[प्रकाश सिंह]। पुलिस सुधार के लिए संघर्ष पिछले लगभग 22 वर्ष से चल रहा है। इस संबंध में 1996 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। इस पर दस वर्ष बाद 2006 में फैसला आ पाया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में छह दिशानिर्देश राज्य सरकारों के लिए दिए और एक दिशानिर्देश केंद्र सरकार के लिए। राज्य सरकारों को दिए गए दिशानिर्देशों में एक पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति को लेकर था। सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि राज्य सरकार जब एक बार किसी अधिकारी को पुलिस महानिदेशक पद पर नियुक्त कर दे तो उसे कम से कम दो साल का कार्यकाल मिलना चाहिए। इस बीच यदि उसकी सेवानिवृत का समय आ जाए तो उसका कार्यकाल आगे बढ़ा दिया जाए। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि पुलिस महानिदेशक प्रदेश को सही नेतृत्व एवं दिशा दे सके और जो भी योजनाएं हों उन्हें अपने कार्यकाल में वांछित गति देने में समर्थ हो सके।

दुर्भाग्य से राज्य सरकारों ने इन दिशानिर्देशों का खुला उल्लंघन किया। उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार ने तो मनमानी की हद ही कर दी। एक बार पुलिस महानिदेशक पद पर अरुण कुमार गुप्ता की नियुक्ति केवल एक महीने के लिए ही हुई। इसी तरह अरविंद जैन और रिजवान अहमद को भी दो-दो महीने के लिए पुलिस महानिदेशक बनाया गया। जगमोहन यादव छह महीने के लिए, देवराज नागर करीब आठ महीने के लिए, आनंद लाल बनर्जी दस महीने के लिए पुलिस महानिदेशक बनाए गए। अन्य राज्यों में भी मनमानी की गई। पश्चिम बंगाल में एक डीजीपी को रिटायरमेंट से पहले दो साल का कार्यकाल दिया गया। तमिलनाडु में भी एक डीजीपी को रिटायरमेंट के पहले दो साल का कार्यकाल मिला। यह भी देखने में आया कि अधिकांश राज्य सरकारें पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) से परामर्श नहीं ले रही थीं, जबकि सुप्रीम कोर्ट का निर्देश यही था।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पुलिस महानिदेशक की नियुक्तियों में इन विकृतियों का संज्ञान लिया और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अच्छा होता कि वह उन राज्यों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला चलाने की बात कहता जो पुलिस महानिदेशकों की नियुक्तियों में मनमानी कर रहे थे। उसने राज्य सरकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के उल्लंघन को आधार बनाकर यह मांग की कि पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति संबंधी आदेश में संशोधन किया जाए। उसकी यह भी दलील थी कि पुलिस महानिदेशक का कार्यकाल दो साल के बजाय सेवानिवृत तक ही सीमित रखा जाए। गृह मंत्रालय के इस रवैये को अच्छा नहीं कहा जा सकता। लगता है कि इसके पीछे नौकरशाही की चाल थी। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट में गृह मंत्रालय के सुझाव का कड़ा विरोध किया गया। सारी बहस सुनने के बाद कोर्ट ने अपने मूल दिशानिर्देशों को यथावत रखते हुए निम्नलिखित स्पष्टीकरण दिए:

-पुलिस महानिदेशक के रिटायरमेंट के तीन महीने पहले राज्य सरकारों की यह बाध्यता होगी की वे संघ लोक सेवा आयोग को अपना प्रस्ताव उपयुक्त अधिकारियों के नाम सहित भेजे।

-संघ लोक सेवा आयोग राज्य की ओर से भेजी गई पुलिस अधिकारियों कीसूची में से तीन के नाम का चयन करते हुए उसे वापस भेजेगा।

-राज्य सरकार इसी तीन नाम वाले पैनल में से एक अधिकारी को पुलिस महानिदेशक के पद पर नियुक्त करेगी।

-कोई भी राज्य कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक नियुक्त नहीं करेगा।

-प्रयास यह होगा कि जो भी अधिकारी पुलिस महानिदेशक के पद पर नियुक्त किया जाए वह सेवानिवृति के बाद भी उचित समय तक अपने पद पर बना रहे।

