रहा यह लाभ अमेरिका को खटक रहा है। इसके चलते अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत पर टैरिफ के 25 प्रतिशत अतिरिक्त हर्जाना लगाने की भी घोषणा की है। यह 25 प्रतिशत टैरिफ के अतिरिक्त है। ट्रंप की भारत पर हर्जाना लगाने के पीछे की दलील बेमानी दिखती है, क्योंकि रूसी तेल खरीदने को लेकर तो वे भारत पर ऊंचे टैरिफ और हर्जाना लगाते हैं, लेकिन मास्को से सर्वाधिक मात्रा में तेल खरीद रहे चीन को अनदेखा कर देते हैं। इस मामले में भारत को जिस प्रकार निशाना बनाया जा रहा है, उससे यह केवल एक वाणिज्यिक विवाद न रहकर हमारे संप्रभु नीति निर्माण को भी चुनौती देता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भारत पर रूस से तेल न खरीदने का दबाव तब बना रहे हैं, जब उनका दावा है कि रूस के साथ उनकी बात सही दिशा में जा रही है। भारत को उनके द्वारा निशाना बनाए जाने के बाद तेल की कीमतों से लेकर अमेरिकी बाजारों तक में हलचल देखने को मिली है। ऐसी परिस्थितियों में भारत द्वारा तेल खरीद के फैसले का राजनीतिकरण व्यापक ऊर्जा स्थिरता के परिदृश्य को चोट पहुंचा सकता है। वैसे भी यह रुख-रवैया अपनी सुविधा के अनुसार अपनाया जा रहा है। यूरोपीय संघ ने 2024 में रूस के साथ 67.5 अरब डालर का व्यापार किया। जबकि 2024 में ही यूरोप ने रूस से रिकार्ड मात्रा में 1.65 करोड़ टन एलएनजी आयात की। इससे नई दिल्ली में यही धारणा मजबूत हो रही है कि भारत को राजनीतिक कारणों से परेशान किया जा रहा है, जबकि पश्चिमी सहयोगियों को अमेरिका ने छूट दे रखी है।
देखा जाए तो रूसी तेल खरीदकर भारत ने केवल अपनी अर्थव्यवस्था को ही फायदा नहीं पहुंचाया, बल्कि वैश्विक मुद्रास्फीतिक दबाव को भी नियंत्रित रखने में भी सहायक बना है। भारत रूसी तेल निर्यात का एक बड़ा हिस्सा खपा रहा है। यदि भारत ऐसा नहीं करता तो लाजिस्टिक्स एवं अन्य बढ़ी हुई लागतों के चलते अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हो सकती थी। दुनिया पहले से ही ऊर्जा, खाद्य और परिवहन के स्तर पर महंगाई से परेशान है, तब भारत द्वारा रूसी आयात के अभाव में इस परेशानी में और बढ़ोतरी होना तय था। वैश्विक हालात बद से बदतर होते जाते।
घरेलू मोर्चे पर भी रूसी आयात घटाने का अर्थ होगा महंगी पश्चिमी एशियाई आपूर्ति बढ़ाना, ढुलाई की ऊंची लागत झेलना और रिफाइनरियों में इस नई खेप को शोधित करने के लिए आवश्यक परिवर्तन करना। इसका परिणाम या तो उपभोक्ताओं के लिए ईंधन की ऊंची कीमतों के रूप में निकलेगा या फिर सरकार को तेल सब्सिडी बढ़ानी होगी, जिससे इन्फ्रास्ट्रक्चर और कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च के लिए उसकी राजकोषीय गुंजाइश घटेगी। इस मुद्दे से जुड़े राजनीतिक पहलू भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत को एक रणनीतिक साझेदार बताता है और चीन की एक काट के रूप में देखता है। क्या कोई अपने रणनीतिक साझेदार को टैरिफ लगाने-बढ़ाने की धमकियां देता है और उसकी ऊर्जा नीति को लेकर सार्वजनिक प्रलाप करता है। इस तरह के आक्रामक कदम रक्षा, प्रौद्योगिकी और आर्थिक सहयोग में दशकों के बने भरोसे पर आघात करते हैं। इससे वाशिंगटन के साथ भावी सक्रियता को लेकर भी भारत और सतर्कता बरतेगा, जिससे द्विपक्षीय संबंधों में आ रही तेजी निस्तेज पड़ेगी।
इतिहास साक्षी है कि भारत ने सदैव अपनी विदेश नीति स्वायत्तता की रक्षा की है। महाशक्तियों के दबाव वाले दौर में भी भारत झुका नहीं। विदेश नीति में भारत का यह स्वतंत्र रवैया यूक्रेन युद्ध में भी रेखांकित हुआ, जब पश्चिमी देशों द्वारा उकसावे के बावजूद भारत अपने रुख पर अडिग रहा। हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने यह उल्लेख भी किया कि वैश्विक अस्थिरता के इस दौर में प्रत्येक देश अपने हितों को प्राथमिकता दे रहा है।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी स्पष्ट किया कि पारंपरिक खाड़ी आपूर्तिकर्ताओं द्वारा यूरोप का रुख किए जाने से उपजी परिस्थितियों में ही रूस से आयात बढ़ा और अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देश किस तरह खुद रूस से ऊर्जा खरीदारी कर इस मामले में दोहरे रवैये का परिचय दे रहे हैं।
यदि वर्तमान परिस्थितियों में भारत और चीन रूसी तेल का आयात बंद कर दें तो कच्चे तेल की कीमतों में एकाएक 20 डालर प्रति बैरल तक की बढ़ोतरी संभव है। समूचा विश्व लंबे समय तक ऊंची कीमतों के दौर को झेलने के साथ आपूर्ति में भी गतिरोध झेलने को विवश होगा। सस्ते रूसी तेल के केवल वाणिज्यिक लाभ ही नहीं, बल्कि यह भारत के वृहद आर्थिक स्थायित्व का भी एक मजबूत स्तंभ है, जो वैश्विक बाजार को भी संतुलन प्रदान कर रहा है। किसी तरह के राजनीतिक दबाव में इससे किनारा करना आर्थिक दृढ़ता और रणनीतिक स्वायत्तता दोनों को क्षति पहुंचाएगा।
जब वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य अस्थिरता एवं अनिश्चितता से जूझ रहा है और ओपेक प्लस देश आपूर्ति में संभावित समायोजन के संकेत दे रहे हैं और बाजार कूटनीतिक घटनाक्रमों से प्रभावित हो रहे हैं, तब भारत को अपने आर्थिक एवं रणनीतिक लचीलेपन को हर हाल में कायम रखना चाहिए। ऊर्जा सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा का एक अनिवार्य तत्व है और किसी तरह के दबाव में उससे समझौता भविष्य के किसी संकट से निपटने की भारत की क्षमताओं को कमजोर करेगा। ऊर्जा नीति में स्वतंत्र रुख-रवैया घरेलू स्थायित्व को सुरक्षा कवच प्रदान करने के साथ ही अमेरिका-भारत संबंधों की दूरगामी सेहत के भी अनुकूल होगा।
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)
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