माउंट एवरेस्ट पर 'जिंदा लाशें' पर्वतारोहियों को दिखाती हैं रास्ता
माउंट एवरेस्ट के रास्ते में तकरीबन 200 लाशें ऐसी हैं जिन्हें नए मुसाफिरों को रास्ता दिखाने के लिए छोड़ा गया है। अब तो इन्हें लैंडमार्क कहा जाता है।
नई दिल्ली [अमित मिश्रा]। पहाड़ जितने खूबसूरत होते हैं उतने की खतरनाक, जो जांबाज रोज इनका सीना चीरकर उंची खड़ी इनकी चोटियों का घमंड तोड़ते हैं, वक्त आने पर इन पहाड़ों की ताकत के सामने उन्हें भी झुकना पड़ता है।हिमालय को आसमान का हमसाया कहते हैं। इसकी चोटियों में ऐसा सम्मोहन है कि जिसने इनसे दिल लगाया वो उसी का होकर रह गया। यहां जिंदगी और मौत के बीच बस एक कदम का फासला है।
खास परिंदे ही छू पाते हैं एवरेस्ट की ऊंचाई
माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 30 हजार फीट है और जेट एयरक्राफ्ट भी 30 हजार फीट की ऊंचाई पर ही उड़ता है। जबकि लाइट एयरक्राफ्ट तो 10 हजार फीट की ऊंचाई को भी पार नहीं कर पाते। परिंदों में भी बस खुले सिर वाला हंस और कुछ खास प्रजाति के सारस ही इस ऊंचाई को छू पाते है।
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मुसाफिरों को रास्ता दिखाती हैं लाशें
दुनिया के बड़े-बड़े बहादुर सूरमा भी इस रास्ते के पार करते वक्त भगवान को याद करते हैं। इस बुलंदी के रास्ते में कई जगह श्मशान भी हैं। ऐसे श्मशान जहां लाशें बरसों से आखिरी रस्में पूरी होने का इंतजार कर रही हैं। अब तो ये लाशें नए मुसाफिरों को रास्ता दिखाने लगी हैं।
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200 लाशें बन चुकी हैं लैंडमार्क
जी हां ये हकीकत है कि माउंट एवरेस्ट के रास्ते में तकरीबन 200 लाशें ऐसी हैं जिन्हें नए मुसाफिरों को रास्ता दिखाने के लिए छोड़ा गया है। अब तो इन्हें लैंडमार्क कहा जाता है। इस रास्ते पर 1924 से लेकर 2013 तक 248 यात्री मौत की नींद सो चुके हैं। इनमें 161 पश्चिमी देशों से आये पर्वतारोही थे जबकि 87 स्थानीय शेरपा थे। साल 2014 में भी यहां बर्फीले तूफान की चपेट में आने से 16 लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद साल 2015 में भी कई बार बर्फीले तूफान आए और अपने पीछे छोड़ गए कई लाशें।
लाशें निकालने का मतलब खुदकुशी
2013 तक मारे गए 248 लोगों में से 200 शव अभी भी वहीं पड़े हैं। यही वजह है लोग कहते हैं कि इस रास्ते में कई श्मशान पड़ते हैं। सबसे पहली बड़ी दुर्घटना 1996 में हुई थी तब 8 लोग मौत के इस आसमान को छूने की आस में रास्ते में ही मौत की नींद सो गए थे। इसके अगले ही सीजन में 15 लोगों ने रास्ते में दम तोड़ा था। यहां की खास बात है कि जिसने यहां दम तोड़ दिया बस फिर यही उसका श्मशान बन गया। क्योंकि यहां से लाशें निकालने की कोशिश करना भी खुदकुशी करने के बराबर है।
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हिम्मत छूटी समझो गई जान
यही नहीं ये वो रास्ता है जहां आप पूरी टीम के साथ चल रहे होते हैं लेकिन जैसे ही आपकी हिम्मत छूटी समझ लीजिए की आप भी छूट गए। इस सफर के मुसाफिर अपने साथियों को एक ही पल में भूल जाते हैं। जिस साथी की सांसे फूलने लगती है दूसरे साथी उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं।
