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लोकसभा चुनाव में खास मायने रखती हैं पश्चिम बंगाल की ये 20 सीट, जानें क्‍यों और कैसे

अमित शाह दो वर्षो से 42 संसदीय सीटों वाले बंगाल में 22 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं। इनमें उत्तर बंगाल की आठ और दक्षिण बंगाल- जंगलमहल की करीब 6 सीट हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 09 Apr 2019 11:29 AM (IST)Updated: Tue, 09 Apr 2019 11:29 AM (IST)
लोकसभा चुनाव में खास मायने रखती हैं पश्चिम बंगाल की ये 20 सीट, जानें क्‍यों और कैसे
लोकसभा चुनाव में खास मायने रखती हैं पश्चिम बंगाल की ये 20 सीट, जानें क्‍यों और कैसे

अभिषेक रंजन सिंह। लोकसभा चुनाव में जीत का रास्ता जंगलमहल से होकर गुजरता है, ऐसा पश्चिम बंगाल की राजनीति में माना जाता है। हालांकि यह कहावत इस बार उत्तर बंगाल के लिए ज्यादा सटीक बैठती है। बीते दिनों उत्तर बंगाल स्थित सिलीगुड़ी और कूचबिहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभाएं हुईं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी दो वर्षो से 42 संसदीय सीटों वाले बंगाल में 22 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं। इनमें उत्तर बंगाल की आठ और दक्षिण बंगाल- जंगलमहल की करीब आधा दर्जन सीटों पर उनकी खास नजर है। वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा था, लेकिन मई 2018 में हुए ग्राम-पंचायतों के चुनाव में वह दूसरे स्थान पर रही।

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उसे सर्वाधिक फायदा झारखंड से सटे दक्षिण बंगाल के जंगलमहल इलाकों के अलावा उत्तर बंगाल में हुआ। भाजपा को अमूमन शहरी आधार वाली पार्टी माना जाता है, लेकिन पश्चिम बंगाल में स्थिति थोड़ी अलग है। यहां शहरों के मुकाबले ग्रामीण अंचलों में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है, विशेषकर बीते चार-पांच वर्षो में। ग्राम-पंचायतों के चुनावी नतीजे भी इसकी तस्दीक करते हैं। इस बार उत्तर और दक्षिण बंगाल में भाजपा पूरा जोर लगा रही है। लोकसभा के पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल को है। इनमें उत्तर बंगाल की दो सीटें कूचबिहार और अलीपुरद्वार में वोट डाले जाएंगे।

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प्रधानमंत्री के निशाने पर विपक्ष

अगर पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी रैलियों पर गौर करें तो उनके निशाने पर तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस, वामदल समेत अन्य विपक्षी पार्टियां रहीं। कूचबिहार की जनसभा में उन्होंने एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाए जाने पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा उनकी हामी वाले दूसरे नेताओं पर भी हमले किए। अफस्पा को खत्म किए जाने संबंधी कांग्रेस के घोषणापत्र और जम्मू-कश्मीर में अलग प्रधानमंत्री संबंधी उमर अब्दुल्ला के बयान पर भी मोदी ने ममता की आलोचना की। उत्तर बंगाल में इस मुद्दे को साधना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा भी कह सकते हैं, क्योंकि इन इलाकों में सेना से जुड़े लोगों की संख्या ज्यादा है। इसके अलावा ‘नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस’ यानी एनआरसी ‘सिटीजन अमेंडमेंट बिल’ का विरोध करने एवं राज्य में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं होने पर भी ममता सरकार मोदी और अमित शाह के निशाने पर हैं। ये मुद्दे पश्चिम बंगाल की राजनीति में अहम हैं, खासकर ‘सिटीजन अमेंडमेंट बिल’ एनआरसी और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें।

