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AAP विधायक और 'लाभ का पद', क्या है मामला और किसने की थी शुरुआत...पढ़ें

'लाभ के पद' मुद्देे पर यदि केजरीवाल के 21 विधायकों की सदस्यता रद्‌द हो जाती है तो इसका दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी की राजनीति में पड़ना तय है।

By Amit MishraEdited By: Published: Fri, 15 Jul 2016 11:08 AM (IST)Updated: Fri, 15 Jul 2016 05:45 PM (IST)

नई दिल्ली [जेएनएन]। दिल्ली सरकार मुश्किल में है। आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में है। केजरीवाल सरकार ने इन विधायकों को संसदीय सचिव का पद दे रखा था, जो 'लाभ के पद' के दायरे में माना जाता है। अब यही 'लाभ के पद' का मुद्दा दिल्ली सरकार की गले का फांस बन गया है। चुनाव आयोग में इस मामले को लेकर गंभीर है और फिलहाल दिल्ली सरकार को राहत मिलती नहीं दिख रही है।

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'लाभ के पद' मुद्देे पर यदि केजरीवाल के 21 विधायकों की सदस्यता रद्‌द हो जाती है तो इसका दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी की राजनीति में पड़ना तय है। हालांकि 21 विधायकों की सदस्यता रद्‌द होने के बाद भी केजरीवाल सरकार बहुमत रहेगी लेकिन नैतिकता के आधार पर सवाल तो जरूर खड़े होंगे। पूरा विवाद क्या है यह जानना आपके लिए बेहद अहम है।

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13 मार्च 2015 का है मामला

पूरा मामला 13 मार्च 2015 का है जब आम आदमी पार्टी ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया था। 19 जून 2015 को प्रशांत पटेल नाम के एक वकील ने राष्ट्रपति के पास 'आप' के इन 21 संसदीय सचिवों की सदस्यता रद्द करने के लिए आवेदन दिया। जिसके बाद आनन-फानन में प्रचंड बहुमत वाली केजरीवाल कैबिनेट ने संसदीय सचिवों को लाभ का पद के दायरे से बाहर करने का प्रस्ताव पास किया था। इससे पहले मई 2015 में चुनाव आयोग के पास एक जनहित याचिका भी डाली गई थी। जनहित याचिका को आधार बनाकर चुनाव आयोग ने 21 विधायकों को मार्च 2016 में नोटिस देकर एक-एक करके बुलाने का फैसला लिया।

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क्या मानती है दिल्ली सरकार

लाभ के पद मुद्दे पर मचे बवाल के बाद दिल्ली सरकार की तरह से कहा गया कि विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के बाद भी उन्हें किसी प्रकार का कोई आर्थिक लाभ नहीं दिया गया। लेकिन जनहित याचिका दायर करने वाले प्रशांत पटेल का कहना है कि केजरीवाल के विधायकों को इसके लिए न सिर्फ कमरे और ऑफिस स्टॉफ मिले हैं बल्कि पैसे भी दिए जाते हैं।

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क्या कहता है कानून?

संविधान का अनुच्छेद 102(1)(a) और 191(1)(a) साफ साफ कहता है कि संसद या फिर किसी विधानसभा का कोई भी सदस्य अगर लाभ के किसी भी पद पर होता है उसकी सदस्यता जा सकती है। यही नहीं दिल्ली एमएलए (रिवूमल ऑफ डिसक्वालिफिकेशन) एक्ट 1997 के अनुसार भी संसदीय सचिव को भी इस लिस्ट से बाहर नहीं रखा गया है। मतलब साफ है कि इस एक्ट के आधार पर इस पद पर होना 'लाभ का पद' माना जाता है। दिल्ली के किसी भी कानून में संसदीय सचिव का उल्लेख नहीं है, इसीलिए विधानसभा के प्रावधानों में इनके वेतन, भत्ते सुविधाओं आदि के लिए कोई कानून नहीं है।

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भाजपा ने की थी शुरुआत

दिल्ली में संसदीय सचिव पद की शुरुआत सबसे पहले भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा ने की थी। वर्मा ने एक संसदीय सचिव पद की शुरुआती की, लेकिन इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस की शीला दीक्षित ने इसे बढ़ाकर तीन कर दिया। कांग्रेस और भाजपा ने आपसी तालमेल के कारण इस पद की वैधता पर कभी सवाल नहीं उठाए। लेकिन आम आदमी पार्टी ने पिछली कांग्रेस सरकार से सात गुना ज्यादा, 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर इस पूरे विवाद को जन्म दिया।

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पहले भी मच चुका है बवाल

यह पहली बार नहीं है लाभ का पद को लेकर बवाल मचा है। इससे पहले भी कई बार यह मुद्दा उठ चुका है। देश में लाभ के पद का पहला मामला 1915 में तब आया जब कलकत्ता हाईकोर्ट में नगर निगम के प्रत्याशी के चुनाव को चुनौती दी गई थी।

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2001 में शिबू सोरेन को झारखंड में स्वायत्त परिषद के सदस्य होने के कारण राज्य सभा सांसद पद से अयोग्य घोषित कर दिया गया था और जया बच्चन को राज्यसभा सांसद के साथ उत्तर प्रदेश में लाभ का पद लेने के आरोप पर अयोग्य घोषित किया गया।

अनिल अंबानी को भी राज्यसभा सदस्यता से त्याग-पत्र देना पड़ा था। 2004 में राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एनएसी) के चेयरपर्सन बनने के बाद सोनिया गांधी को भी लाभ के पद की शिकायत होने पर 2006 में संसद से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ना पड़ा।

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