अजय कुमार। टैरिफ नीति के पीछे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की चाहे जो मंशा हो, लेकिन इससे किसी का कोई भला नहीं होने वाला। इसके जरिये देशों को निशाना बनाया जा रहा है और प्रतिस्पर्धा को कुंद किया जा रहा है। इसके चलते खुद अमेरिका के लिए मूल्य वृद्धि, आपूर्ति शृंखला में गतिरोध और जवाबी कदम जैसे जोखिम बढ़ गए हैं। भारत में ट्रंप टैरिफ की बहुत चर्चा है। अमेरिका ने जिस तरह साफ्टवेयर एवं सेवाओं, मोबाइल फोन और दवाओं को इन प्रतिबंधों के व्यापक दायरे से दूर रखा है, वह यही दर्शाता है कि कहीं न कहीं उसे भी अपनी आर्थिकी पर इसके गंभीर असर की आशंका महसूस हो रही है।

उसके निशाने पर मुख्य रूप से कपड़े, परिधान, फर्नीचर, बिस्तर, कालीन, मशीनरी, धातु, आभूषण, वाहन कलपुर्जे, पेट्रोलियम, झींगे और रसायन जैसे उत्पाद हैं। अमेरिका को लगता है कि इसके जरिये दबाव बढ़ाकर वह भारत को व्यापार समझौते के लिए विवश कर देगा। हालांकि वास्तविकता देखें तो हालात अमेरिका के उतने अनुकूल भी नहीं हैं। ऊंचे टैरिफ से भारत को कुछ कठिनाइयां जरूर झेलनी पड़ सकती हैं, पर अमेरिका को इसकी कहीं बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी होगी।

कपड़ों एवं परिधान के उदाहरण से इसे बखूबी समझा जा सकता है। इसे अक्सर भारत के सबसे नाजुक कारोबारी क्षेत्रों में गिना जाता है। भारत ने 2024-25 में 35 अरब डालर का कपड़ा एवं परिधान निर्यात किया। इसमें 8.4 अरब डालर निर्यात अमेरिका को किया गया। भारत के अन्य प्रमुख कपड़ा एवं परिधान बाजार यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, जापान, आस्ट्रेलिया और पश्चिम एशिया हैं।

यूरोपीय संघ भी विशालकाय बाजार है। जहां अमेरिका 107 अरब डालर का आयात करता है, वहीं यूरोपीय संघ 400 अरब डालर सालाना से अधिक। इस बाजार में भारत के लिए व्यापक अवसरों के द्वार खुलने की संभावना है। ब्रिटेन ही 27 अरब डालर का आयात करता है। हाल में उसके साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते( एफटीए) के बाद भारतीय निर्यातकों को इस बाजार में चीनी आपूर्तिकर्ताओं के मुकाबले 8 से 12 प्रतिशत का लागत लाभ हासिल होने की संभावना है। आस्ट्रेलिया के साथ व्यापार समझौते के चलते वहां भी यही स्थिति है। जापान और दक्षिण कोरिया भी चीन से खरीदारी से इतर विकल्प तलाशने में लगे हैं तो भारत शून्य या घटी हुई ड्यूटी के जरिये इस अवसर का लाभ उठा सकता है। अन्य उभरते हुए बाजारों में भी व्यापक अवसर हैं।

भारत अपने निर्यात को न्यूनतम दीर्घकालिक नुकसान के साथ नए सिरे से संयोजित कर सकता है। सरकारी सहायता भी इस संक्रमण के दौर को सुगम बनाने में सहायक होगी। भारत का कुल निर्यात 825 अरब डालर के स्तर को पार करते हुए 6 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रहा है। इसलिए यदि अमेरिका को होने वाले निर्यात से कुछ असर भी पड़े तो भारत उसे झेल सकता है। हालांकि अमेरिकी उपभोक्ताओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। उनके लिए कीमतें खासी बढ़ जाएंगी, विशेष रूप से उन विशिष्ट भारतीय उत्पादों की, जिनके विकल्प भी बहुत सीमित हैं।

