शिवकांत शर्मा : हर देश के इतिहास में कुछ ऐसे मोड़ आते हैं, जब सारे ग्रहयोग उसके अनुकूल हो जाते हैं, जो समस्त आंतरिक एवं बाहरी परिस्थितियों को अनुकूल बना देते हैं। भारत इस समय ऐसे ही ऐतिहासिक अमृतकाल में है। उसकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज है। विश्व का हर बड़ा देश और उनका खेमा उसे अपने साथ देखना चाहता है।

नई आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बनकर उभरा चीन शीतयुद्ध के बाद बनी एकध्रुवीय दुनिया में अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती देकर पूरे एशिया में अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहता है। इसलिए अमेरिका और उसके मित्र देश जापान और आस्ट्रेलिया आदि चाहते हैं कि भारत चीनी विस्तारवाद को रोकने में उनका साथ दे।

चीन चाहता है कि भारत अमेरिका की गुटबाजी से दूर रहे और एशिया को अमेरिकी वर्चस्व से मुक्त कराने में उसका और रूस का साथ दे। यूरोप चाहता है कि भारत यूक्रेन पर रूसी हमले की निंदा करे और रूस के विरुद्ध आर्थिक एवं कूटनीतिक लामबंदी में उसका साथ दे। दक्षिणी गोलार्ध के देश चाहते हैं कि भारत उत्तरी गोलार्ध के देशों से जलवायु न्याय दिलाने में उनका साथ दे। अपने-अपने हितों के लिए भारत की इस समय सबको जरूरत है।

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा इसी अनुकूल ग्रहयोग में हो रही है। यह उनकी पहली राजकीय यात्रा है। अमेरिका की राजकीय यात्रा का न्योता राष्ट्रपति के विशेष आग्रह पर और अमेरिका के बहुत ही अंतरंग एवं संधिमित्र देशों के राष्ट्राध्यक्षों को ही दिया जाता है। मोदी की यात्रा को राजकीय यात्रा का सम्मान देना संकेत देता है कि राष्ट्रपति बाइडन यूक्रेन पर रूसी हमले के विरोध में साथ न देने जैसी बातों को भुलाकर व्यापक सामरिक एवं आर्थिक हितों को देखते हुए संबंधों को और प्रगाढ़ करना चाहते हैं।

अमेरिका चीन का जोखिम कम करने के लिए भारत की मदद चाहता है। अमेरिका ने चीन को दुनिया की फैक्ट्री बनाकर एक ऐसा भस्मासुर तैयार कर लिया है, जिसके हाथों में ऐसी सप्लाई चेन है जिसके जरिये पूरी दुनिया में तैयार माल जाता है। कोविड महामारी के लाकडाउन और यूक्रेन युद्ध से साबित हुआ कि सप्लाई चेन का चालू रहना कितना जरूरी है और एक ही सप्लाई चेन पर निर्भरता कितनी खतरनाक होती है। इसलिए अमेरिका और यूरोप हिंदचीनी देशों और भारत को सप्लाई चेन का विकल्प बनाना चाहते हैं। वियतनाम जैसे हिंदचीनी देशों में चीन जैसी तानाशाही है और वे बहुत छोटे भी हैं, तो इसके लिए भारत को चुना जा रहा है।

अमेरिका-यूरोप के नेता अब अपनी कंपनियों को चीन छोड़ने के बजाय चीन के अतिरिक्त एक और देश में कारोबार की सलाह दे रहे हैं, जिसका अर्थ है भारत। भारत के पास ऐसे प्रशिक्षित लोगों की बड़ी संख्या है, जो अमेरिका-यूरोप की बड़ी-बड़ी कंपनियों को चलाती है। चीन दुनिया की फैक्ट्री है तो भारत उसका डिजाइनर और संचालन केंद्र, जिसके सहारे दुनिया चलती है। इसलिए भारत को सप्लाई चेन बनने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए, बशर्ते उसकी राज्य सरकारें अपने यहां निवेश एवं उद्यम को प्रोत्साहित करने वाला माहौल बना सकें।

