विवेक तिवारी, नई दिल्ली । दुनिया की आधी आबादी को हर साल डेंगू के खतरे का सामना करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पिछले दो दशक में डेंगू के मामलों में 8 गुना से ज्यादा वृद्धि हुई है। दुनिया में हर साल लगभग 40 करोड़ लोगों को डेंगू के संक्रमण का सामना करना पड़ता है। हालांकि इसमें से 80 फीसदी लोगों को हल्का संक्रमण ही होता है। डब्लूएचओ ने डेंगू को दुनिया के 10 सबसे बड़े स्वास्थ्य खतरों की सूची में रखा है। दुनिया के कई देशों में इसके वायरस से बचाव के लिए वैक्सीन बनाने का काम चल रहा है। इसी कड़ी में भारत ने भी बड़ी पहल की है। Indian Council of Medical Research के प्रस्ताव पर भारत की दो वैक्सीन निर्माता कंपनियों ने डेंगू की वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल में रुचि दिखाई है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर सबकुछ ठीक रहा तो भी इस वैक्सीन को लोगों तक पहुंचने में कम से कम तीन साल लग सकते हैं।

भारत में सीरम इंस्टीट्यूट और पैनेसिया बायोटेक ने डेंगू वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल में रुचि दिखाई है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की हेड ऑफ वायरोलॉजी निवेदिता गुप्ता कहती हैं कि आईसीएमआर की ओर से वैक्सीन की पूरी तरह से जांच करने, अर्थात वह आम लोगों के लिए पूरी तरह सुरक्षित है या नहीं, यह सुनिश्चित करने के बाद ही जारी किया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में तीन साल से ज्यादा का समय लगेगा।

पहले भी बन चुकी है वैक्सीन

ये पहली बार नहीं होगा कि कोई कंपनी या शोध संस्थान डेंगू की वैक्सीन बना रहा हो। दरअसल फ्रांस की फार्मा कंपनी सनोफी ने डेंगू की वैक्सीन बना भी ली थी और उसे मार्केट में भी उतार दिया था। लेकिन फिलिपींस में बच्चों को जब ये वैक्सीन लगाई गई तो उनमें कई गंभीर साइड इफेक्ट दिखे। कुछ बच्चों को जान भी गंवानी पड़ी। तब उस वैक्सीन को कंपनी ने वापस ले लिया। इस घटना के बाद से पूरी दुनिया में डेंगू की वैक्सीन को लेकर सतर्कता काफी बढ़ गई।

क्या है चुनौती

DNDi में डेंगू ग्लोबल प्रोग्राम एंड साइंटिफिक अफेयर्स की प्रमुख डॉक्टर नीलिका मालविगे कहती हैं कि, डेंगू के वायरस के 4 सिरोटाइप हैं। DENV-1 जो क्लासिक डेंगू बुखार का कारण बनता है, DENV-2 के संक्रमण को सबसे खतरनाक संक्रमण माना जाता है। इसमें बुखार के साथ प्लेटलेट कम हो जाती है और खून बहना लगता है। DENV-3 में तेज बुखार के साथ सांस लेने में तकलीफ और होठ और गले में सूजन देखी जा सकती है और DENV-4 सिरोटाइप के संक्रमण से मरीज में बुखार के साथ खून का बहाव और डेंगू शॉक सिंड्रोम (DSS) के लक्षण देखे जा सकते है। इनमें से किसी एक या दो सिरोटाइप के लिए वैक्सीन नहीं बनाई जा सकती है। जेएनयू में स्कूल ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर रवि टंडन कहते हैं कि डेंगू के चार सिरोटाइप ही वैक्सीन बनाने की राह में सबसे बड़ी चुनौती हैं। दअरसल एक या दो सिरोटाइप के लिए वैक्सीन बना भी ली जाए तो तीसर सिरोटाइप का संक्रमण होने पर खतरा और बढ़ जाएगा। जिस सिरोटाइप के लिए वैक्सीन लगी है उससे बनने वाली एंटीबॉडीज ही मरीज के लिए घातक हो जाती हैं। इसे एंटी बॉडी डिपेंडेंस इनहैंसमेंट (ADE) कहते हैं। ऐसे में डेंगू के वायरस से बचने के लिए कोई ऐसी वैक्सीन बनानी होगी जो इसके चारो सीरोटाइप पर पूरी तरह से असरदार हो।