पश्मीना शाल की ही बात करें तो भारत अमेरिका को सबसे अधिक मात्रा में इसका निर्यात करता है। टैरिफ के चलते इसकी कीमतों में 50 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकती है। यही बात बनारसी, कांजीवरम साड़ी और पटोला पर भी लागू होती है। अपेक्षाकृत कम विशिष्ट उत्पादों के मामले में स्थिति अधिक लचीली और विकल्पों से भरी होती है। अभी चीन, वियतनाम, बांग्लादेश और भारत कुल अमेरिकी आयात का 60 प्रतिशत आपूर्ति करते हैं।

नई टैरिफ दरों के चलते वियतनाम, बांग्लादेश जैसे किसी और देश की हिस्सेदारी इसमें बढ़ सकती है। इसके बावजूद आम अमेरिकियों को कपड़ा एवं परिधान पर 18 प्रतिशत तक अधिक खर्च करना पड़ सकता है। चूंकि घरेलू उपभोग में परिधान पर व्यय की एक बड़ी हिस्सेदारी होती है, इसलिए उनकी कीमतों में निरंतर बढ़ोतरी का असर मौद्रिक नीति में सख्ती के रूप में निकलेगा, जो अंतत: अमेरिकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार को सुस्त करेगी।

ऊंचे टैरिफ से अमेरिका के राजस्व में बढ़ोतरी का अनुमान भी धरा का धरा रह सकता है। कीमतें बढ़ने से मांग घट सकती है तो राजस्व भी घटेगा। टैरिफ से घरेलू उत्पादन के कायाकल्प की बातें भी बेमानी लगती हैं, क्योंकि वस्त्र उद्योग में एकाएक उत्पादन बढ़ाने की व्यापक क्षमताएं मौजूद ही नहीं। टैरिफ से तात्कालिक मुनाफा घटेगा, जिससे स्टोर बंद करने की नौबत आ सकती है और डिजाइन, वितरण, लाजिस्टिक्स और खुदरा क्षेत्र में नौकरियों पर संकट मंडरा सकता है। सामाजिक तानेबाने पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है।

प्रमुख अमेरिकी व्यापारिक केंद्रों पर मुख्य रूप से भारतीय मूल के उद्यमी न केवल भारत से आयात, अपितु डिपार्टमेंटल स्टोर, फैशन ब्रांड और ई-कामर्स इकाइयों को आपूर्ति भी नियंत्रित करते हैं। ऊंचे टैरिफ न केवल भारतवंशियों के इस तबके, बल्कि व्यापक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भी अहित करेंगे।

ट्रंप की टैरिफ नीति ने भारत-अमेरिका साझेदारी पर भी ग्रहण लगाने का जोखिम बढ़ा दिया है। भारत की स्वतंत्रता के बाद अधिकांश समय दोनों देशों के रिश्तों में एक दूरी बनी रही और इस सदी की शुरुआत से ही उसमें गर्मजोशी का भाव बढ़ा।

रिश्तों में कायापलट के इस दौर में इलेक्ट्रानिक्स, आइटी और रक्षा मंत्रालय में सेवा के दौरान मुझे भी इन क्षेत्रों में बढ़ते रिश्तों में योगदान देने का अवसर मिला। ये क्षेत्र हमारी आर्थिक एवं रणनीतिक साझेदारी के स्तंभ के रूप में उभरे। ऐसे में यह बहुत सालने वाली बात है कि द्विपक्षीय रिश्तों में दो दशकों की मेहनत पर संकीर्ण स्वार्थ से प्रेरित तात्कालिक फायदे वाले एक कदम से पानी फेरा जा रहा है।

तकनीकी सहयोग और रक्षा साझेदारी जैसे मामलों में जहां विश्वास ही मायने रखता है, वहां खटास भरा माहौल बहुत प्रतिकूल होता है। जब चीन के उभार को संतुलित करने के लिए अमेरिका को भारत से सहयोग बढ़ाना चाहिए, तब नई दिल्ली को वैकल्पिक साझेदारियों की ओर धकेला जा रहा है। इससे अमेरिका व्यापार में नुकसान उठाने के साथ ही अपना जियो-पालिटिकल लाभ भी गंवाएगा।

(लेखक संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व रक्षा सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार किसी संस्था के नहीं)