है ऐसा कोई फॉर्मूला जो रूसा को पास करे?
हिमाचल प्रदेश में रूसा यानी राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान की चीखोपुकार के बीच फेल हो रहे छात्रों को पास करने की हरी झंडी दिखाकर चुप करवाने के फरमान ने राज्य की शैक्षणिक गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं।
डॉ. रचना गुप्ता : हिमाचल प्रदेश में रूसा यानी राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान की चीखोपुकार के बीच फेल हो रहे छात्रों को पास करने की हरी झंडी दिखाकर चुप करवाने के फरमान ने राज्य की शैक्षणिक गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। यूं तो रूसा का मूल मकसद यही था कि शिक्षा का स्तर बेहतर बने, लेकिन असलियत यह है कि कालेज के पहले सेमेस्टर में केवल 20 फीसद बच्चे ही पास हो सके हैं, बाकी के फेल होने वाले 80 प्रतिशत को उत्तीर्ण करवाना है, इसलिए फेल होने का अंक स्तर बदल दिया गया। यह बेहद चिंताजनक है।
उससे भी खतरनाक स्थिति यह है कि उच्च शिक्षा निदेशक दिनकर बुराथोकी स्वयं यह स्वीकारते हैं कि पहले सेमेस्टर में तो औसतन 15 प्रतिशत ही पास हो कर दूसरे सेमेस्टर की सीढ़ी चढ़ते हैं। लेकिन फिर भी उन्हें फेल नहीं माना जाता बल्कि रिअपियर यानी पुन: परीक्षा में प्रस्तुत होने का एक बार नहीं बार-बार मौका दिया जाता है। फिर भी इस हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से संबद्ध 115 सरकारी व 40 गैर सरकारी कालेजों को इसलिए नाज है क्योंकि यह ऐसा संस्थान है जहां डिग्रियां बांटने देश के राष्ट्रपति तक आते हैं।
रूसा के आईने से साफ होता धूल धक्कड़ झांक-झांक कर स्तरीय शिक्षा की दुखद दास्तां बयां कर रहा है।
दरअसल रूसा पर छात्रों की बेबसी का मंजर यूं भी है क्योंकि इंटरनल असेसमेंट का फार्मूला उन्हें शिक्षकों की बेडियों में जकड़े हुए है। ठेके पर हो या नियमित या पीटीए के मार्फत लगे कुल 2200 कालेज लेक्चरर। 45 फीसदी आंतरिक मूल्यांकन के कारण विद्यार्थी, अध्यापक के रहमोकरम पर हैं। जबकि इतना ही उन्हें लिखित परीक्षा में प्राप्त करना है। इसी का दूसरा पहलू यह भी है कि क्या छात्र अध्यापक की आंतरिक असेसमेंट पर इतना निर्भर हो गए हैं कि थ्योरी में पास होना लाजिमी नहीं समझते?
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केंद्र से मिलने वाली वित्तीय सहायता की आस में तुरत-फुरत रूसा हिमाचल में लागू तो हो गया लेकिन किसी भी स्तर पर व्यावहारिक समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया गया। चूंकि मूल्यांकन कालेज स्तर पर होता है और कालेजों के करीब डेढ़ लाख बच्चों का नतीजा बंडल में दस्तावेज होकर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय समरहिल पहुंचता है। यूं तो दावा डिजिटल डाटा को रखने का भी है। लेकिन छात्रों के लिए पारदर्शिता का कोई पैमाना ही नहीं है।
पास होने का फार्मूला बदलने की फितरत ने भी कई विवादों को जन्म दिया है। कभी पास होने के लिए इंटरनल असेसमेंट व थ्योरी को मिला कर 35 फीसद कर दिया जाता है तो कभी इसे अलग मापदंडों में मापा जाता है। छात्रों का हल्ला इसलिए भी वाजिब है क्योंकि पास होने का नया फार्मूला उन्हें बताया ही नहीं गया। अब शासकीय तर्क यह है कि जब खराब रिजल्ट हो रहा हो तो तय सीमा अंक घटा दिए गए जाएं। दिनकर कहते हैं- 'यह एक्सेपशनल केस में होता है। ट्रेंड नहीं बन सकता। लेकिन तर्क यह भी है कि अन्य परीक्षाओं में फेल होने वाले छात्रों को पास करने के लिए यही उदाहरण आधार बनेगा, फिर विद्यार्थियों को शोर-शराबा करके पास होने की आदत क्यों न पड़े?
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बहरहाल यह गौर हो कि कालेजों में छात्रों का यह खराब प्रदर्शन क्या हो रहा है? क्या शिक्षक नतीजे नहीं दे पा रहे? क्या शैक्षणिक व्यवस्था लचर हो गई है? क्या स्कूल स्तर से ही गुणात्मक शिक्षा के दौर से छात्र आगे नहीं निकल रहा? हर स्तर पर आत्मचिंतन की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में उपाधियां देने वाली नामचीन हस्तियां यहां आने का नाम ही न लें।
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