[अभिषेक कुमार सिंह]। Face Recognition System:  देश में शायद यह पहला मौका था, जब गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस परेड से अलग किसी प्रधानमंत्री की रैली में सुरक्षा कायम रखने के नजरिये से आधुनिक तकनीक फेशियल रिकॉग्निशन का इस्तेमाल किया गया। दावा किया गया है कि दो दिसंबर, 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में शामिल होने आए लोगों के चेहरों को फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक के इस्तेमाल से स्कैन किया गया।

स्कैनिंग से मिले चेहरों का मिलान दिल्ली पुलिस ने अलग-अलग विरोध प्रदर्शनों के दौरान बनाए गए वीडियो में दर्ज हुए चेहरों से किया। इस तकनीक के इस्तेमाल का उद्देश्य रैली में मौजूद लोगों में से ऐसे तत्वों की पहचान करना था जो पहले किसी मामले में संदिग्ध रह चुके हों। ‘कानून तोड़ सकने वाला कोई संदिग्ध’ रैली में नहीं आए, यह सुनिश्चित करने के लिए फेशियल रिकॉग्निशन के इस पहले बड़े प्रयोग ने साफ कर दिया है कि तकनीक के बल पर जहां कानून-व्यवस्था बनाना आसान हो जाता है, वहीं किसी बड़े आयोजन में संलग्न पुलिस- प्रशासन की मुश्किलें भी कम हो जाती हैं। साथ ही यह भरोसा भी जगता है कि यदि कोई तत्व आयोजन में गड़बड़ी की कोशिश करता है तो पहचान कर उसे आसानी से पकड़ा जा सकता है और उसे सजा दी जा सकती है।

उल्लेखनीय है कि फेशियल रिकॉग्निशन का सॉफ्टवेयर दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर रिकॉर्ड में मौजूद तस्वीरों का मिलान करके गुमशुदा बच्चों की खोजबीन के उद्देश्य से खरीदा था, लेकिन यह तकनीक कानून तोड़ने वाले शरारती तत्वों पर नजर रखने और उनकी धरपकड़ में भी कारगर साबित हो सकती है। इसका अंदाजा दिल्ली में दो बार स्वतंत्रता दिवस परेड और एक बार गणतंत्र दिवस परेड में प्रायोगिक इस्तेमाल के रूप में हो गया था। देश भर के संवेदनशील इलाकों में विरोध प्रदर्शनों के दौरान भी इस तकनीक को आजमाया जा सकता है। इस पर बढ़ते विश्वास के कारण ही राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने ‘ऑटोमेटेड फेशियल रिकॉग्निशन सिस्टम’ (एएफआरएस) के लिए कुछ समय पहले एक टेंडर जारी किया था।

एएफआरएस तकनीक से चेहरों को सटीक तरीके से पहचाना जा सकेगा और इसके प्रयोग से अपराध की रोकथाम और गुमशुदा लोगों की खोजबीन के काम में सहूलियत हो जाएगी। यह भी कहा गया है कि इस तकनीक में सीसीटीवी फीड से प्राप्त डाटा का इस्तेमाल होगा और उसका मिलान पासपोर्ट के आंकड़ों और विभिन्न मंत्रालयों में मौजूद डाटाबेस में दर्ज सूचनाओं से किया जाएगा। ऐसा नहीं है कि फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक का इस्तेमाल भारत में ही किया जा रहा है। पड़ोसी चीन में तो हाल में यह नियम बनाया गया है कि अगर किसी व्यक्ति को मोबाइल के लिए किसी नेटवर्क का सिम लेना है तो इसके लिए उसे अपना चेहरा इसी तकनीक से स्कैन कराना होगा। इसका मकसद यह बताया जा रहा है कि इससे वहां की सरकार देश के करोड़ों इंटरनेट यूजर्स की पहचान से जुड़ा डाटा संभालकर रख पाएगी।

