राहुल लाल। कट्टरपंथी न्यायाधीश इब्राहिम रईसी को ईरान का नया राष्ट्रपति चुना गया है। रईसी देश के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामनेई के करीबी हैं। ईरानी राष्ट्रपति चुनाव में विजयी प्रत्याशी को न्यूनतम 50 प्रतिशत मत प्राप्त करना होता है। जब कभी ऐसा नहीं होता है तो फ्रांस की तरह प्रथम एवं द्वितीय स्थान प्राप्त करने वाले प्रत्याशियों के बीच पुन: चुनाव होता है, लेकिन रईसी को प्रारंभिक मतगणना में ही 62 फीसद से अधिक मत प्राप्त हुए।

ईरानी गृह मंत्रलय के अनुसार इब्राहिम रईसी को एक करोड़ 78 लाख मत प्राप्त हुए, जबकि प्रतिद्वंद्वी ईरान के प्रमुख सैन्य बल रिवोल्यूशनरी गार्ड के पूर्व कमांडर मोहसिन रेजाई को केवल 33 लाख और सेंट्रल बैंक के पूर्व प्रमुख अब्दुलनसर हिम्मती को 24 लाख ही मत मिले। अगल कुछ माह में नए राष्ट्रपति उदारवादी माने जाने वाले मौजूदा हसन रूहानी की जगह लेंगे। हसन रूहानी 2013 में राष्ट्रपति बने थे और दो बार लगातार इस पद रह चुके हैं। ईरान के संविधान के अनुसार कोई व्यक्ति अधिकतम केवल दो कार्यकाल तक ही राष्ट्रपति पद पर रह सकता है। इस कारण हसन रूहानी इस बार प्रत्याशी नहीं थे।

अभी ईरान की राजनीतिक व्यवस्था में देश से जुड़े सभी मामलों पर आखिरी फैसला सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामनेई का होता है। उनके बाद राष्ट्रपति देश का दूसरा सर्वोच्च पद है। रईसी को खामनेई के उत्तराधिकारी के रूप में भी देखा जा रहा है। वर्ष 1979 के इस्लामिक क्रांति के बाद वहां के सर्वोच्च पद पर अब तक केवल दो लोग ही पहुंचे हैं। इनमें से पहले ईरानी गणतंत्र के संस्थापक अयातुल्ला रूहोल्ला खामनेई थे और दूसरे अभी के अयातुल्ला अली खामनेई हैं। अयातुल्ला अली खामनेई 82 वर्ष के हो चुके हैं। इसलिए उनके उत्तराधिकारी पर अब चर्चा प्रारंभ हो गई है।

गार्डियन काउंसिल ने रईसी की राह को बनाया आसान : इस बार ईरानी चुनाव में गाíडयन काउंसिल ने राष्ट्रपति चुनाव को लेकर असामान्य रूप से कड़े नियम लागू किए थे। इसने राष्ट्रपति चुनाव में भाग लेने के लिए 590 में से केवल सात उम्मीदवारों को स्वीकृति दी थी। इस तरह काउंसिल ने कठोरता पूर्वक अधिकांश उम्मीदवारों को हटा दिया था। इन सात में भी मतदान के दो दिन पूर्व तीन उम्मीदवारों ने नाम वापस ले लिए थे। अंतत: चुनाव में चार उम्मीदवारों ने ही भाग लिया। गाíडयन काउंसिल के इस रवैया ने वोटरों का उत्साह कम किया था। संसद के पूर्व स्पीकर अली लारिजानी समेत कई उम्मीदवारों को राष्ट्रपति पद की रेस में शामिल होने से पहले अयोग्य घोषित कर दिया गया। इस तरह रईसी के बिना किसी विरोध जीतने की व्यवस्था हो गई। अली लारिजानी को अयोग्य ठहराए जाने के बाद कई लोग सर्वोच्च नेता से हस्तक्षेप की उम्मीद कर रहे थे, परंतु गाíडयन काउंसिल के इस निर्णय का उन्होंने भी मजबूती से समर्थन किया। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने गाíडयन काउंसिल में अपने प्रभाव का प्रयोग कर रईसी के मार्ग से बाधाओं को दूर किया। आयतुल्ला अली खामनेई भी खुद सर्वोच्च नेता बनने से पहले दो बार राष्ट्रपति पद पर रह चुके हैं। ऐसे में रईसी के लिए भी सर्वोच्च नेता बनने से पहले राष्ट्रपति पद का अनुभव आवश्यक था। अब सर्वोच्च नेता पद के लिए उनका रास्ता और भी आसान हो जाएगा।

