Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    एसेंबली इलेक्शनः गुड गवर्नेंस पर सरकार और दल का ये कैसा डर

    By BhanuEdited By:
    Updated: Wed, 08 Feb 2017 02:30 AM (IST)

    उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में अहम सवाल ये है कि गुड गवर्नेंस की आम आदमी की चाह से आखिरकार सियासी दल और तंत्र इतना डरता क्यों है। यह भी पढ़ें: विधानसभा इलेक्शनः बोले खंडूड़ी, टिकट वितरण में अपनाया राजनीतिक दृष्टिकोण

    एसेंबली इलेक्शनः गुड गवर्नेंस पर सरकार और दल का ये कैसा डर

    देहरादून, [रविंद्र बड़थ्वाल]: सिर पर छत की आस में एक अदद आशियाने की चाह हो या नया राशन कार्ड बनवाना हो या बिजली-पानी का कनेक्शन लेना, या आमदनी, जाति, मूल निवास प्रमाणपत्र हों या वृद्धावस्था, निराश्रित विधवा, या अन्य तमाम तरह की पेंशन के लिए पात्रता हासिल करनी हो, सरकारी महकमों में एड़ियां रगड़े बगैर ये कोई भी काम आसानी से होना मुमकिन नहीं हैं।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    ये हाल तब है, जबकि कई महकमों में जन सेवाएं मुहैया कराने के लिए तय समय अवधि मुकर्रर है। सरकार और जन सेवा से जुड़े महकमों के दावे और कागजी प्रावधान बड़े-बड़े हैं, लेकिन जमीनी हकीकत में आम आदमी जितने पापड़ बेलने को मजबूर है, वह दम फुलाने को काफी है।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड चुनाव: कांग्रेस पर आयोग सख्त, बेरोजगारी भत्ता कार्ड पर रोक

    जी हां, यहां हम बात कर रहे हैं गुड गवर्नेंस की। छोटे राज्य उत्तराखंड में गुड गवर्नेंस मृग मरीचिका होकर रह गया है। सत्ता हासिल करने के लिए सियासी दल इस मरीचिका को दिखाकर नौकरशाही व लालफीताशाही के फेर में पिसती-खिंचती जनता को बेहतर सेवाएं देने की उम्मीद जगाते हैं, लेकिन सत्ता हाथ में आने के बाद ये सारी उम्मीदें छलावा ही साबित हो रही हैं।

    सेवा के अधिकार और सिटीजन चार्टर के मामले में ऐसा ही कुछ हुआ है। मौजूदा सरकार पूरे पांच साल गुजारने के बाद भी सिटीजन चार्टर लागू नहीं कर पाई है। पांचवें और आखिरी साल की अंतिम छमाही में सिटीजन चार्टर चार माह के भीतर लागू करने के लिए महकमों को फरमान जारी किया जा सका।

    सेवा का अधिकार एक्ट लागू है, लेकिन इसके लिए गठित आयोग अभी तक सूचना आयोग की तर्ज पर अधिकार पाने के लिए खुद एड़ियां रगड़ रहा है। सेवा का अधिकार की तरह ही खाद्य आयोग का हाल है तो ई-गवर्नेंस, ई-प्रोक्यारेमेंट, ट्रांसफर पालिसी की पारदर्शिता पर सियासी तुष्टिकरण और मोल-भाव हावी है तो लोकायुक्त से लेकर सीएजी की रिपोर्ट पर सत्तारूढ़ दल और सरकार अपने बदहाल तंत्र को डराते के बजाए लीपापोती में जुटे दिखते हैं।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड चुनाव: देवभूमि में मोदी मैजिक पर टिकी भाजपा की आशाएं

    उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में अहम सवाल ये है कि गुड गवर्नेंस की आम आदमी की चाह से आखिरकार सियासी दल और तंत्र इतना डरता क्यों है। नागरिक केंद्रित प्रशासन की बार-बार जनता के बीच से उठने वाली आवाज नक्कारखाने में तूती कब तक साबित होती रहेगी? सरकार ने पूरे पांच साल तय कर लिए, लेकिन गुड गवर्नेंस के सवालों के जवाब जनता को नहीं मिल सके।

    राज्य गठन के सत्रहवें वर्ष में दाखिल हो चुका उत्तराखंड चौथे विधानसभा चुनाव के मौके पर गुड गवर्नेंस पर सब्जबाग नहीं, बल्कि ठोस जवाब के लिए दलों को कसौटी पर कसे तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।

