हर 5 मिनट में फोन की तलब? यह 'टाइम पास' नहीं, आपकी सोचने की क्षमता खत्म होने का है अलार्म
आजकल जिसे देखो वहीं अपने फोन में नजर गड़ाए रहता है (Mobile Phone Addiction)। बिना मोबाइल के एक मिनट बिताना भी लोगों के लिए मुश्किल हो रहा है। लेकिन बा ...और पढ़ें

5 मिनट भी फोन से दूर रहना है मुश्किल? (Picture Courtesy: Freepik)
लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। क्या आप पांच मिनट भी बिना अपना मोबाइल देखे नहीं रह पाते या किसी काम के बीच में भी बार-बार आपका अपना फोन चेक करने का मन करने लगता है? अगर इन सवालों का जवाब हां है, तो इसे सिर्फ एक आदत नहीं, बल्कि एक चेतावनी समझिए (Screen Time Effects on Brain)।
जी हां, पहले जहां इंसान अपने खाली समय को कल्पना करने या कुछ नया सोचने में बिताता था, आज वहीं खाली समय काटना हमारे लिए पहाड़ बनता जा रहा है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि कुछ न करना हमें मुश्किल लगता है। बस में बैठे हों, लाइन में खड़े हों या किसी का इंतजार कर रहे हों, हाथ अपने आप फोन की ओर बढ़ जाता है। ऐसे में सवाल आता है कि बार-बार फोन देखने की लत हमारे दिमाग पर क्या असर डाल रही है?

(Picture Courtesy: Freepik)
खाली बैठना हो रहा है मुश्किल
दरअसल, आज खाली बैठना हमें बेचैन करने लगा है। हमारा ध्यान हमेशा हमारे फोन पर ही लगा रहा है। हर समय मोबाइल स्क्रीन पर टकटकी लगाए रखने की आदत हमारे फोकस, कॉन्सनट्रेशन और मेंटल हेल्थ पर गहरा असर डाल रही है।
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि जब इंसान ऊबता है या कुछ नहीं करता, तब दिमाग का एक खास हिस्सा एक्टिव होता है, जिसे डिफॉल्ट मोड नेटवर्क कहा जाता है। यही हिस्सा नई सोच, आत्म-चिंतन और इमोशनल बैलेंस में मदद करता है। लेकिन लगातार रील्स, शॉर्ट वीडियो और नोटिफिकेशन इस प्रक्रिया को बीच में ही रोक देते हैं। दिमाग को गहराई से सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता।
फोकस करने की क्षमता में गिरावट
न्यूरोसाइंटिस्ट्स के अनुसार, सोशल मीडिया दिमाग को बार-बार छोटे-छोटे डोपामिन शॉक देता है। इससे हमें तुरंत अच्छा तो लगता है, लेकिन धीरे-धीरे दिमाग गहरी सोच और लंबे समय तक फोकस करना भूलने लगता है। स्टडीज बताती हैं कि लगातार डिजिटल स्टिमुलेशन से फोकस करने की क्षमता 25 से 30 प्रतिशत तक घट सकती है और इसका नतीजा होता है, बेचैनी, चिड़चिड़ापन और मानसिक थकान।
बेचैनी बढ़ रही है
इसका असर सिर्फ ध्यान-क्षमता तक सीमित नहीं रहता। विशेषज्ञों का कहना है कि खाली समय से भागने की आदत क्रिएटिविटी को भी कम करती है। इंसान जल्दबाजी में फैसले लेने लगता है, छोटी-छोटी बातों पर तनाव महसूस करता है और एंग्जायटी व बर्नआउट जैसी समस्याएं बढ़ने लगती हैं।
खाली बैठना भी है जरूरी
ब्रिटिश साइकोलॉजिकल सोसाइटी के मुताबिक, ऊब कोई बीमारी नहीं है, बल्कि यह दिमाग की मरम्मत का समय होता है। यह वह वक्त है जब दिमाग खुद को संतुलित करता है। इसलिए विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि रोज कुछ समय जानबूझकर नो-स्क्रीन टाइम रखें। बिना फोन के टहलने जाएं, चुपचाप बैठें या सिर्फ आसपास के माहौल को महसूस करें। बच्चों को भी हर पल मोबाइल या टीवी से एंटरटेन करने की बजाय, उन्हें खुद से खेलने और सोचने का मौका दें।

(AI Generated Image)
दिनभर में 90 से ज्यादा बार फोन चेक
स्टडीज के अनुसार, एक आम व्यक्ति दिन में औसतन 90 से ज्यादा बार फोन चेक करता है। खाली समय में लगभग 70 प्रतिशत लोग तुरंत स्क्रीन की ओर चले जाते हैं। बच्चों और किशोरों में यह समस्या और तेजी से बढ़ रही है। मनोवैज्ञानिक इसे “बोरडम इंटॉलरेंस” कहते हैं, यानी शांति और खालीपन को सहन न कर पाना।
क्या है असली समस्या?
असल में यह बहस मोबाइल या सोशल मीडिया छोड़ने की नहीं है। सवाल बस इतना है कि क्यों हम अपने दिमाग को शांत नहीं रहने देना चाहते हैं? क्योंकि जब इंसान ऊबना भूल जाता है, तो वह गहराई से सोचना भी भूल जाता है। और यही आज की सबसे बड़ी मानसिक चुनौती बनती जा रही है।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।