ए. सूर्यप्रकाश। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के एक्जिट पोल मिले-जुले संकेत ही दे रहे हैं। रविवार को नतीजे भी आ जाएंगे और तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाएगी। इन चुनावों के परिणाम चाहे जो रहें, लेकिन ये भारतीय राजनीति के इतिहास में रेवड़ियों की बारिश वाले चुनाव के रूप में याद रखे जाएंगे। किसी भी दल ने मुफ्तखोरी वाली योजनाओं की पेशकश करने में कोई संकोच नहीं किया।

राजनीतिक दलों ने ये घोषणाएं करते हुए सरकारी खजाने की कोई चिंता भी नहीं की। इन चुनावों में चुनावी लोकलुभावनवाद एक अलग ही स्तर पर पहुंच गया। मुफ्तखोरी वाली योजनाओं के देश की आर्थिकी पर गहरे दुष्प्रभाव होंगे। इसके बावजूद इस रुझान पर विराम लगाने का साहस राजनीतिक दल नहीं कर पा रहे हैं। इस चलन पर कोई रोक लगाने के मामले में चुनाव आयोग के हाथ भी बंधे हुए हैं। ऐसे में आखिरी उम्मीद उच्चतम न्यायालय से है, जिसके समक्ष चुनावी रेवड़ियों को रोकने से जुड़ी दो याचिकाएं विचाराधीन हैं।

चुनावी रेवड़ियों को लेकर राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार ने काफी पहले ही सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया था। गहलोत ने चुनावों में भी मतदाताओं को सात गारंटियां दीं। इनमें गृहलक्ष्मी योजना के अंतर्गत परिवार की मुखिया महिला को सालाना 10,000 रुपये की राशि, एक करोड़ परिवारों को 500 रुपये में एलपीजी सिलेंडर, सरकारी कालेजों के विद्यार्थियों को लैपटाप या टैबलेट, प्राकृतिक आपदा से हुई क्षति में प्रति परिवार को 15 लाख रुपये का बीमा, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा और चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा का दायरा 25 लाख रुपये से बढ़ाकर 50 लाख करना। गहलोत के इस दांव की भाजपा ने अपने हिसाब से काट निकाली।

भाजपा ने गरीब परिवार की लड़कियों को मुफ्त शिक्षा, छात्राओं को स्कूटी, 450 रुपये की रियायती दरों पर एलपीजी सिलेंडर, किसानों को सालाना 12,000 रुपये की मदद, कालेज छात्रों को 1,200 रुपये मासिक का परिवहन भत्ता और दिव्यांगों एवं वरिष्ठ नागरिकों को 1,500 रुपये की मासिक पेंशन जैसे वादे किए। मध्य प्रदेश में भाजपा दो दशकों से अधिक की अपनी सत्ता को लेकर कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की ऊब से जूझ रही थी। इस स्थिति को बदलने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उपहारों की पोटली खोल दी। इस साल उन्होंने महिलाओं के लिए लाड़ली बहना योजना आरंभ की।

शुरुआत हर महीने एक हजार की राशि से हुई। जब कांग्रेस ने 1,500 रुपये मासिक की ऐसी ही योजना का वादा किया तो शिवराज सरकार ने 1,250 रुपये महीना देना शुरू कर दिया। शिवराज ने इसे 3,000 रुपये प्रति महीने तक ले जाने का वादा किया है। मतदाताओं को लुभाने की इन दोनों दलों की यह मुहिम किसी नीलामी प्रक्रिया जैसी बन गई। जब कांग्रेस ने 500 रुपये में सिलेंडर का वादा किया तो शिवराज ने कहा कि वह 450 में ही सिलेंडर उपलब्ध कराएंगे। यहां कांग्रेस ने 100 यूनिट बिजली मुफ्त और उसके बाद की 100 यूनिट आधे दाम में देने के साथ ही छात्रों को मासिक भत्ते का वादा किया।