यै है सबसे दर्दनाक दास्तान
1998 में भी ऐसी ही एक घटना घटी थी। पर्वतारोहियों का एक दल 28 हजार फीट की ऊंचाई को पार कर रहा था जिसमें एक महिला भी शामिल थी। इस दल ने देखा कुछ दूरी पर एक शख्स पड़ा है जो मदद के लिए हाथ हिला रहा है। ये दल उस शख्स के पास पहुंचा तो पता चला कि वो एक महिला थी। उस महिला की सांसे फूल रही थीं उसके पास ऑक्सीजन की एक बोतल पड़ी थी जो बिल्कुल खाली थी।
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इस दल में मौजूद महिला चाहती थी कि उस महिला की जिंदगी बचाई जाए। लेकिन इस ग्रुप के पास एक्सट्रा ऑक्सीजन नहीं थी जिससे उस महिला को ऑक्सीजन दी जा सके। इस लिए इन्होंने तय किया कि अगर अपनी जान को खतरे में नहीं डालना है तो उस महिला को मरने के लिए छोड़कर आगे बढ़ा जाए। तड़पती हुई महिला को छोड़कर दल आगे बढ़ गया लेकिन उस दल में मौजूद महिला इस गुनाह से बैचेन हो गई। बाद में उसने दुनिया के सामने पश्चाताप भी किया। उसने बताया कि मरने वाली महिला मुझसे पूछ रही थी कि तुम मुझे इस हाल में छोड़कर आगे कैसे जा सकती हो।
पति ने भी छोड़ दिया साथ
मरने वाली महिला का नाम फ्रांसिस था और वो अपने पति के साथ बिना ऑक्सीजन के ही माउंट एवरेस्ट को फतह करना चाहती थी। लेकिन डेथ जोन में जाकर सांसे अटक गईं तो पति भी साथ छोड़कर आगे बढ़ गया और जिस दल से उसने मदद मांगी वो भी बिना मदद किये ही आगे चला गया। दरअसल ये वो डगर थी जहां अपनी जिंदगी को बचाने के अलावा कोई दूसरा जज्बा दिल में आता ही नहीं है।
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26 हजार फीट के बाद शुरू होता है खतरनाक रास्ता
30 हजार फीट के इस सफर में सबसे खतरनाक रास्ता शुरू होता है 26 हजार फीट की ऊंचाई से आगे । ये जगह फाइनल बेस कैंप से ऊपर है और इसे डेथ जोन कहा जाता है। ये वो इलाका है जहां ऑक्सीजन बिल्कुल नहीं है। यहां सर्दी की वजह से इंसान की हड्डियां अकड़ जाती हैं। जिसके बाद सांसे थमने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। हालांकि अब तो दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत पर चढ़ना काफी आसान माना जाता है। क्योंकि मौजूदा दौर में कई तरह के हिफाजती इंतजाम होने लगे हैं। सैटेलाइट फोन्स के जरिये पर्वतारोही बाहरी दुनिया के कॉन्टेक्ट में रहते हैं जिसकी वजह से मुसीबत के वक्त मदद की उम्मीद भी रहती है।
ग्रीन बूट है फेमस
1996 में 15 लोगों की मौत हुई थी जबकि 98 लोग ही लौटे पाए थे। लेकिन दस साल बाद 2006 में मात्र 11 लोगों की मौत हुई और 400 लोगों ने सफल यात्रा की। बहरहाल अब भले ही आसमान को छूते इस पर्वत के सिर पर चढ़ना पहले से आसान हो गया है लेकिन रास्ते में पड़े ये शव हर वक्त होशियार रहने इशारा करते रहते हैं। उत्तर पूर्वी टीले पर बरसों से एक शव पड़ा है जिसके पैर में हरे रंग के जूते हैं। अब उस जगह को ग्रीन बूट के नाम से जाना जाता है। ऐसे ही जगह-जगह पड़े शवों को अलग-अलग लैंडमार्क के नाम से जाने जाना लगा है।