ईरानी परमाणु कार्यक्रम का भविष्य : अपने परमाणु कार्यक्रम और इसे लेकर पश्चिमी देशों के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के कारण भी ईरान इन दिनों अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के केंद्र में है। ईरान में हसन रूहानी इस आश्वासन के बाद चुनाव जीते थे कि वे पश्चिमी देशों के साथ रिश्ते बेहतर करेंगे। इस संदर्भ में उन्होंने वर्ष 2015 में पश्चिमी देशों के साथ ऐतिहासिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर भी किया था। इस समझौते के बाद ईरान पर लगे आíथक प्रतिबंध हटा लिए गए थे, परंतु अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में इस समझौते को एकपक्षीय रूप से समाप्त कर दिया तथा ईरान पर पुन: आíथक पाबंदियां लागू कर दीं। अब अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस समझौते पर पुन: वापस आने की इच्छा जताई है। हालांकि ईरान के परमाणु समझौते को फिर से लागू करने को लेकर वियना में पश्चिमी देशों के साथ चल रही अंतरराष्ट्रीय वार्ता टूट गई है।

माना जा रहा है कि वार्ता के सभी पक्षकार इस मामले में रईसी का पक्ष देखना चाहते हैं। दरअसल इब्राहिम रईसी की छवि ठीक नहीं है। रईसी 1988 में तेहरान इस्लामिक रिवोल्यूशन कोर्ट के डिप्टी अभियोजक के रूप में उस चार सदस्यीय आयोग के सदस्य थे, जिसने हजारों लोगों को मृत्युदंड की सजा दी थी। इस आयोग को पश्चिमी देशों में डेथ कमीशन भी कहा जाता है। इसी कारण अमेरिका ने रईसी पर प्रतिबंध लगा रखा है। ऐसे में रईसी के राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के तत्काल पश्चिमी देशों से संबंध बहुत बेहतर होने की संभावना कम है। इस हालत में यह कहना मुश्किल है कि वह परमाणु समझौते को लेकर बातचीत को किस दिशा में ले कर जाएंगे। हालांकि हाल ही में रईसी ने कहा था कि पश्चिमी देशों के साथ ईरान के परमाणु समझौते को सर्वोच्च नेता ने मंजूरी दी थी इसलिए वह इसका समर्थन करते हैं। उनकी मजबूत सरकार इसका पालन कराएगी। इस समझौते के तहत ईरान के यूरेनियम संवर्धन को 3.67 फीसद तक सीमित कर दिया गया था।

ईरानी विदेश नीति में संभावित परिवर्तन : परंपरागत तौर पर ईरान अपनी विदेश नीति में ‘न पूर्व और न पश्चिम’ की नीति का पालन करता है, लेकिन हाल में सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामनेई तथा नए राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने अब ‘पूर्व को प्राथमिकता’ की बात कही है। जाहिर है इसका मध्य-पूर्व में व्यापक असर होगा। मध्य-पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को इससे समझा जा सकता है कि दो बड़े देश सऊदी अरब और मिस्र को छोड़कर ईरान ने तमाम देशों से दोस्ती कायम कर ली है। माना जा रहा है कि रईसी के आने के बाद यमन में ईरानी समर्थित समूह को ईरान से अधिक सैन्य और आíथक सहायता मिलेगी, जो सऊदी अरब के लिए शुभ संकेत नहीं है। वहीं फलस्तीनी क्षेत्र में हमास की स्थिति और मजबूत होगी, जिससे इजरायल की चिंता में भी वृद्धि होगी। इसके अलावा इराक और सीरिया में भी ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड के प्रभुत्व में स्वाभाविक वृद्धि होगी। यह जहां अमेरिका को परेशान करेगा, वहीं चीन और रूस इसका स्वागत करेंगे।