तेलंगाना का रुख करें तो राज्य पर तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज का बोझ बताया जा रहा है। पिछले दस वर्षों के दौरान राज्य पर कर्ज 300 प्रतिशत बढ़ा है। इसके बावजूद मतदाताओं को लुभाने के लिए लोकलुभावन वादे किए गए। सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस ने हर शादी में ‘सरकारी शगुन’ के तौर पर एक लाख रुपये देने का एलान किया। अलग-अलग समुदाय के हिसाब से इसका नाम भी ‘कल्याण लक्ष्मी’ और ‘शादी मुबारक’ रखा गया। इसके अतिरिक्त 15 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा, बीड़ी बनाने वालों को 5,000 रुपये का मानदेय और गरीब घरों की महिलाओं को 3,000 रुपये के अतिरिक्त किसानों के लिए कर्जमाफी का वादा किया।

बीआरएस को मात देने के लिए कांग्रेस ने भी कोई कोर-कसर शेष नहीं रखी। उसने कर्नाटक की तर्ज पर यहां भी कुछ गारंटियां दीं। बीआरएस के ‘सरकारी शगुन’ की हवा निकालने के लिए कांग्रेस ने ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय की दुल्हन को 1.60 लाख रुपये की राशि और हिंदू वधू को एक लाख रुपये की राशि के साथ ही एक तोला सोना देने का वादा किया। सरकारी शगुन में भी आखिर अंतर क्यों? असल में इसके माध्यम से भी समुदायों की सांस्कृतिक विविधताओं का लाभ उठाना है। मानो इतना ही काफी नहीं। कांग्रेस ने 18 साल से अधिक की छात्राओं के लिए इलेक्ट्रिक स्कूटी, आटो रिक्शा चालकों को सालाना 12,000 रुपये, विधवाओं के लिए 6,000 रुपये मासिक की पेंशन और किसानों को तीन लाख रुपये तक का ब्याज मुक्त कर्ज देने का भी वादा किया। भाजपा भी पीछे नहीं रही। उसने भी तमाम रेवड़ियों के साथ गरीब परिवारों को साल में चार सिलेंडर मुफ्त देने के साथ ही डीजल एवं पेट्रोल पर वैट घटाने का वादा किया।

रेवड़ियों के मामले में छत्तीसगढ़ में अपेक्षाकृत संयम दिखा। यहां निवर्तमान सरकार ने युवाओं को 2,500 रुपये का मासिक भत्ता और लड़कियों को शादी के दौरान 25,000 से 50,000 रुपये के अनुदान का वादा किया। चुनावी राज्यों में मिजोरम ही इकलौता ऐसा रहा, जहां रेवड़ियों की कोई चर्चा नहीं थी। रेवड़ी संस्कृति की शुरुआत यूं तो तमिलनाडु से हुई, जहां द्रविड़ पार्टियों विशेषकर अन्नाद्रमुक ने मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रेशर कुकर से लेकर टेलीविजन सेट तक दिए।

कालांतर में आम आदमी पार्टी ने इस रेवड़ी संस्कृति को नया आयाम देते हुए पहले दिल्ली और फिर पंजाब में सरकार बनाई, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस ‘पांच गारंटियों’ के जरिये इसे एक अलग ही स्तर पर ले गई। पंजाब में आप के हाथों मिली करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस ने चुनावी रेवड़ियों का एक नया तानाबाना बुना। इस चुनावी विसंगति को आखिर कौन दूर करेगा? अफसोस की बात है कि चुनाव आयोग केवल मूकदर्शक बनकर रह गया है। चूंकि राजनीतिक दलों में रेवड़ियों को लेकर परस्पर होड़ है इसलिए केवल न्यायिक हस्तक्षेप से ही कोई उम्मीद बची है। अदालत ने सवाल उठाया है कि वह इस इस मामले में क्या कर सकती है? उसे समय रहते हुए कोई सार्थक हस्तक्षेप करना होगा, अन्यथा कहीं स्थिति पूरी तरह नियंत्रण से बाहर न हो जाए। तब लोकतंत्र महज एक मखौल बनकर रह जाएगा।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)