कोविड और डेंगू की वैक्सीन में अंतर

आप सोच रहे होंगे कि कोविड की वैक्सीन तो एक साल से भी कम समय में बन गई, तो डेंगू की वैक्सीन बनाने में देरी क्यों हो रही है। दरअसल कोविड को पूरी दुनिया ने महामारी के तौर पर लिया। ऐसे में जो भी संभावित विकल्प हो सकते हैं उन सब पर काम शुरू कर दिया। कोविड के वायरस के एक स्ट्रेन के लिए बनाई गई वैक्सीन अन्य वेरिएंट के लिए भी इम्यूनिटी पैदा करती है। लेकिन डेंगू के एक या दो सिरोटाइप के लिए बनाई गई वैक्सीन के जरिए बनी एंटीबॉडी तीसरे सिरोटाइप के हमले को और घातक बना देती है।

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जलवायु परिवर्तन से बढ़ता खतरा

जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ता तापमान डेंगू जैसे रोगों को बढ़ावा देता है। पिछले 4 दशकों में संयुक्त वैश्विक प्रयासों ने पूरी दुनिया में मलेरिया के मामलों को कम किया, लेकिन अन्य वेक्टर जनित बीमारियों, विशेष रूप से डेंगू से होने वाली मौतें बढ़ी हैं। जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य 2019 रिपोर्ट में लैंसेट ने खुलासा किया था कि पिछले कुछ वर्षों में मच्छरों द्वारा होने वाले रोगों (मलेरिया और डेंगू) में वृद्धि हुई है। अध्ययनों से पता चलता है कि दक्षिण एशिया के ऊंचे पहाड़ों में ज्यादा बारिश और बढ़ते तापमान के चलते संक्रामक बीमारियां तेजी से फैली हैं। ज्यादा बारिश के चलते इन पहाड़ी इलाकों में मच्छरों को प्रजनन में मदद मिली है। साथ ही बढ़ता तापमान इनके जीवन चक्र को तेज कर देता है। पर्यावरणीय कारक जैसे ऊंचे पहाड़ों में तापमान में असमान वृद्धि, कम बर्फबारी, अत्यधिक मौसम की घटनाएं जैसे भारी वर्षा, पहाड़ी ढलानों में कृषि और कृषि गतिविधियों में वृद्धि और लोगों की पहुंच और गतिशीलता में वृद्धि हिंदुकुश और हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र में पहले से काफी अधिक बढ़ गए हैं। पिछले कुछ दशकों में एचकेएच क्षेत्र में देखे गए इन परिवर्तनों से संक्रामक रोगों के फैलने का खतरा बढ़ा है।

ICMR में सेंटर ऑफ एक्सिलेंस फॉर क्लाइमेट चेंज एंड वेक्टर बॉर्न डिजीज के प्रिंसिपल इनवेस्टिगेटर रहे डॉक्टर रमेश धीमान कहते हैं कि मच्छर, सैंड फ्लाई, खटमल जैसे बीमारी फैलाने वाले कीटों का विकास और अस्तित्व तापमान और आर्द्रता पर निर्भर करता है। ये रोग वाहक मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी एन्सेफलाइटिस, कालाजार जैसी बीमारी बहुत तेजी से फैला सकते हैं। आने वाले समय में संभव है कि जलवायु परिवर्तन के चलते कुछ इलाके जहां पर कोई विशेष संक्रामक बीमारी नहीं थी, अचानक बीमारी फैलने लगे। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भौगोलिक रूप से एक समान नहीं होगा क्योंकि विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में अलग-अलग जलवायु विशेषताएं होती हैं। उदाहरण के लिए, भारत में हिमालयी क्षेत्र, जलवायु परिवर्तन के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील है क्योंकि तापमान में वृद्धि के कारण ठंडे तापमान वाले क्षेत्र मलेरिया और डेंगू के लिए उपयुक्त हो गए हैं। देश का दक्षिणी भाग कम प्रभावित होने की संभावना है क्योंकि यहां लगभग सभी 12 महीनों के लिए पहले से ही वेक्टर जनित रोगों के लिए जलवायु उपयुक्त है।