मानव जीवन के लिए खतरा नहीं एआइ, वह संसार को मनुष्य की प्राकृतिक बुद्धि की तरह अनुभव नहीं कर सकती
एआइ केवल तर्क पर काम कर सकती है पर हम मनुष्य कहीं अधिक सूक्ष्म और जटिल जीव हैं। हम तर्कसंगत भी हैं और जानबूझकर अतार्किक भी। हमारे अंदर सुर भी हैं और असुर भी। मानव विशेषताओं की कई परते हैं जैसे-अंतर्ज्ञान भावना शरारत पूर्वाग्रह और हठधर्मिता इत्यादि।
सचिन श्रीधर : पिछले दिनों चैटजीपीटी के जनक सैम आल्टमैन ने कहा कि टेक कंपनियां जिस तरह एआइ (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता) के प्रयोग को तेजी से बढ़ावा दे रही हैं उससे दुनिया खतरे में पड़ सकती है। इसलिए सरकारों को इस पर नकेल कसनी होगी। यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि आज एआइ की हर तरफ चर्चा हो रही है, लेकिन इसके बारे में लोगों की समझ काफी कम है। उन्हें लग रहा है कि भविष्य का संसार एआइ ही चलाएगी।
इस धारणा की पुष्टि में विशेष प्रकार के साहित्य, फिल्मों और इंटरनेट मीडिया की भूमिका है। जैसे-रोबोट का राज आ जाएगा। कंप्यूटर सब नौकरी खा जाएंगे। कुछ लोग मिलकर सब चीजों को नियंत्रित कर लेंगे। आदि-इत्यादि। बहुत लोग यह भी मानते हैं कि एआइ के चलते सरकारों की अपने नागरिकों पर निगरानी बहुत बढ़ जाएगी या उससे भी बदतर हम बड़ी कंपनियों के दास बनते जाएंगे।
हालांकि, ये सभी धारणाएं पूर्णतया झूठी नहीं है, किंतु क्या सच में स्थिति इतनी डरावनी है या इस इंडस्ट्री से जुड़े कुछ लोग इसे इतना भयावह दिखा रहे हैं? जैसा होता है कि नई खोज के साथ उससे जुड़े लोग और कंपनियां उसके प्रभाव को कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही बताती हैं। यह उनके हितों के संदर्भ में स्वाभाविक भी है। यह सच है कि आज के युग में एल्गोरिदम आधारित एआइ युक्त मशीनें जैसे चैटजीपीटी काफी हद तक हमारे लिए निर्णय ले रहे हैं। हम टीवी पर क्या देखते हैं? दुकान से क्या खरीदते हैं? या कैसा संगीत सुनते हैं? हमारी आदतों को समझकर इनसे जुड़े तमाम निर्णय अक्सर एल्गोरिदम आधारित तकनीक ले रही हैं। ये एल्गोरिदम हमारे जीवन को धीरे-धीरे बदल रहे हैं, लेकिन उसे पूरी तरह समझ पाना अभी संभव नहीं है। संभव है कि इनका प्रचलन बढ़ने के साथ-साथ हमारी जागरूकता बढ़ेगी। तब ही तय होगा कि एआइ नए युग का काला जादू है या एक ऐसी तकनीक है जिसे अंतत: हम मनुष्य ही हांकेंगे।
एआइ केवल तर्क पर काम कर सकती है, पर हम मनुष्य कहीं अधिक सूक्ष्म और जटिल जीव हैं। हम तर्कसंगत भी हैं और जानबूझकर अतार्किक भी। हमारे अंदर सुर भी हैं और असुर भी। मानव विशेषताओं की कई परते हैं जैसे-अंतर्ज्ञान, भावना, शरारत, पूर्वाग्रह और हठधर्मिता इत्यादि। जबकि एआइ युक्त मशीन के पास ये गुण नहीं हैं। वह केवल गणित, डाटा और तर्क पर ही आधारित है।