    लटका रह गया सिटीजन चार्टर

    राज्य में जन सेवाओं के लिए सरकारी दफ्तरों में आम आदमी परेशानी झेलने को बाध्य है। इससे सबसे अधिक त्रस्त गरीब जनता है। जन सेवाओं की जवाबदेही को लेकर सरकारी तंत्र पर शिकंजा कसने को सिटीजन चार्टर (नागरिक अधिकार पत्र) लागू होने की उम्मीद अभी पूरी नहीं हो पाई है।

    बीते अगस्त माह में सभी विभागों व उनके अधीन स्थापित निदेशालयों, दफ्तरों, संस्थानों, निगमों, स्वायत्तशासी संस्थाओं, परियोजना प्रबंधक इकाइयों को चार माह की अवधि में अनिवार्य रूप से सिटीजन चार्टर बनाकर वेबसाइट पर प्रकाशित करने के निर्देश दिए गए थे, लेकिन अभी जन सेवा पोर्टल विकसित नहीं हो पाया है।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव: 'हाथी' दे रहा 'हाथ' को चुनौती

    तंत्र की गंभीरता का अंदाजा इससे लग सकता है कि जन सेवाओं को पारदर्शिता, जवाबदेही और संवेदनशीलता के साथ अंजाम देने के लिए जरूरी सिटीजन चार्टर को लेकर अधिकतर सरकारी महकमे चुप्पी साधे बैठे हैं।

    अभी तक 17 महकमों की 150 सेवाएं ही सेवा का अधिकार कानून के दायरे में आई हैं, जबकि सिटीजन चार्टर अस्तित्व में आया तो छोटी-बड़ी मिलाकर 500 से अधिक सेवाएं इसके दायरे में आ जाएंगी।

    यह भी पढ़ें: एसेंबली इलेक्शन: कांग्रेस-भाजपा, वोट पर हक के अपने-अपने दावे

    महकमों के लिए यूं रखा गया है रोडमैप

    -प्रत्येक विभाग के प्रमुख सचिव या सचिव शासन स्तर पर नोडल अधिकारी नामित कर विभागीय टास्क फोर्स गठित करेंगे, प्रत्येक माह सिटीजन चार्टर की तैयारी का अनुश्रवण होगा।

    -सिटीजन चार्टर कंसल्टेटिव मोड में बनेगा, इसके लिए निदेशालयों, कार्यालयों, संस्थानों, निगमों, स्वायत्तशासी संस्थाओं का कोर ग्रुप बनेगा, ग्रुप में नागरिकों, स्वैच्छिक संगठनों और सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि शामिल रहेंगे।

    -कोर ग्रुप चिह्नित सेवाओं के लिए सिटीजन चार्टर तैयार करेगा और क्रियान्वयन के दौरान अनुश्रवण करेगा।

    यह भी पढ़ें: विधानसभा चुनाव 2017: पीडीएफ का पैमाना केवल हरदा

    समाधान पोर्टल: महकमे ढुलमुल

    सिटीजन लागू करने में हीलाहवाली के बीच सरकार ने विभिन्न विभागों से जुड़ी समस्याओं के ऑनलाइन निस्तारण के लिए समाधान पोर्टल शुरू किया। इसके जरिए शिकायतें दर्ज तो हुईं, लेकिन महकमों की कार्यप्रणाली दुरुस्त हो पाई हो, ऐसा दिखना बाकी है।

    सरकार की तमाम कोशिश के बावजूद मसूरी देहरा विकास प्राधिकरण एक महीने में भवन मानचित्र को मंजूरी देने के प्रावधान पर शायद ही गंभीरता से अमल कर पाया है। तमाम विकास प्राधिकरणों की कार्यप्रणाली कमोबेश इस खामी से उबर नहीं पा रही है।

    यह भी पढ़ें: विधानसभा चुनाव: उत्तराखंड की 70 सीटों पर 636 के बीच मुकाबला

    खाद्य आयोग: राहत को लंबा इंतजार

    प्रदेश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू किए जाने के साथ ही खाद्य आयोग भी अस्तित्व में आ चुका है। इस आयोग के गठन का उद्देश्य खाद्य सुरक्षा अधिनियम के क्रियान्वयन को फुलप्रूफ बनाना है। साथ ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के दायरे में आने वाले कमजोर व वंचित वर्गों को राशन कार्ड के साथ ही सरकारी सत्ता खाद्यान्न मिलने में पेश आने वाली दिक्कतों का समयबद्ध निस्तारण करना है।