मकसद अधिकारों की सुरक्षा करना

असल में चीन की सरकार कह रही है कि फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक से चेहरे की स्कैनिंग का एक बड़ा उद्देश्य लोगों के अधिकारों की सुरक्षा करना है, लेकिन साइबर दुनिया में ऐसी सरकारी ताकझांक ने चीन में विवाद पैदा कर दिया है। सिम कार्ड के बहाने चेहरे की स्कैनिंग कर हासिल किए जाने वाली जानकारी का इस्तेमाल दुकानों, सुपरमार्केट में खरीदारी के वक्त से लेकर टिकट बुकिंग आदि के लिए भी किया जा रहा है, जिससे लोगों में यह भ्रम पैदा हुआ है कि कहीं इससे जुटाए गए डाटा का इस्तेमाल चीन की सरकार आम लोगों पर निरंतर नजर रखने में तो नहीं करेगी। इस आशंका का एक संकेत नवंबर, 2019 में तब मिला, जब वहां के एक प्रोफेसर ने चीन के हांगझाऊ स्थित उद्यान पर इसके लिए मुकदमा दायर किया था कि उसने पार्क में भ्रमण के लिए जाने वाले लोगों के चेहरे की पहचान अनिवार्य कर दी थी। सितंबर में जब चीन ने एलान किया था कि देश में चेहरे की पहचान की तकनीक (फेशियल रिकॉग्निशन) को नियमित किया जाएगा तो इससे पहले वहां की एक यूनिवर्सिटी के बारे में खबरें आई थीं कि वहां छात्रों के व्यवहार और उपस्थिति की निगरानी के लिए चेहरा पहचानने की तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। बाद में कहा गया कि चूंकि चीनी सरकार जुटाए गए डाटा की चोरी संभाल नहीं पा रही है, इसलिए हैकिंग और लोगों के उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं।

विवाद भी उठे चेहरों की जांच पर

गत वर्ष न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि चीन के पश्चिमी इलाके शिनजियांग में लाखों उइगर मुस्लिमों को हिरासत में लिए जाने के पीछे उनके चेहरे की पड़ताल वाली तकनीक का हाथ था। वैसे चीन को तो अपने नागरिकों की हर किस्म की पहचान सतत दर्ज करते रहने वाले मुल्क के रूप में अरसे से जाना जाता रहा है। वहां काफी समय से फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक का इस्तेमाल जनगणना के लिए किया जा रहा है। इसके अलावा वहां सड़कों, रेलवे स्टेशनों, एयरपोर्ट, सार्वजनिक जगहों, मॉल आदि में करोड़ों सीसीटीवी कैमरे भी लगे हुए हैं।

एक आंकड़े के मुताबिक चीन में 2017 तक 17 करोड़ अत्याधुनिक सीसीटीवी कैमरे लगाए जा चुके थे और वर्ष 2020 के अंत तक चीन के चप्पे-चप्पे पर करीब 40 करोड़ सीसीटीवी कैमरे नजर रख रहे थे। सिर्फ चेहरा और अन्य बायोमीट्रिक पहचानों के अलावा हरेक चीनी नागरिक के आचरण और सार्वजनिक बातचीत को एक डाटाबेस में दर्ज किया जा रहा है। चीनी सरकार के मुताबिक जिसका उद्देश्य सरकारी ‘सोशल क्रेडिट’ सिस्टम को अपडेट करना है।

क्या अपराध रुकेंगे इस पहचान से इस तकनीक को भी सवालों से बरी नहीं किया जा सकता है। भारत में तो अभी इसकी शुरुआत है, पर अमेरिका से लेकर चीन तक में इसका व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। वहां नागरिकों कआपत्तियों के बावजूद सरकारें इसे इस तर्क के साथ लागू कर रही हैं कि इससे अपराधों की रोकथाम में मदद मिलती है। जैसे एक दावा चीन का है कि वर्ष 2018 में फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक से 60 हजार की भीड़ वाले एक कंसर्ट के बीच में एक भगोड़े को पुलिस ने खोजकर पकड़ लिया था। यूं तो इंटरनेट जालसाजी और साइबर बुलिंग से तंग लोगों को तकनीकी सुरक्षा के ये उपाय कारगर प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन इन्हें लेकर लोगों का पहला एतराज यही है कि यह तकनीक और इनके कड़े कायदे जनता की सहमति के बगैर लागू किए गए हैं।

जहां तक इंटरनेट की निगरानी और उसके कंट्रोल का सवाल है तो चीन लंबे समय से ऐसी सारी सामग्री सेंसर करता रहा है जिससे सरकार को कोई समस्या हो या उसमें चीन की नीतियों की आलोचना की गई हो। हालांकि चेहरे और निजी जानकारियों तक सरकारी पहुंच के मामले में लोगों के मन में एक डर भी है। चूंकि चीन में भी डाटा लीकेज की समस्या कायम है। इस वजह से लोगों के पास अनजान लोगों के काफी फोन आते हैं जिन्हें उनके बारे में सब कुछ पहले से मालूम रहता है। यानी समस्या फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक नहीं, दूसरे साइबर फर्जीवाड़े हैं। साफ है कि फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक आम नागरिकों से लेकर खास हस्तियों की सुरक्षा चाकचौबंद करती है और अपराध के मंसूबों पर पानी फेरती है।