एआइ तकनीक हमेश ‘स्थिर दुनिया’ के सिद्धांत पर काम कर सकती है। अगर कोई भी समस्या जहां नियम परिभाषित हैं, हालात स्थिर हैं और उनका हल निकालने के सिद्धांत सटीक हैं तो एआइ लाखों-करोड़ों आंकड़ों का विश्लेषण चुटकी में कर किसी भी प्रज्ञावान समूह को परास्त कर देगी, लेकिन जीवन की सभी समस्याएं हर बार गणित में तो नहीं बदली जा सकतीं। अधिकतर मुद्दों में अगर तर्क है तो कुतर्क भी है और वितर्क भी। बेतुके लोग भी होते हैं। भावनाएं भी जुड़ जाती हैं। चूंकि वास्तविक जीवन हमेशा गणित की तरह चलता नहीं, तो जैसे ही हम स्थिर दुनिया के सिद्धांत से थोड़ा सा हटे तब एआइ भी डगमगा जाएगी।
उदाहरण के लिए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1992 में बिहार में एक रैली के दौरान कहा था कि ‘कोई नहीं है रास्ता अब खाना पड़ेगा पास्ता?’ इस वाक्य के जरिये अटल जी उस समय की राजनीतिक स्थिति और देश के सामने मौजूद चुनौतियों के स्पष्ट समाधान की कमी पर अपनी निराशा व्यक्त कर रहे थे। यह तबसे भारत में एक लोकप्रिय सांस्कृतिक संदर्भ बन गया है और अक्सर उन स्थितियों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जहां कोई असहाय महसूस करता है। एआइ युक्त चैटजीपीटी से इस वाक्य के बारे में पूछा गया तो वह कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे सका और एक भूलभूलैया में उलझ गया।
वास्तव में करोड़ों डाटा बिंदुओं को जोड़कर, व्याकरण के नियमों के हिसाब से उत्तर तो कंप्यूटर दे सकता है, पर वह स्वयं उस उत्तर को समझ नहीं सकता। यानी कंप्यूटर कुल मिलाकर अत्यंत प्रभावशाली गणना मशीन है बस। एआइ में करोड़ों कंप्यूटर एक साथ आपकी पूछी समस्या का हल एकजुट होकर खोजने हेतु एक साथ टूट पड़ते हैं। हल निकाल भी लेते हैं, लेकिन उस हल को समझने की क्षमता उनके पास नहीं है। मनुष्य ने पृथ्वी पर यूं ही राज स्थापित नहीं कर लिया है। शेष जीव-जंतुओं की तुलना में सबसे अधिक और सबसे जल्दी मनुष्य ने ही सीखा और धीरे-धीरे पृथ्वी ‘होमो-सेपियंस’ यानी मनुष्य के आधिपत्य में आ गई। यकीन मानिए एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब हम यह देखकर समझ जाएंगे कि कौन-सी चीज पूरी तरह कंप्यूटर के इस्तेमाल से बनी है और किसमें कंप्यूटर के ‘इनपुट’ के साथ में प्रकृति से मिली मानव बुद्धि का भी योगदान है।
एआइ वहां काम करती है जहां नियम परिभाषित होते हैं और स्थिति स्थिर होती है। वह संबद्धता और सह-संबंधता द्वारा काम करती है और जैसे कि ऊपर पूछे गए प्रश्न में ‘पास्ता’ और भारत के किसी ‘जन-नेता’ का कोई संबंध ही नहीं है तो कंप्यूटर को इतनी समझ नहीं है कि वह कहे, ‘यह क्या बेतुके सवाल पूछ रहे हैं आप?’ उसकी यह क्षमता नहीं है कि वह स्वयं समझ सके कि उसका उत्तर असंगत, मूर्खतापूर्ण है या फिर हास्यस्पद। एआइ समझने योग्य पाठ तो लिख सकती है, वीडियो बना सकती है, पेंट कर सकती है, सुझाव देने आदि में सक्षम हो सकती है, पर वह संसार को मनुष्य की प्राकृतिक बुद्धि की तरह न समझ सकती है, न अनुभव कर सकती है और न ही ग्रहण कर सकती है। सामान्य ज्ञान चाहे अधिक हो पर अंतर्ज्ञान, भावनात्मक बुद्धिमत्ता और प्रासंगिकता केवल मानव के पास है और रहेगी। तो जिस मानव की सूझबूझ ने ही इस एआइ को जन्म दिया है उसकी बुद्धि इस उत्पादित बुद्धि से सदैव दो पायदान आगे ही रहेगी।
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी हैं)
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