उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक त्यागपत्र देने से जो अनेक प्रश्न उठे हैं, वे सही ही हैं और उनके उत्तर भी मिलने चाहिए, लेकिन कहना कठिन है कि उत्तर मिलेंगे या नहीं? उपराष्ट्रपति ने जिस तरह यकायक बिना कोई संकेत दिए मानसून सत्र के पहले दिन अपना पद छोड़ दिया, वह इसलिए और अधिक चकित करने वाला है, क्योंकि दिन में वे सदन में सक्रिय थे और रात को उन्होंने यह कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि स्वास्थ्य कारणों से ऐसा करना पड़ रहा है।

किसी के स्वास्थ्य के मामले में अटकलबाजी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन उपराष्ट्रपति की बात आसानी से हजम नहीं हो रही है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि उनके और सरकार के बीच किसी मुद्दे पर मतभेद हुए और फिर वे इतने अधिक बढ़े कि उन्होंने आनन-फानन त्यागपत्र देना ठीक समझा। उपराष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्तियों को ऐसा करने से बचना चाहिए। जगदीप धनखड़ तो बड़े तेजतर्रार और बेबाक नेता हैं।

वे किसी भी मुद्दे पर कुछ भी कहने से संकोच नहीं करते हैं। पिछले कुछ समय से तो वे विभिन्न मुद्दों पर काफी तीखे बयान दे रहे थे-और तो और सुप्रीम कोर्ट को भी निशाने पर ले रहे थे। चूंकि वे वकील भी रहे हैं, इसलिए उनकी कानूनी एवं संवैधानिक समझ पर सवाल भी नहीं उठाया जा सकता। वे केवल कानूनी एवं संवैधानिक मामलों में ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक विषयों पर भी खुलकर बोलने के लिए जाने जाते हैं।

जब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे तो उनकी मुख्यमंत्री ममता से ठन गई थी और राज्यसभा के सभापति रहते कई विपक्षी नेताओं से। विपक्ष और उनके बीच तकरार इतनी अधिक बढ़ी कि कांग्रेस तो उनके खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी कर रही थी। कुछ अन्य विपक्षी दलों को भी उनका रवैया रास नहीं आ रहा था। उनके रवैये को लेकर सदन से बाहर भी सवाल उठाए जाते रहे।

उपराष्ट्रपति ने एक ऐसे समय त्यागपत्र दिया है जब भाजपा अपना नया अध्यक्ष चुनने के लिए माथापच्ची कर रही है। अब भाजपा को उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी तलाश करना होगा। स्पष्ट है कि जगदीप धनखड़ ने भाजपा का काम बढ़ा दिया। यह भी ध्यान रहे कि उनका त्यागपत्र प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा के ठीक पहले आया और संसद के इस सत्र में कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा भी होनी है।

यह विचित्र ही नहीं हास्यास्पद भी है कि राज्यसभा के जो सभापति कल तक विपक्ष को रास नहीं आ रहे थे, वे अचानक नेक, विनम्र, निष्पक्ष, गुणी आदि नजर आने लगे। कम से कम ऐसा ढोंग तो नहीं किया जाना चाहिए जो साफ नजर आए। उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र पर विपक्षी दलों के सवाल सही तो हैं, लेकिन आखिर वे यह क्यों भूल गए कि पिछले दो सालों में उनसे उनकी शायद ही कभी बनी हो।