दूसरों की राह से कांटे चुन रहा सूचना का ये सिपाही
आरटीआइ कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह थापा ने अपना जीवन जनपथ के कांटे चुनने में समर्पित कर दिया है। सूचना के अधिकार (आरटीआइ) को अपना औजार बनाया है।
देहरादून, [सुमन सेमवाल]: 'यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।' मैथलीशरण गुप्त की रचना की इन पंक्तियों की तरह ही आरटीआइ कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह थापा ने अपना जीवन जनपथ के कांटे चुनने में समर्पित कर दिया है। इस मुहिम में उन्होंने सूचना के अधिकार (आरटीआइ) को अपना औजार बनाया है।
केदारनाथ आपदा में प्राणों की बाजी लगाने वाले एनडीआरएफ-आइटीबीपी के जांबाजों को वाजिब सम्मान दिलाने का मामला हो या बेसहारा-मानसिक रूप से बीमार लोगों के पुनर्वास का प्रयास या फिर दशकों से उत्तराखंड में रह रहे नेपाली मूल के गोर्खाली समुदाय के लोगों को उनका वाजिब हक दिलाने की कोशिश। सूचना का यह सिपाही आरटीआइ के औजार से सिस्टम के ऐसे ही बंद दरवाजों खोलने में जुटा है।
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आपदा के जांबाजों को दिलाया सम्मान
वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा में लोगों की जान बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए एनडीआरएफ (नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स) व आइटीबीपी (इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस) के 15 जवानों को शहीद का दर्जा देने से केंद्र सरकार ने इन्कार किया तो पंडितवाड़ी (देहरादून) निवासी आरटीआइ कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह थापा ने इन वीरों को उनका वाजिब सम्मान दिलाने का बीड़ा उठाया।
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थापा ने गृह मंत्रालय से इस बारे में आरटीआइ में जानकारी मांगी। गृह मंत्रालय के जवाब में यह चौंकाने वाली बात सामने आई कि उनके पास शहीद शब्द तक की परिभाषा भी नहीं है। इसके खिलाफ वह केंद्रीय सूचना आयोग तक पहुंचे।
मामला मीडिया की सुर्खियां भी बना और सरकार की खूब किरकिरी हुई। फिर रास्ता निकाला गया कि देशवासियों के सर्वोच्च बलिदान देने वाले जांबाजों को राष्ट्रपति पुलिस मेडल ऑफ गैलेंटरी से सम्मानित किया जाएगा।
बेसहारों के लिए बनाए गए नोडल अधिकारी
जनपथ की राह पर अग्रसर सूचना के सिपाही के कांटे चुनने का यह अकेला उदाहरण नहीं है। सड़कों पर भटकते जिन बेसहारा और मानसिक रोगियों को हेय दृष्टि से देखकर लोग अकसर आगे बढ़ जाते हैं, सुरेंद्र सिंह थापा का उनसे भी गहरा नाता है।
इनके मानवाधिकारों को लेकर उन्होंने आरटीआइ में सूचनाएं एकत्रित कीं और हाईकोर्ट को प्रेषित किया। सूचनाओं को जनहित याचिका के रूप में स्वीकार कर कोर्ट ने राज्य सरकार को पक्षकार बनाया।
इसका असर यह हुआ कि बेसहारा व मानसिक रूप से बीमार लोगों के पुनर्वास आदि के लिए राज्य के सभी 13 जनपदों के जिलाधिकारियों को नोडल अधिकारी बनाया गया।
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नमामि गंगे में बड़ा योगदान
केंद्र की 'नमामि गंगे' योजना में गंगा व उसकी सहायक नदियों में गंदगी उड़ेलने वाले नगरों की जो सूचना राज्य सरकार ने केंद्र को भेजी, उसे भी आरटीआइ कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह थापा की देन कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नमामि गंगे योजना से काफी पहले वर्ष 2012-13 में थापा ने आरटीआइ में गंगा को प्रदूषित करने वाले स्रोतों-नगरों की सूचना मांगी थी। दर्जनों कार्यालयों में सूचना लगाकर उन्होंने 90 पृष्ठों की सूचना एकत्रित कर शहरी विकास सचिव को सौंपी थी। इसी के आधार पर राज्य सरकार ने अपनी रिपोर्ट भी तैयार की।
गोर्खाली समुदाय के बने पैरोकार
वर्ष 2010 में जारी एक शासनादेश की अस्पष्टता के चलते उत्तराखंड में दशकों से रह रहे नेपाली मूल के गोखाली समुदाय के हजारों लोगों के राशन कार्ड समेत मतदाता पहचान पत्र, जाति व निवास प्रमाण जैसे दस्तावेज बनने बंद हो गए थे।
थापा ने इसे अपनी लड़ाई बनाते हुए भारत-नेपाल की वर्ष 1950 की संधि के वह दस्तावेज सरकारी फाइलों से बाहर निकाले, जिसमें नेपाली मूल के गोर्खाली समुदाय के लोगों को तमाम अधिकार दिए गए हैं। इसके आधार पर मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने वर्ष 2015 में आदेश जारी कर सभी जिलाधिकारियों को मतदाता पहचान पत्र बनाने के आदेश दिए। इसके बाद सामान्य प्रशासन विभाग ने भी आदेश जारी किया कि गोर्खाली समुदाय के लोगों के बच्चों के स्थाई निवास प्रमाण पत्र बनाए जाएं।
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