-संघ लोक सेवा आयोग यथासंभव ऐसे अधिकारियों का ही पैनल बनाए जिनके सेवा काल का दो वर्ष बाकी हो। पैनल बनाते समय योग्यता और वरिष्ठता का ध्यान रखा जाए।

- उपरोक्त निर्देशों के विपरीत राज्य या केंद्र सरकार की ओर से बनाया गया कोई भी नियम या अधिनियम लंबित रखा जाए।

सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश का स्वागत किया जाना चाहिए। इस फैसले से पुलिस महानिदेशक की नियुक्तियों में मनमानी पर कुछ रोक तो अवश्य लगेगी। वैसे मेरा अनुभव यही कहता है कि राज्य सरकारों को जो आदेश नागवार गुजरता है उसकी अनदेखी करने का वे कोई न कोई बहाना ढूंढ़ निकालती हैं। अगर राज्य सरकारें ऐसा करें तो फिर सुप्रीम कोर्ट को डंडा चलाने में हिचकना नहीं चाहिए। केवल आदेश देना ही पर्याप्त नहीं है। एक पूर्व केंद्रीय गृह सचिव ने मुझसे कहा था कि जब तक किसी प्रदेश के गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को जेल नहीं भेजा जाएगा तब तक राज्य सरकारें मनमानी करती रहेंगी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में कई अवमानना याचिकाएं लंबित पड़ी हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उसने किसी के खिलाफ कोई नोटिस जारी नहीं की।

पुलिस सुधार के मामले में ध्यान रहे कि पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति संबंधी दिशानिर्देश के अलावा राज्य सरकारों के लिए पांच और दिशानिर्देश भी थे। इनके तहत राज्य स्तर पर एक सुरक्षा आयोग बनाने की बात थी जो नीतिगत विषयों पर पुलिस का मार्गदर्शन करेगा। कई राज्यों ने यह आयोग तो बनाया, परंतु उसमें निष्पक्ष लोगों के बजाय अपने समर्थकों को भर दिया। इसके अधिकारों में भी कटौती कर दी गई। यह भी कहा गया कि इस आयोग की संस्तुति राज्य सरकार के लिए केवल सुझाव के तौर पर होगी। इसी प्रकार स्थापना बोर्ड के गठन में भी घपले हैं।

एक राज्य ने अतिरिक्त मुख्य सचिव को स्थापना बोर्ड का चेयरमैन बना दिया, जबकि इस बोर्ड को पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में काम करना चाहिए। केंद्र सरकार की भी यह कोशिश है कि स्थापना बोर्ड को खत्म कर दिया जाए। पुलिस शिकायत आयोग के गठन में भी अनियमितताएं हैं। कुछ प्रदेशों में इनके मुखिया जिलाधिकारी या कमिश्नर हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार यह आयोग रिटायर्ड जज के अधीन होना चाहिए। तफ्तीश और शांति व्यवस्था के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग स्टॉफ तय करने की बात कही थी। इस दिशा में भी प्रगति शिथिल है।

ऑपरेशनल ड्यूटी पर तैनात अधिकारियों को भी जब-तब स्थानांतरित कर दिया जाता है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार उनका भी कार्यकाल दो साल का होना चाहिए। इसके अलावा पुलिस सुधार के और भी बहुत से पहलू हैं। एक तो पुलिस के संख्याबल में वृद्धि होनी चाहिए और दूसरे, सभी पुलिसकर्मियों को आवासीय सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। इसी तरह पुलिस वाहन की संख्या, संचार व्यवस्था के आधुनिकीकरण और फोरेंसिक लैब की संख्या भी बढ़ाए जाने की दरकार है।

प्रधानमंत्री हमेशा देश के विकास की बात करते हैं, परंतु विकास के लिए कानून एवं व्यवस्था का सुदृढ़ होना आवश्यक है। बालू के ढेर पर विकास का महल नहीं खड़ा किया जा सकता। अगर भारत को एक महाशक्ति बनना है तो फिर पुलिस सुधारों की दिशा में सही तरह से आगे बढ़ना अति आवश्यक है।

(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस एवं सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रहे हैं)