भारतीय संस्कृति में शील रूपी गुण का बहुत अधिक महत्व दिया गया है। एक संस्कृत श्लोक का अर्थ है कि जो लोग न तो विद्यावान हैं और न ही जिनमें ज्ञान, तप व शील आदि गुण हैं, ऐसे लोग पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं। वैसे तो शील शब्द मनुष्य के चरित्र का परिचायक है, लेकिन यह व्यापक रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे मानवीय मूल्यों और सामाजिक संबंधों पर आस्था होना, कोई भी ऐसा काम न करना जिससे लज्जित होना पड़े। स्वाभाविक सौम्यता, प्रलोभनों से परे होना और चंचलता, वाचालता आदि का न होना।

भगवान राम वाल्मीकि रामायण में कहते हैं कि मनुष्य भले ही बड़ा ज्ञानवान, बली, कुलीन और धनी हो, परंतु यदि वह शील से रहित है तो वह समाज में विश्वसनीय नहीं होता और न ही किसी तरह से आदर पाता है। इसके विपरीत यदि वह भले ही छोटे कुल का साधारण व्यक्ति हो, परंतु शील संपन्न हो तो वह सबका विश्वास और आदर पाता है। आचार्य तुलसी कहते हैं कि जैसे नदियां समुद्र की ओर जाती हैं यद्यपि उन्हें इनकी कामना नही होती है वैसे ही सभी गुण और संपदाएं शीलवान व्यक्ति के पास अपने आप आ जाती हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि शंकराचार्य, शिवाजी, राणा प्रताप विवेकानंद आदि की महानता का स्तर शील के अभाव में हम सोच भी नहीं सकते।

मातृशक्ति की पहचान तो केवल शील से ही होती है। शील से रहित भारतीय नारी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शील गुण जन्मजात भी होता है और संस्कार के अभ्यास से विकसित भी किया जाता है, परंतु जीवन में जैसे प्राण आवश्यक है वैसे ही व्यक्तिगत, व्यावहारिक-सामाजिक में शील गुण का होना अनिवार्य है। शील संपन्न व्यक्ति को संतोष व शांति का अनुभव होता है। वह न केवल स्वयं का जीवन सफल करता है, बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा का स्नोत भी होता है। आइए हम इस दिव्य शील गुण को धारण करें।

[राम कुमार शुक्ल]

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