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    UP Assembly Election : यूपी में मुस्लिम वोटर को लेकर राजनीतिक दल बेहद फिक्रमंद

    By Dharmendra PandeyEdited By:
    Updated: Thu, 19 Jan 2017 03:50 PM (IST)

    विधानसभा चुनावों की सरगर्मी जरूर बढ़ी है लेकिन अभी मुस्लिम मतों में रणनीतिक चुप्पी है। शायद इसी कारण इस वर्ग के वोटों के बूते 'राज' करने वाले दल हलकान हैैं।

    UP Assembly Election : यूपी में मुस्लिम वोटर को लेकर राजनीतिक दल बेहद फिक्रमंद

    लखनऊ। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटर किधर जाएगा। यह फिक्र चुनावी मैदान में उतरे कई राजनीतिक दलों की है।

    मुसलमानों की बेचैनी यह कि दस संसदीय क्षेत्रों में 35 फीसद आबादी होने के बाद भी लोकसभा में उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की नुमाइंदगी 2014 में शून्य क्यों हुई। यही सवाल है जिसने उसे बेचैन कर रखा है और उसके इसी सवाल का जवाब देने की बेचैनी में सपा, कांग्र्रेस और बसपा में मुसलमानों को अपनी ओर करने की खींचतान है। विशेष संवाददाता परवेज अहमद की रिपोर्ट।

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    विधानसभा चुनावों की सरगर्मी जरूर बढ़ी है लेकिन अभी मुस्लिम मतों में रणनीतिक चुप्पी है। शायद इसी कारण इस वर्ग के वोटों के बूते 'राज' करने वाले दल हलकान हैैं। पर, नए दौर के मुसलमानों का मिजाज समझने वाले कहते हैैं कि अबकी बार किसी को जिताने-हराने के लिए मुसलमान बूथ पर नहीं जाएगा। वह यह देखेगा कि सियासत, कारोबार, पढ़ाई, इंसाफ में कौन सा दल कितना हिस्सा दे रहा है। इसकी एक वजह इस चुनाव में ऐसे किसी नेता का न होना भी होगा, जिसकी शिनाख्त मुसलमानों की रहनुमाई वाली हो।

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    विधानसभा चुनाव के वर्ष 2017 के आगाज के साथ मुस्लिम सियासत ने तेजी पकड़ ली है। मुस्लिम वोटों की छीना-झपटी को बसपा, कांग्रेस, सपा के साथ कुछ क्षेत्रीय दल जोर आजमाइश में है। बरसों सेमुस्लिम सियासत में सबसे ज्यादा दखल समाजवादी पार्टी का रहा है। मगर इस बार इस दल के मुखिया मुलायम सिंह नहीं, उनके बेटे अखिलेश यादव हैैं।

    मुस्लिमों के प्रति जिनके रुख का इम्तिहान अभी बाकी है। हालांकि वह कांग्रेस व रालोद के साथ नया सियासी सफर शुरू करने का संकेत कर रहे हैैं और इसे सेकुलर राजनीति केगठबंधन का नाम भी मिल सकता है। मगर अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाने व बाबरी ध्वंस (विवादित ढांचा) के समय केन्द्र में कांग्रेस सरकार रहने का 'दाग' इससे धुला नहीं है।

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    केन्द्र की सत्ता में 2004 से 2014 तक रही कांग्रेस सरकार के दौरान ही दिल्ली का बाटला हाउस इनकाउंटर प्रदेश के मुसलमानों के जेहन में ताजा है। इस इनकाउंटर की सच्चाई जो भी रही हो मगर केन्द्र सरकार के आयोग बनाकर जांच नहीं कराने की नाराजगी मुसलमानों में है। इसके लिए वह प्रत्येक वर्ष यूपी से जाकर दिल्ली में प्रदर्शन करते आ रहे हैैं। ऐसे ही 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत के दंगे के बाद राज्य की समाजवादी सरकार ने इसे जातीय संघर्ष का नाम दिया। यानी यह संघर्ष जाट बनाम मुस्लिम था ।

    इससे इतर बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने 2012 के विधानसभा चुनाव में हार के जो बातें कहीं, उसका आशय था कि मुसलमानों ने बसपा को धोखा दिया। लोकसभा चुनाव में 'शून्य' होने पर भी उन्होंने मुसलमानों पर ठीकरा फोड़ा था। बसपा दो बार भाजपा से मिलकर सरकार बना चुकी है। इन दृष्टांतों ने मुसलमानों को चुप्पी साधने पर मजबूर कर रखा है।

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    इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो मंडल और कमंडल की राजनीति के पहले मुस्लिम वोट कांग्रेस के खाते में जाया करते थे, मगर अयोध्या का विवादित ढांचा ढहने केबाद से मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। इससे कांग्रेस उत्तर प्रदेश में हाशिए पर चली गई। नतीजा रहा कि 1993, 1996, 2002, 2007, 2012 तक कांग्रेस 35 से 30 सीटों के बीच सफर करती रही।

    इससे पहले दरअसल, राममंदिर आंदोलन की शुरूआत के बाद मुस्लिम व हिंदू वोटों की सियासत को खूब हवा मिली। कल्याण सिंह हिंदुओं के और मुलायम सिंह मुस्लिमों के रहनुमा के रूप में उभरे। 1993 और 1996 के चुनाव में मुसलमानों के मनपसंद नेता मुलायम सिंह रहे जिसका उन्हें सियासी फायदा मिला।

