दिव्य कुमार सोती। बंबई की लोकल ट्रेनों को इस महानगर की जीवनरेखा कहा जाता है। 19 साल पहले 11 जुलाई, 2006 को इसी जीवनरेखा में सैकड़ों लोगों की जीवनलीला समाप्त हो गई थी। उस दिन सात लोकल ट्रेनों में छह मिनट के भीतर शृंखलाबद्ध बम धमाकों में 187 लोग मारे गए और 800 से अधिक घायल हुए थे। इन धमाकों को भारतीय इतिहास के सबसे भीषण आतंकी हमलों में से एक माना गया। 7/11 धमाकों की भयावहता ऐसी थी कि कई घायल अपनी चोट से उबर नहीं पाए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई।

उन वीभत्स दृश्यों के साक्षी बने तमाम लोग मानसिक रूप से बीमार हो गए। हमलों की जांच महाराष्ट्र एटीएस को सौंपी गई। एटीएस की जांच में सामने आया कि धमाकों के पीछे पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ थी, जिसने स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया यानी सिमी के स्थानीय जिहादियों का इस्तेमाल किया। इन धमाकों में पाकिस्तानी भी शामिल थे और उनमें से एक धमाकों में मारा भी गया था। मामले से जुड़े आरोपपत्र में एटीएस ने 28 लोगों को आरोपित बनाया, जिनमें से 13 पर ही केस चल सका।

शेष 15 में पाकिस्तानी नागरिक भी शामिल हैं, जो आज तक जांच एजेंसियों की पकड़ से बाहर हैं। विशेष मकोका न्यायालय ने 2015 में आरोपितों में से पांच को मृत्युदंड और सात को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। अब 2025 में बांबे हाई कोर्ट ने सभी सजायाफ्ता 12 लोगों को यह कहते हुए दोषमुक्त कर दिया कि अभियोजन पक्ष अपने आरोप सिद्ध करने में पूरी तरह विफल रहा। उसने इसके कई कारण बताए, जो न केवल चौंकाने वाले, अपितु ऐसे संवेदनशील मामलों में लचर रवैये को भी दर्शाने वाले हैं।

आरोपितों को बरी करने का अर्थ यह नहीं है कि आतंकी साजिश नहीं रची गई थी या जांच एजेंसियां झूठ बोल रही थीं। इसका प्रमाण यह है कि चार्जशीट में नामित दो आरोपित अब्दुल रज्जाक और सोहेल शेख 19 वर्षों से फरार हैं। उनके बारे में यही माना जाता है कि वे अब पाकिस्तान में रह रहे हैं। उच्च न्यायालय का 600 से अधिक पन्नों का निर्णय पढ़ने पर पता लगता है कि देश का सिस्टम इतने संवेदनशील मामले में भी कितने लचर और शर्मनाक तरीके से काम कर रहा था। आरोपितों में से एक 8 नवंबर, 2003 को भारतीय पासपोर्ट पर जेद्दा गया और वहां से ईरान होते हुए आतंकी ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान चला गया। वहां उसने अपना भारतीय पासपोर्ट नष्ट कर दिया।

वापस लौटते हुए आइएसआइ ने उसे एक फर्जी पाकिस्तानी पासपोर्ट दिया, जिसके साथ उसे जेद्दा में गिरफ्तार कर लिया गया। उसके पास भारतीय पासपोर्ट नहीं था, पर उसे आपातकालीन अनुमति पर भारत आने दिया गया। इसके बाद भी किसी एजेंसी ने उसकी जांच करने की आवश्यकता नहीं समझी और वह अगले दो साल तक आराम से भारत में इन धमाकों की साजिश रचता रहा। हाई कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अभियोजन ने कैसे आरोपितों के दोषमुक्त होने की राह खोली। एक प्रत्यक्षदर्शी जिसने दो आरोपितों को ट्रेन की बोगी में बम वाला बैग रखकर उतरते हुए देखा था और जिसके बयान के आधार पर पुलिस द्वारा आरोपितों के स्कैच बनवाए गए थे, उसके द्वारा आरोपितों की शिनाख्त कभी पुलिस ने कराई ही नहीं।