कोच राजवंशी बड़े निर्णायक

ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन शुरू से ही एनआरसी की पक्षधर रही है। यह संगठन कई दशकों से कोच राजवंशियों की सांस्कृतिक एवं सामाजिक अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। इसका प्रभाव कूचबिहार, जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग के अलावा ग्वालपाड़ा, कोकराझार, चिरांग व बारपेटा समेत असम के 10 जिलों में है। इससे जुड़े लोग खुद को कोच राजवंश का हिस्सा मानते हैं। सोलहवीं सदी में महाराजा विश्व सिंह ने कोच साम्राज्य की स्थापना की थी। वर्ष 1947 में देश आजाद हुआ, लेकिन कूचबिहार का भारत में विलय कोच राजवंश के अंतिम महाराजा जगद्दीपेंद्र नारायण सिंह की सहमति से वर्ष 1949 में हुआ। कूचबिहार में कोच राजवंशियों की संख्या 52 प्रतिशत, अलीपुरद्वार में 46 और जलपाईगुड़ी में 16 प्रतिशत है। उत्तर बंगाल की आठ सीटों में से पांच सीटों पर इनकी निर्णायक भूमिका है। ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन इस चुनाव में भाजपा का समर्थन कर रहा है। भाजपा भी इस संगठन की शक्ति से वाकिफ है। लिहाजा ‘एनआरसी’ और ‘सिटीजन अमेंडमेंट बिल’ के मुद्दे पर तृणमूल सरकार को घेरना भाजपा द्वारा कोच राजवंशी समुदाय को साधने की कोशिश है। ‘ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन’ गोरखालैंड की तर्ज पर ‘ग्रेटर कूचबिहार’ को मान्यता एवं स्वायत्तता देने की मांग कर रहा है। इस संबंध में एक तथ्य यह भी कि कूचबिहार में मुसलमानों की आबादी 25 प्रतिशत और अलीपुरद्वार में 17 प्रतिशत है।

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भारत-बांग्लादेश सीमा समझौता

जुलाई 2014 में भारत और बांग्लादेश के बीच बहुप्रतीक्षित भूमि सीमा का समझौता हुआ था। इसके तहत कूचबिहार स्थित 51 बांग्लादेशी छिटमहल (इन्कलेव) का विलय भारत में हुआ। उसी प्रकार रंगपुर, कुडीग्राम व लालमुनीरहाट स्थित 111 भारतीय छिटमहल (इन्कलेव) बांग्लादेशी भू-भाग का हिस्सा बन गए। समझौते के पांच वर्षो बाद भी भारत का हिस्सा बने छिटमहलों में बुनियादी सुविधाएं मयस्सर नहीं हो पाई हैं। खासकर बांग्लादेश स्थित भारतीय छिटमहलों से आए लोग अभी भी कूचबिहार स्थित दिनहाटा और मेखिलीगंज के शिविरों रहने को विवश हैं। जबकि इन लोगों को 2017 तक स्थायी पक्के मकान मिल जाने चाहिए थे। केंद्र और पश्चिम बंगाल की सरकार इसे लेकर भी एक दूसरे पर आक्रामक है। केंद्र सरकार का कहना है कि छिटमहलों के विकास के लिए भेजी गई धनराशि का राज्य सरकार ने सही इस्तेमाल नहीं किया। कूचबिहार में छिटमहलों में रहने वालों की आबादी 40 हजार है। दशकों से स्टेटलेस यहां के लोगों को अगस्त 2014 में भारत की नागरिकता मिली थी। इस बार चुनाव में ये लोग पहली बार मतदान करेंगे। यहां ज्यादातर संख्या मुसलमानों की है।