    आयोग बनने के बाद सेवानिवृत्त नौकरशाहों की ताजपोशी कर दी गई, लेकिन आयोग अधिनियम के उद्देश्यों के मुताबिक अपने कामकाज को व्यवस्थित नहीं कर सका। जाहिर है कि इससे उपभोक्ताओं को भी अपेक्षा के मुताबिक राहत मिलने के लिए इंतजार करना होगा।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड चुनाव: 24 बागी छह साल के लिए कांग्रेस से निष्कासित

    आरटीआइ: पारदर्शिता नहीं मजबूरी

    राज्य सूचना आयोग को केंद्रीय एक्ट के मुताबिक अधिकार तो दिए गए हैं, लेकिन सरकारी मशीनरी एक्ट की भावना के मुताबिक अपने कामकाज के तौर-तरीकों में पारदर्शिता अब तक नहीं ला पा रही है। महकमों की ओर से पारदर्शी तरीके से सूचनाएं मुहैया कराने में हीलाहवाली अब भी दिखाई देती है।

    हाल ये रहा कि आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के दो पद लंबे अरसे से रिक्त रहे। लंबे समय बाद मुख्य सूचना आयुक्त का पद तो भरा गया, लेकिन दो आयुक्तों के पद को भरने की कार्यवाही आचार संहिता लागू होने के बाद अमल में लाई जा सकी। लिहाजा इसमें पेच फंसा हुआ है।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड चुनाव: भाजपा को कई सीटों पर काडर के साथ का इंतजार

    ई-गवर्नेंस-ई-प्रोक्योरमेंट में खामी

    उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से ई-गवर्नेंस को गुड गवर्नेंस का पर्याय माना जा रहा है। लेकिन, इसकी रफ्तार सुस्त है। जिला मुख्यालयों से लेकर निदेशालयों, सरकारी महकमों के दफ्तरों, सचिवालय और मंडलायुक्त कार्यालयों में ई-गवर्नेंस के अभाव में फाइलें लंबा चक्कर काटने को मजबूर हैं।

    सरकारी आदेश भी सचिवालय से मुख्यालयों और दफ्तरों तक पहुंचने में लंबा वक्त ले रहे हैं। हालांकि, सरकार ई-गवर्नेंस को अपनी प्राथमिकता में शुमार कर रही है, लेकिन पारदर्शिता को लेकर सियासतदां से लेकर नौकरशाहों में हिचक के चलते ई-गवर्नेंस की राह में अड़चनें ही अड़चनें हैं। कमोबेस यही हाल ई-प्रोक्योरमेंट का भी है।

    तबादला नीति पर हावी चहेते

    अधिकतर पर्वतीय भूभाग वाले उत्तराखंड राज्य में अब भी पर्वतीय क्षेत्रों में पोस्टिंग को पनिशमेंट के तौर पर लिया जा रहा है। शिक्षक हों या चिकित्सक, कोई भी पर्वतीय, दूरदराज और दुर्गम क्षेत्रों में जाने को तैयार नहीं है। हालत ये है कि पर्वतीय क्षेत्रों की जरूरत को ध्यान में रखकर की जाने वाली रिक्तियों को जिद्दोजहद के बाद भरा तो जा रहा है, लेकिन एक बार नियुक्ति हासिल करने के बाद कार्मिकों में सुविधाजनक क्षेत्रों का रुख करने की होड़ लग रही है।

    शिक्षकों के तबादलों के लिए बमुश्किल तबादला नियमावली बनाई गई, लेकिन पहले उसके सख्त प्रावधानों को ढुलमुल किया गया तो बाद में सरकार के आखिरी साल में चुनाव आचार संहिता से ऐन पहले सत्ताधीशों के चहेतों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े पैमाने पर तबादले किए गए।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड चुनाव: वीके सिंह बोले, पहाड़ में रोजगार, पेयजल व चिकित्सा सबसे बड़ी समस्याएं

    प्राथमिक, माध्यमिक से लेकर उच्च शिक्षा में सियासी रसूखदार तबादलों में राहत पाने में कामयाब रहे, जबकि आम शिक्षक इससे साफतौर परेशान रहा। चिकित्सकों के मामले में हाल और बुरा है। सरकार प्रभावशाली चिकित्सकों के आगे नतमस्तक नजर आई। दूरदराज में खाली पड़े स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सक तो दूर की बात, फार्मासिस्ट और नर्सिंग स्टाफ तक पर्याप्त संख्या में तैनात नहीं है। इस रोक की चपेट में अब सभी महकमे हैं।