जबकि यह साक्षी बम धमाके में घायल हुआ था। जो अन्य पांच प्रत्यक्षदर्शी धमाकों में घायल हुए थे, के बयान कभी कोर्ट में दर्ज ही नहीं कराए गए। इन घायलों में पुलिस कांस्टेबल संतोष प्रकाश खानविलकर भी थे। उन्होंने आतंकियों को देखा भी था, पर पुलिस ने अपने ही कर्मचारी की गवाही कराना भी जरूरी नहीं समझा। मोहन कुमावत की दुकान से आतंकियों ने वे कुकर खरीदे, जिन्हें जिन्हें बम के रूप में ढाला गया। कुमावत से भी न तो आतंकियों की शिनाख्त कराई गई और न ही उन्हें कोर्ट में गवाही के लिए बुलाया गया।

कई प्रत्यक्षदर्शियों के जो बयान दर्ज किए, वे भी 100 दिनों बाद। प्रत्यक्षदर्शियों से अलग साक्षियों के समक्ष जो शिनाख्त परेड कराई गई, वह भी चार महीने बाद कराई गई। जिस अधिकारी ने शिनाख्त परेड कराई, वे उसके लिए अधिकृत ही नहीं पाए गए। कोर्ट ने पुलिस की कार्यशैली और अभियोजन के रवैये पर भी कठोर टिप्पणियां की हैं। फैसले को पढ़कर लगता है कि जैसे गवाहों को कोर्ट में पेश न किए जाने के चलते न्यायाधीश आरोपितों को छोड़ने पर मजबूर हो गए। यह कोई पहला ऐसा मामला नहीं है।

1993 मुंबई बम धमाकों के अधिकांश मास्टरमाइंड आज तक पुलिस की पकड़ से दूर हैं। जयपुर और वाराणसी बम धमाकों के मामले में निचली अदालतों से फैसले इस साल ही आए हैं और इनमें आगे क्या होगा, कोई नहीं जानता। 2022 में अहमदाबाद बम धमाके के 77 आरोपितों में से 28 कोर्ट से बरी हो गए थे। 2011 में दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुए बम धमाके से जुड़े मामले में आज तक फैसला नहीं आया है। 1996 में दिल्ली के लाजपत नगर बम धमाके के तीन आरोपितों की फांसी की सजा दिल्ली हाई कोर्ट ने समाप्त कर दी थी।

पिछले चार दशकों में असंख्य आतंकी हमले झेलने वाले देश में अजमल कसाब, अफजल गुरु और याकूब मेमन को छोड़कर किसी को फांसी की सजा हुई हो, यह याद नहीं पड़ता। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में फांसी की सजा पाए बलवंत सिंह राजोआना को 2007 में न्यायालय से मिली फांसी की सजा को आज तक अमल में नहीं लाया जा सका है।

लचर अभियोजन के चलते 7/11 ट्रेन धमाकों के सभी आरोपितों के बरी हो जाने पर देश के सरकारी सिस्टम में बैठे हर व्यक्ति को स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि क्या उन 187 लोगों को किसी ने नहीं मारा था? सिर्फ आर्थिक विकास ही किसी देश को विकसित राष्ट्र नहीं बनाता। उसकी व्यवस्थाएं भी उतनी ही विकसित होनी चाहिए और न्याय व्यवस्था तो सारी व्यवस्थाओं की रीढ़ होती है। जहां हम विश्व भर के देशों से आतंकवाद पर सख्त रवैया अपनाने की मांग करते हैं, वहीं खुद हमारी एजेंसियां और अभियोजन आतंकी हमलों के मामलों में लापरवाही दिखाते हैं।

(लेखक काउंसिल ऑफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सुरक्षा मामलों के विश्लेषक एवं अधिवक्ता हैं)