चाय श्रमिकों की महत्ता

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित अलीपुरद्वार उत्तर बंगाल की दूसरी महत्वपूर्ण सीट है। पिछले चुनाव में यहां हार-जीत का अंतर काफी कम था। तृणमूल कांग्रेस ने इस बार दशरथ तिर्की को मैदान में उतारा है। वर्ष 2014 में उन्होंने आरएसपी उम्मीदवार मनोहर तिर्की को शिकस्त दी थी। पिछले चुनाव में टीएमसी उम्मीदवार दशरथ तिर्की को जहां 3,62,453 वोट मिले थे। वहीं दूसरे स्थान पर रही आरएसपी को 3,41,056 वोट मिले। तीसरे स्थान पर रहे भाजपा प्रत्याशी बीरेंद्र बरा उरांव को 3,35,857 वोट मिले थे। आरएसपी ने इस बार मिली उरांव को उम्मीदवार बनाया है तो भाजपा ने चाय श्रमिकों के नेता जॉन बारला को उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस से मोहनलाल बसुमाता चुनावी मैदान में हैं। उत्तर बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या करीब दस लाख है। यहां बंगाली और बिहारी मजदूरों के अलावा आदिवासी श्रमिकों की संख्या अधिक है। उत्तर बंगाल में चाय बागानों की हालत सही नहीं है। अलीपुरद्वार में चाय श्रमिकों की समस्याएं बड़ा चुनावी मुद्दा है। यहां विधानसभा की कुल सात सीटें क्रमश:- तूफानगंज, कुमारग्राम, कालचीनी, अलीपुरद्वार, फालाकाटा, मदारीहाट और नागरकाटा हैं। इनमें मदारीहाट भाजपा के खाते में है, जबकि बाकी सीटों पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है।

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कांग्रेस का खिसकता आधार

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर बंगाल में सिर्फ दार्जिलिंग सीट मिली थी, लेकिन मतों के मामले में वह दूसरे स्थान पर रही। उत्तर बंगाल में लोकसभा की कुल आठ सीटें- कूचबिहार, अलीपुरद्वार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग, रायगंज, उत्तर मालदा, दक्षिण मालदा और बालूरघाट हैं। पिछले चुनाव में इन सीटों पर तृणमूल कांग्रेस को करीब 27 लाख वोट मिले थे, जबकि भाजपा को लगभग 22 लाख। कांग्रेस को दो सीटें मिलीं और उसे 14.5 लाख वोट मिले थे। सीपीएम को एक सीट मिली और उसके खाते में 16.5 लाख वोट आए। सीपीआइ और आरएसपी को उत्तर बंगाल में कोई कामयाबी तो नहीं मिली, लेकिन दोनों पार्टियों को कुल 25 लाख वोट मिले थे।

तृणमूल कांग्रेस से नाराजगी

जंगलमहल इलाके के चार जिले पुरूलिया, पश्चिम मिदनापुर, झारग्राम और बांकुड़ा माओवादी हिंसा से प्रभावित रहे हैं। वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को यहां मिली कामयाबी के पीछे माओवादी समर्थकों की बड़ी भूमिका मानी जाती है। नवंबर 2011 में ‘ऑपरेशन ग्रीनहंट’ के दौरान शीर्ष माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी मारे गए। माओवादी इसके लिए तृणमूल सरकार को जिम्मेदार मानते हैं। टीएमसी लगातार इससे इन्कार करती रही, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे और सांसद अभिषेक बनर्जी ने 2015 में यह स्वीकार किया कि किशन जी का एनकाउंटर तृणमूल सरकार की एक बड़ी कामयाबी थी। तृणमूल से नाता तोड़ भाजपा में शामिल हुए मुकुल रॉय दोबारा जंगलमहल को साधने में जुट गए हैं।

अप्रैल 2018 में झारग्राम स्थित लालगढ़ में छत्रधर महतो की पत्नी मिताली देवी से उनकी मुलाकात से इन कयासों की पुष्टि हो जाती है। ‘पुलिस संत्रस विरोधी जनसाधारण कमेटी’ के अध्यक्ष छत्रधर महतो यहां के दूसरे शीर्ष माओवादी नेता हैं। पश्चिम बंगाल में जिस वक्त तृणमूल कांग्रेस विपक्ष में थी उस दौरान पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी के साथ उनके अच्छे संबंध थे। जंगलमहल की अपनी कई रैलियों में मुकुल रॉय यह कह चुके हैं कि छत्रधर महतो के सहारे उन्होंने जंगलमहल की चुनावी राजनीति में तृणमूल कांग्रेस की पैठ बनाई। आदिवासी समुदाय से संबंध रखने वाले छत्रधर महतो 2009 से जेल में हैं। इस इलाके में आदिवासियों की संख्या अधिक है। ऐसे में छत्रधर महतो की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से नाराजगी जंगलमहल इलाके में तृणमूल कांग्रेस की उम्मीदों पर भारी पड़ सकता है।