ईरान पर है चीन की नजर : दरअसल ईरान में राजनीतिक शक्ति दो भागों में बंटी है। प्रथम सर्वोच्च नेता और गाíडयन काउंसिल तो दूसरी राष्ट्रपति और निर्वाचित संसद। रईसी को राजनीतिक व्यवस्था के सभी पक्षों का समर्थन प्राप्त है। उनके पास अपने निर्णयों को लागू करने की संपूर्ण शक्ति भी है, क्योंकि उन्हें सर्वोच्च नेता का समर्थन प्राप्त है। इसमें दो राय नहीं कि रईसी ईरान में लंबे समय तक नीति निर्धारक रहेंगे। उधर चीन ईरान के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है। हालांकि चीन जिस तरह सऊदी अरब से ‘रणनीतिक तेल भंडार’ का सृजन कर रहा है, वहीं संयुक्त अरब अमीरात की कंपनियों से भी समझौता कर रहा है। इस वजह है कि ईरान चीन पर पूर्ण विश्वास नहीं कर रहा है। चीन-ईरान के पिछले वर्ष के समझौता के एक अनुच्छेद अनुसार चीन को ईरान की हर रुकी या अधूरी पड़ी परियोजनाओं को दोबारा शुरू करने का प्रथम अधिकार होगा। चीन ने यह अनुच्छेद चाबहार में भारत को चुनौती देने के लिए समझौते में डाला था। चाबहार के नियंत्रण को अगर भारत खो देता है तो इससे भारत की ऊर्जा आपूíत प्रभावित होगी। ऐसा होने पर भारत को पश्चिम एशिया से कच्चा तेल उन समुद्री मार्गो से लाना होगा, जिन पर चीन का नियंत्रण होगा। हालांकि कहा जा रहा है कि ईरान के नए राष्ट्रपति भारत को लेकर भरोसा रखते हैं। इसलिए भारत को भी इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए।

भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए ईरान जरूरी : ईरान भारत को अपने विश्वस्त मित्र के रूप में देखता रहा है। हालांकि हाल के समय में अमेरिकी आíथक प्रतिबंधों के कारण भारत-ईरान संबंध प्रभावित हुए हैं। भारत अब तक केवल संयुक्त राष्ट्र के ही प्रतिबधों को महत्व देता था, लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों को महत्व देने से भारत-ईरान संबंधों में गर्मजोशी घटी है। भारत अपनी आवश्यकता का 84 फीसद तेल आयात करता है। भारत के लिए कच्चा तेल आयात में समस्या तब उत्पन्न हो गई, जब अमेरिका ईरान से परमाणु करार से बाहर हुआ। अप्रैल 2019 में डोनाल्ड ट्रंप ने स्पष्ट कर दिया कि भारत आगे ईरान से तेल नहीं खरीदे।

लिहाजा भारत ने ईरान से तेल खरीदना पूर्णत: बंद कर दिया। ईरान से तेल आयात करने वाले देशों में भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। ईरान भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर से 25 फीसद कम मूल्य पर तेल दे रहा था। इसके अतिरिक्त वह एशियाई प्रीमियम चार्ज भी नहीं लगा रहा था। ईरानी तेल गुणवत्ता की दृष्टि से दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, इसलिए ईरानी तेल को ‘स्वीट ऑयल’ भी कहते हैं। अब भारत अमेरिका और सऊदी अरब से तेल आयात कर रहा है। अमेरिकी तेल परिवहन की दृष्टि से महंगा है और गुणवत्ता की दृष्टि से भी अच्छा नहीं है। भारत अब पुन: अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए ईरान को महत्व देने पर विचार कर रहा है। चूंकि ईरान इस समय भयावह आíथक संकट से जूझ रहा है। ऐसे में अगर भारत ईरान से तेल खरीदता है तो इसका जबरदस्त आíथक लाभ ईरान को होगा। इससे भारत-ईरान संबंध आने वाले दौर में और भी घनिष्ठ हो सकते हैं।

भारत के लिए चाबहार प्रोजेक्ट का महत्व : वैसे तो भारत ने अमेरिकी प्रतिबंधों से ‘चाबहार प्रोजेक्ट’ एवं चाबहार रेल प्रोजेक्ट को बाहर रखवाया है। इसके बावजूद प्रोजेक्ट की गति धीमी है। इन दोनों प्रोजेक्ट पर भारत और ईरान के बीच 2016 में समझौता हुआ था। भारत के लिए चाबहार प्रोजेक्ट सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। भारत-ईरान-अफगानिस्तान इस पोर्ट के जरिये ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर बनाने के लिए त्रिपक्षीय समझौता कर चुके हैं। ईरान के नए राष्ट्रपति ने चुनाव के दौरान चाबहार प्रोजेक्ट को लेकर भारत का समर्थन किया था। अब आवश्यक है कि भारत इसके निर्माण कार्य में तेजी लाए। भारत से ईरान की दूरी के बीच चीन ने पिछले वर्ष ईरान से 400 बिलियन डॉलर का समझौता कर लिया। चीन चाबहार बंदरगाह पर भी नजर बनाए हुए है।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]