    विजिलेंस यानी मनमुताबिक जांच

    गुड गवर्नेंस की अहम कड़ी सरकारी कामकाज में अनियमितता पर नजर रखना और ऐसे मामले पकड़ में आने के बाद उन पर त्वरित कार्रवाई। इसके लिए विजिलेंस के रूप में सरकारी तंत्र मौजूद है। लेकिन, यह तंत्र सूचनाओं को एकत्र करने और अनियमितताओं, घपलों के मामलों में निर्णायक भूमिका निभाने को लेकर पंगु बना हुआ है।

    भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के सरकार और सत्तारूढ़ दलों के दावे अभी तक सिर्फ सफेद हाथी साबित हुए हैं। विजिलेंस पर सियासी पहरा साफतौर पर बना हुआ है।

    सीएजी-लोकायुक्त की रिपोर्ट बेमायने

    सूबे में 16 साल के वक्फे में भ्रष्टाचार सफेदपोशों के सरंक्षण में ही फूला-फला। लोकायुक्त से लेकर सीएजी रिपोर्ट में इसकी तस्दीक हुई। लेकिन एक्शन के नाम पर महज सियासी ड्रामा देखने को मिला। आती-जाती सरकारों में सफेदपोशों का चरित्र नहीं बदला।

    बेशक किरदार बदले और चेहरे भी। निचले स्तर पर सरकारी दफ्तरों में तहसील, जिला मुख्यालय, कोषागार के कार्मिक हों या कार्यदायी, निर्माण एजेंसियों के जूनियर इंजीनियर से लेकर विभागाध्यक्ष, उन्हें भ्रष्टाचार को पालने-पोषने के लिए आला नौकरशाही और पार्षदों से लेकर उच्च स्तर पर माननीयों का वरदहस्त मिलता रहा है। 'ठेकेदार प्रेम' में डूबकर सरकारी महकमे निर्माण और विकास कार्यों में नियम-कानूनों को ताक पर प्रदेश को करोड़ों का चूना लगा रहे हैं।

    इसकी तस्दीक सीएजी की रिपोर्ट कई दफा कर चुकी है। निर्माण कार्यों में मानकों को ताक पर रखने का नतीजा पुलों के गिरने के रूप में सामने आ चुका है।

    यह भी पढ़ें: उत्तराखंड चुनावः घोषणाओं के पहाड़ तले सिसकता बजट

    लागू नहीं हुआ स्व सत्यापन

    केंद्र सरकार ने महत्वपूर्ण फैसले में प्रमाणपत्रों के सत्यापन के लिए स्व सत्यापन को पर्याप्त मान लिया है, लेकिन यह व्यवस्था उत्तराखंड लागू नहीं कर पाया है। इससे युवाओं को खासी परेशानी उठानी पड़ रही है। हालांकि, राज्य प्रमाणपत्रों की सत्यापन की जिस मौजूदा व्यवस्था में चल रहा है, उसके तहत शिक्षकों से लेकर विभिन्न महकमों में नियुक्तियों में फर्जीवाड़े के मामले सामने आ चुके हैं।

    जाहिर है कि जिम्मेदार अधिकारियों से सत्यापन के बावजूद प्रमाणपत्रों के फर्जीपने पर रोक नहीं लग पा रही है। चूंकि, केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें हैं, लिहाजा राज्य सरकार ने इसे लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई।

    मंत्रिमंडल में खींचतान

    राज्य गठन से लेकर अब तक यानी मौजूदा कांग्रेस सरकार में मंत्रिमंडल के बीच खींचतान के चलते गुड गवर्नेंस पर पानी ही फिरा है। मंत्रिमंडल में सामुदायिक दायित्व बोध के बजाए एकदूसरे से ज्यादा असरदार दिखने या एकदूसरे को कमतर दिखाने की प्रतिस्पर्धा का नतीजा आपसी अविश्वास की खाई के रूप में कई मर्तबा सामने आ चुका है।

    हाल ये है कि मंत्रिमंडल के सदस्य मंत्रिमंडल में हुए फैसलों में खामी या अनियमितता सामने आने पर एकदूसरे पर अंगुली उठाने से गुरेज नहीं कर रहे। उत्तराखंड कलेक्टिव रिस्पॉंसिबिलिटी की कमी का नमूना बनकर उभरा है।

    उत्तराखंंड चुनाव से संबंधित खबरों केे लिए यहां क्लिक करेंं--