नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। वो महफिलों की शान थी। अवध के नवाबों की जान थी। उसकी महफिल में संगीत और मुजरे का ऐसा संगम था कि देखने वाले वाह-वाह करते थे। फैजाबाद की मिट्टी में पैदा हुई उस तवायफ का असली नाम तो अमीरन था, लेकिन लखनऊ ने उसे जो नाम बख्शा आज भी वह उसी नाम से जानी जाती हैं। उसकी आंखों की मस्ती के तो नवाब भी दीवाने थे और तभी तो दिल क्या जान भी उस पर न्यौछावर थी। तभी तो ये गीत निकला 'तुम्हारी महफिल में आ गए हैं, तो फिर हम भी क्यों न ये काम कर लें।' जी हां, हम उमराव जान की ही बात कर रहे हैं। लेकिन फिल्मी नहीं असली उमराव जान की, जिसका असली नाम अमीरन था।

कौन थीं उमराव जान उर्फ अमीरन

उमराव जान अदा नाम से एक उर्दू उपन्यास है, जिसे मिर्जा हादी रुस्वा ने लिखा है और यह पहली बार 1899 में छपी। इस उपन्यास को गुलाब मुंशी एंड सन्स प्रेस लखनऊ ने छापा था। कई लोगों का मानना है कि यह उर्दू का पहला उपन्यास है। कहा जाता है कि जब लेखक लखनऊ में उमराव जान से मिले तो उन्होंने स्वयं अपनी यह पूरी कहानी उनको बतायी थी। उपन्यास में 19वीं सदी के लखनऊ को बड़ी ही बारीकी से पेश किया गया है। इसमें उस दौर के नैतिक पाखंड को भी अच्छे से उकेरा गया है। हालांकि कई लोगों का मानना है कि असल में कोई उमराव जान थी ही नहीं, यह तो लेखन की कल्पना मात्र है। ब्रिटिश दस्तावेजों में एक अजिजान बाई का जिक्र भी मिलता है, जिसके अनुसार उसे उमराव जान ने सिखाया है।

उमराव: फैजाबाद की अमीरन, लखनऊ की शान

उपन्यास के अनुसार अमीरन का जन्म फैजाबाद में हुआ था और दिलावर खान नाम का एक शख्स उसके पिता से बदला लेने के लिए उसका अपहरण कर लेता है। बाद में वह अमीरन को लखनऊ लाकर एक कोठे पर बेच देता है। यहां अमीरन को नया नाम मिलता है और वह है उमराव जान। धीरे-धीरे उमराव बड़ी होती गई और इस दौरान वह क्लासिकल डांस और म्यूजिक भी सीखती है। बाद में जब वह फैज अली से साथ कोठे से भाग कर फर्रुखाबाद की ओर जाती है पुलिस उन पर हमला कर देती है। तब उसे पता चलता है कि फैज एक डाकू है और ब्रिटिश दस्तावेजों में भी इस नाम के डाकू का जिक्र मिलता है।

अमीरन की जिंदगी में ऐसे ही कई मोड़ आते हैं, जो उसे कभी खुशी तो कभी गमों के सागर में धकेल देते हैं। एक वक्त ऐसा भी आता है जब वह फैजाबाद पहुंचकर अपनी मां से मिलती है। लेकिन उसका छोटा भाई, जिसे वह बचपन में अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करती थी, उससे कहता है- अच्छा होता तुम मर जाती। खैर उम्र बढ़ने के साथ उमराव का रूप भी जाता रहा। उसकी महफिलें शांत हो गईं। 

...जब अकेली पड़ गई थीं उमराव

महफिलों की शान व हर दिल अजीज उमराव जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर बिल्कुल ही अकेली पड़ गई थीं। डर्बीशायर क्लब के अध्यक्ष शकील अहमद जादूगर के अनुसार एक परिचित के मशवरे से उन्होंने लगभग वर्ष 1928 में बनारस का रुख किया। चौक क्षेत्र के गोविंदपुरा मोहल्ले में उन्हें पनाह मिली। यहीं पर गुमनाम जिंदगी गुजारते हुए 26 दिसंबर 1937 को उन्होंने अंतिम सांस ली। मंगलवार को उमराव की पुण्यतिथि है इसलिए आज हम उसका जिक्र कर रहे हैं। उमराव जान को फातमान स्थित काली गुंबद की मस्जिद के पास सिपुर्द-ए-खाक किया गया। शकील कहते हैं कि वर्ष 2004 में उन्हें उमराव के कब्र की जानकारी मिली। उनकी पुण्यतिथि पर प्रतिवर्ष यहां साफ-सफाई कर दुआख्वानी की जाती है। 

निजी प्रयासों से बना मकबरा

शकील अहमद ने बताया कि पिछले 12 वर्षों से उमराव की कब्र पर मकबरे की मांग की जाती रही। राज्य सरकार व जिला प्रशासन ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। पिछले दिनों गिलट बाजार निवासी शिल्पकार अरुण सिंह ने मकबरा बनाने का जिम्मा लिया। शहर में कई सांस्कृतिक धरोहरों का निर्माण करने वाले अरुण ने वादा निभाया भी। अब उमराव की कब्र पर शानदार मकबरा उनके इकबाल को बुलंदी दे रहा है। शकील कहते हैं कि मकबरा लगभग तैयार है, अब जरूरत यहां फ्लड लाइट लगाने की है। ताकि उमराव के चाहने वाले कभी भी उनके मकबरे का दीदार कर सकें। जिला प्रशासन से मांग है कि उमराव जान के मकबरे को पर्यटन स्थलों में शामिल किया जाए।

उमराव पर बनी कई फिल्में

उमराव जान के किरदार से प्रेरित होकर फिल्मकार कमाल अमरोही ने वर्ष 1972 में फिल्म 'पाकीजा' बनायी। इसमें मुख्य किरदार अभिनेत्री मीना कुमारी ने निभाया था। वर्ष 1981 में फिल्म निर्देशक मुजफ्फर अली ने 'उमराव जान' के नाम से फिल्म बनाई। अभिनेत्री रेखा ने इसमें उमराव जान का अमर किरदार निभाया था। अपने शानदार अभिनय से उन्होंने लोगों के बीच उमराव के अंतर-द्वंद्व, उसके प्रेम के साथ तत्कालिक सामाजिक परिवेश में स्त्रियों की दशा को मार्मिक ढंग से पेश किया। इस फिल्म के 25 साल बाद निर्देशक जेपी दत्ता ने साल 2006 में दोबारा 'उमराव जान' शीर्षक से फिल्म बनाई, जिसमें एश्वर्या राय ने यह किरदार निभाया। इस तरह आधुनिक पीढ़ियों तक उमराव की दास्तां सिने पर्दे से रवां होकर किरदार अमर हो गया।

- साथ में वाराणसी से मुहम्मद रईस

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