कूच बिहार में कामयाबी के कई संकेत 

अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कूचबिहार संसदीय सीट से भाजपा ने निशीथ प्रमाणिक को प्रत्याशी बनाया है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार हेमचंद्र बर्मन तीसरे स्थान पर रहे। दो साल बाद हुए उपचुनाव में भाजपा की स्थिति सुधरी और बर्मन दूसरे स्थान पर रहे। हालांकि इस बार भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस से आए निशीथ प्रमाणिक को उम्मीदवार बनाया है। वहीं तृणमूल कांग्रेस की तरफ से परेश चंद्र अधिकारी चुनावी मैदान में हैं। वर्ष 2014 में रेणुका सिन्हा टीएमसी की उम्मीदवार थीं। उनकी मृत्यु के बाद नवंबर 2016 में हुए उपचुनाव में टीएमसी प्रत्याशी पार्था प्रीतम रॉय की जीत हुई। लेकिन इस बार उनकी जगह परेशचंद्र अधिकारी को उम्मीदवारी मिली। टिकट कटने से नाराज पार्था प्रीतम रॉय के समर्थकों ने पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। तृणमूल कांग्रेस में जारी अंतर्कलह भाजपा खुद के लिए फायदेमंद मान रही है।

कूचबिहार संसदीय क्षेत्र फॉरवर्ड ब्लॉक का पुराना गढ़ रहा है। लेकिन हाल के वर्षो में कई बड़े नेता भाजपा में शामिल हो गए। इनमें एक बड़ा नाम पूर्व विधायक दीपक सेनगुप्ता के बेटे दीप्तिमान सेनगुप्ता हैं, जो ‘भारत-बांग्लादेश इन्कलेव एक्सचेंज कॉर्डिनेशन कमिटी’ के चीफ कॉर्डिनेटर हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच हुए न्यायपूर्ण भूमि सीमा समझौते में उनकी अहम भूमिका मानी जाती है। फॉरवर्ड ब्लॉक को बड़ा नुकसान उस वक्त हुआ जब दीपक रॉय भाजपा में शामिल हो गए। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में दीपक रॉय दूसरे स्थान पर रहे। तृणमूल कांग्रेस प्रत्याशी के मुकाबले उन्हें 4,39,393 वोट मिले थे। वर्ष 2016 के कूचबिहार उपचुनाव में फॉरवर्ड ब्लॉक ने उन्हें उम्मीदवार न बनाकर नृपेंद्रनाथ रॉय को चुनावी मैदान में उतारा था। नतीजन पार्टी को महज 87,363 मत मिले थे। फॉरवर्ड ब्लॉक में फूट और तृणमूल कांग्रेस में जारी असंतोष की वजह से कूचबिहार में भाजपा की उम्मीदों को बल मिला है। यहां विधानसभा की सात सीटें हैं, जिनमें से छह पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है, जबकि एक सीट फॉरवर्ड ब्लॉक के कब्जे में है।

लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए पश्चिम बंगाल में अधिक से अधिक संख्या में जीत दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि जहां एक तरफ बीते करीब दो दशकों से इस राज्य में पार्टी का जनाधार बढ़ रहा है, वहीं कुछ अन्य राज्यों में पार्टी को पिछली बार के मुकाबले कुछ कम सीटें आने की आशंका के बीच उसकी भरपाई होने की उम्मीद भी है। हालांकि भाजपा को एक बड़े वर्ग में शहरी आधार वाली पार्टी माना जाता रहा है, लेकिन पश्चिम बंगाल में स्थिति अलग है। यहां शहरों के मुकाबले ग्रामीण अंचलों में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है, खासकर बीते चार-पांच वर्षो के दौरान इसमें व्यापक बदलाव आया है। ग्राम-पंचायतों के चुनावी नतीजे भी इसकी पुष्टि करते हैं

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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