कहां से आई फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक

यूं तो फेस रिकॉग्निशन सिस्टम एक अत्याधुनिक तकनीक है, लेकिन इसकी नींव कई दशक पहले अमेरिका में रखी गई थी। फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक के आविष्कार में अमेरिकी वैज्ञानिकों वूडी ब्लेडसोए, हेलेन चान वूल्फ और चाल्र्स बाइसन की अहम भूमिका है, जिन्होंने एक इंटेलिजेंस एजेंसी से मिले फंड के आधार पर इस तकनीक पर काम शुरू किया था। आरंभ में ब्लेडसोए ने कंप्यूटरों के जाल की मदद से एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने वाले लोगों के चेहरे (खासतौर से आंखों और मुंह) पर नजर रखना शुरू किया। अलग-अलग स्थानों पर स्थापित कंप्यूटरीकृत सिस्टम स्वचालित ढंग से ये पहचानें दर्ज करता था।

दशकों के अनुसंधान और लगातार प्रयोगों के बाद वर्ष 2006 में यह स्थिति आई, जब हाई रेजोल्यूशन फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक विकसित रूप में सामने आई। इसमें चेहरे की उच्च गुणवत्ता वाली तस्वीरों, चेहरे के थ्री-डी स्कैन और आंखों की पुतलियों (आइरिस) को मिलाकर किसी व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती थी। यह सिस्टम इतना दक्ष है कि इससे एक जैसे दिखने वाले जुड़वां लोगों की अलग-अलग पहचान की जा सकती है। बहरहाल आज चेहरा पहचानने वाली यह तकनीक डिजिटल तस्वीरों और वीडियो इमेज से बायोमीट्रिक तथ्यों का मिलान करते हुए हजारों लोगों के बीच में एक व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित कर सकती है। इस तकनीक को बायोमीट्रिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी कहा जाता है।

तकनीक से हिंसा पर लगाम की कोशिश

बायोमीट्रिक इंटेलिजेंस और फेशियल रिकॉग्निशन जैसे तकनीकी इंतजाम नए अवश्य हैं, पर सुरक्षा के स्तर पर पैदा हुई चुनौतियों के मद्देनजर देश ने सीखा है कि कैसे नए जमाने की तकनीक की मदद से संबंधित दिक्कतों का हल ढूंढा जा सकता है। सीसीटीवी कैमरों के संजाल और संवेदनशील इलाकों में ड्रोन की तैनाती ऐसे ही कुछ उपायों में हैं। जहां तक ड्रोन यानी मानवरहित विमानों की मदद से उत्पात मचाने वाले शरारती तत्वों और भीड़ पर काबू पाने की बात है तो देश में कई स्थानों पर ये उपाय आजमाए जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में ही शरारती तत्वों पर नजर रखने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया जा चुका है। हाल में दिल्ली के सीलमपुर इलाके में भी ड्रोन तैनात किए गए थे।

दिल्ली में ड्रोन का पहली बार प्रयोग वर्ष 2014 में छठ पूजा के दौरान भीड़ की निगरानी के लिए किया गया था। फिर जब अक्टूबर-नवंबर 2014 में यहां के त्रिलोकपुरी में माहौल कुछ बिगड़ा तो पुलिस ने पूरे इलाके की निगरानी के लिए चार-पांच ड्रोन आकाश में तैनात कर दिए थे। इसी तरह साल 2016 की शुरुआत में हुए जाट आंदोलन के दौरान बेकाबू हुए हालात के लिए किरकिरी झेल चुकी हरियाणा सरकार ने उसी वर्ष आंदोलनों की निगरानी करने के मकसद से पुलिस-प्रशासन को ड्रोन से लैस कर दिया, ताकि भीड़ जमा होने पर आंदोलनकारियों की आसमान से तस्वीरें ली जा सकें और जरूरत पड़ने पर उन्हें सुबूत के रूप में पेश किया जा सके। ऐसे ज्यादातर ड्रोन पुलिस ने कंपनियों से किराए पर लिए थे। दो मीटर लंबे, एक मीटर चौड़े और करीब दो किलोग्राम वजन के इन मानवरहित विमानों ने अपने कैमरों से पूरे इलाके की नजदीक से छानबीन की और वे तस्वीरें-वीडियो पुलिस कंट्रोल रूम में हाथों-हाथ पहुंचाईं। इससे पुलिस को शरारती तत्वों पर काबू पाने में काफी मदद मिली।

दो दिसंबर, 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में शामिल होने आए लोगों के चेहरों को फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक के इस्तेमाल से स्कैन किया गया। दरअसल इस तकनीक के बल पर जहां कानून-व्यवस्था बनाना आसान हो जाता है, वहीं किसी बड़े आयोजन में संलग्न पुलिस की मुश्किलें भी कम हो जाती हैं। यह भरोसा भी जगता है कि यदि कोई तत्व आयोजन में गड़बड़ी की कोशिश करता है तो उसे आसानी से पकड़ा जा सकता है।

[संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]

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