    मुलायम ने मुस्लिमों के लाभ के लिए कदम उठाये। उत्तर प्रदेश पुलिस में मुस्लिमों की भर्तियों में पैरवी की और उर्दू अनुवादक पदों पर भर्तियां भी करवाई। इससे मुस्लिम वोटरों पर मुलायम का राज हो गया। मुलायम केन्द्र की सत्ता में दख़ल देने लगे। रक्षा मंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। मुलायम की मुस्लिम वोटों पर बादशाहत खत्म करने का ठोस प्रयास बहुजन समाज पार्टी ने किया। उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला चला, जिसमें मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट बांटकर सपा के मुस्लिम वोट पर डाका डाला। मायावती का सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला इतना हिट हुआ कि आशा से अधिक वोट बसपा की झोली में आ गिरे, जिससे सपा और भाजपा चारों खाने चित हो गई। बाद में सपा ने उन्हें अपनी ओर करने में सफल रही और सरकार भी बनाई।

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    मुलायम की मुस्लिम राजनीति की एक और विशेषता यह रही कि सपा का बड़े से बड़ा मुस्लिम नेता भी कभी मुस्लिम वोट बटोरने के मामले में मुलायम की बराबरी नहीं कर पाया। मगर 2012 में अखिलेश सरकार के तमाम मुस्लिम नेताओं के बीच कैबिनेट मंत्री आजम खां की ही मात्र चलती रही। दिक्कत यह थी कि आजम के चलते जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अहमद बुखारी रूठ कर अलग हो गए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छी पकड़ रखने वाले मौलाना तौकीर रजा ने भी दंगों के बाद लाल बत्ती छोड़ सपा से दूरी बना ली। अखिलेश सरकार ने बीस मुस्लिम नेताओं को राज्यमंत्री का दर्जा प्रदान कर दिया। मकसद, किसी तरह मुस्लिमों में पकड़ बनाए रखना था। मुस्लिम वोट बैंक बचाने के चक्कर में सपा ने कई अल्पसंख्यकों को लाल बत्ती दी तो सरकार के अंदर उनके बीच आपस में ही तलवारें खिंचने लगीं और अब बसपा इसे अपने लाभ के रूप में देख रही है।

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    सियासी दलों में मुस्लिमों की बढ़ती पैठ

    सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अख्तियार करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने 2007 के चुनाव में 61 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, वहीं 2012 में उसने उनकी संख्या बढ़ाकर 97 कर दी। हैैं। समाजवादी पार्टी ने 2007 में 57 मुस्लिम उम्मीदवारों को प्रत्याशी बनाया। 2012 में यह संख्या बढ़ाकर 84 कर दी। कांग्रेस ने मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या वर्ष 2007 में 56 और 2012 में 61 कर दी है।

    सपा में अब अखिलेश यादव व प्रो.रामगोपाल यादव की जोड़ी का नया निजाम है। यह निजाम कांग्रेस, रालोद के साथ गठजोड़ का दांव आजमाने की तैयारी मे है। भाजपा मुस्लिम प्रत्याशी उतारने को अभी शायद तैयार नहीं है। 2007 में भाजपा खेमे से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव मैदान में नहीं उतारा था। मगर संघ के कार्यकर्ता मुस्लिमों की शाखा चलाने का यत्न कर रहे हैैं। कुछ शाखाओं में मुस्लिम दिखाई देने भी लगे हैैं।

    दल बने पर उम्मीद पूरी नहीं

    प्रदेश में इंडियन नेशनल लीग, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट, यूपीयूडीएफ, यूडीएफ, मोमिन कांफ्रेंस, इत्तेहाद कांफ्रेंस, इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, कौमी एकता दल, पीस पार्टी, उलेमा कौंसिल जैसे दल बने, पर मुसलमानों की उम्मीदों पर कोई खरा नहीं उतरा।

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    मुसलमानों के अपने मसलक भी

    मुस्लिम मतों में विभाजन का एक कारण उनका फिरकों में बंटा होना भी है। रुहेलखंड के शाहजहांपुर, पीलीभीत और बरेली शहर बरेलवी मसलक के गढ़ हैं। ऐसे ही अंबेडकरनगर, इलाहाबाद के कुछ हिस्सों में भी बरेलवी मसलक का प्रभाव है। जबकि रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर कुछ हद तक लखनऊ में भी देवबंदियों का प्रभाव हैै। दोनों मसलकों के बीच अच्छी खासी अदावत है। ऐसे में एक तबका एक ओर तो दूसरा दूसरी ओर मुड़ता रहा है। मगर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद इसमें कुछ हद तक बदलाव आया है। उधर शिया मुसलमानों की अच्छी-खासी तादाद वाले लखनऊ में शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद ने वक्फ संपत्तियों पर हो रहे कब्जे के विरोध में सपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में शिया मुसलमानों के बड़े हिस्से ने लखनऊ लोकसभा सीट से तत्कालीन उम्मीदवार राजनाथ सिंह को समर्थन दिया था। राजनाथ ने भी लगातार शिया कार्यक्रमों में जाकर उनका समर्थन बटोरने की कोशिशें जारी रखी हैं।

    प्रदेश के मुस्लिम बहुल जिले

    मुरादाबाद, मेरठ, रामपुर, अलीगढ़, आज़मगढ़, मऊ, बरेली, बदायूं, ज्योतिबाफुले नगर (अमरोहा), गोंडा, गाज़ीपुर, पीलीभीत।

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