भारत को जरूरत है तकनीकी सामरिक शक्ति और टोही क्षमता बढ़ाने की, ताकि वह चीन की विस्तारवादी हरकतों पर अंकुश लगा सके। ऊर्जा में आत्मनिर्भर बनने और करोड़ों युवाओं को प्रशिक्षित कर उनके लिए रोजगार के अवसर तैयार करना भी अहम है। अमेरिका से मारक ड्रोन खरीदने और लड़ाकू विमानों के जेट इंजन बनाने जैसे सौदों की जो बातें हो रही हैं, उनसे सामरिक शक्ति बढ़ाने की जरूरत तो कुछ हद तक पूरी हो जाएगी, लेकिन स्वच्छ ऊर्जा तकनीक हस्तांतरण और उसमें निवेश के बिना भारत ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। उसके बिना न तो उसके पास बुनियादी ढांचे में लगाने के लिए पर्याप्त पूंजी बचेगी और न उसकी रूसी तेल पर निर्भरता खत्म होगी। भारत का स्वच्छ ऊर्जा शक्ति बनना उसे चीन की तुलना में सप्लाई चेन का बेहतर विकल्प भी बनाएगा और विश्व की जलवायु के लिए भी यह अच्छा होगा।

मोदी की अमेरिका यात्रा पर चीन, रूस, यूरोप और शेष दुनिया की नजर लगी है। भारत की तरह यूरोप भी चीन से सीधी दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता, लेकिन वह चाहता है कि भारत यूक्रेन की अखंडता और प्रभुसत्ता पर हमला करने के लिए रूस की निंदा करे। अमेरिका इस समय भारत की विवशता को समझते हुए कुछ नहीं कह रहा। हालांकि, यदि रूस ने यूक्रेन पर संहारक अस्त्रों का प्रयोग किया या चीन ने ताइवान पर हमला किया तो क्या वह चुप रहेगा?

अमेरिका के ऊर्जा में आत्मनिर्भर बनने के बाद से सऊदी अरब चीन की तरफ झुकता जा रहा है, क्योंकि चीन उसका सबसे बड़ा ग्राहक और निवेशक बन गया है। यूक्रेन पर हमले के बाद रूस एवं चीन के रिश्ते और गहरे हो गए हैं। ईरान रूस को ड्रोन बेच रहा है। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन और मुखर होकर अमेरिका की आलोचना कर रहे हैं। यानी चीन के नेतृत्व में एक नया अमेरिका विरोधी खेमा तैयार हो रहा है, जिसमें रूस के अलावा उत्तरी कोरिया, ईरान, तुर्की और सऊदी अरब शामिल हो गए हैं। उधर रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों ने दक्षिणी गोलार्ध के देशों को उत्तरी गोलार्ध के देशों के समर्थन के बजाय प्रतिबंधों में शामिल न होने वाले चीन, भारत और ब्राजील जैसे देशों के साथ ला खड़ा किया है।

इन बदलते भूराजनीतिक समीकरणों में अमेरिका के लिए भारत की महत्ता और बढ़ गई है। अब देखना यह है कि मोदी भारत की इस अनुकूल परिस्थिति का कितना लाभ उठा पाते हैं और इस यात्रा में कितने अहम सौदे कर पाते हैं। पिछली सदी के नौवें दशक में चीन भी ऐसी ही अनुकूल स्थिति में था, जिसका लाभ उठाते हुए वह तानाशाही के बावजूद चार दशकों के भीतर विश्व की दूसरी महाशक्ति बन गया।

चीन की चुनौती का जवाब आर्थिक शक्ति बढ़ाकर ही दिया जा सकता है, जिसके लिए अमेरिका और यूरोप से निवेश एवं तकनीक चाहिए। अमेरिका यदि सच में चीन पर अंकुश लगाना चाहता है तो उसे भारत को अपने रक्षा, सेमीकंडक्टर और स्वच्छ तकनीक उद्योगों का डिजाइन और निर्माण केंद्र बनाना होगा। क्या बाइडन सरकार भारत की जरूरतें समझते हुए उस पर पूरा दांव खेलने के लिए तैयार है?

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)