दिव्य कुमार सोती। अफगानिस्तान-पाकिस्तान की सीमा पर इन दिनों फिर से तनाव पसरा हुआ है। सीमा पर हो रही हिंसक झड़पों में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं। ये झड़पें तब शुरू हुईं जब पिछले हफ्ते पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के भीतर हवाई हमले किए। तालिबान का कहना है कि इन हवाई हमलों में 46 लोग मारे गए, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी हैं।

पाकिस्तान का आरोप है कि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार पाकिस्तान में आतंकी हमले करने वाले तहरीक ए तालिबान यानी टीटीपी को शह दे रही है और यह संगठन वहीं से पाकिस्तान में अपनी गतिविधियां संचालित करता है। पाकिस्तान का दावा है कि इन हमलों में उसने टीटीपी के ठिकानों को ही निशाना बनाया है। उसने यह भी कहा कि तालिबान सरकार से कई बार टीटीपी के आतंकी कैंपों पर कार्रवाई के अनुरोध पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया और अंतत: खुद पाकिस्तानी सेना को ही कार्रवाई करनी पड़ी और ये हमले किए गए।

यह पाकिस्तान का ही सपना था कि एक दिन अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आए और इसके लिए उसने हर चाल चली। यहां तक कि अमेरिका को भी लगभग दो दशकों तक धोखा दिया। अब काबुल में तालिबान सरकार है तो पाकिस्तान की उससे बन नहीं रही है, क्योंकि तालिबानी नेता पाकिस्तान के इशारों पर नाचने को तैयार नहीं हैं। पाकिस्तानी रणनीतिकारों ने अफगानिस्तान की राजनीति को समझने में एक मूलभूत गलती की।

पाकिस्तान के निर्माण के बाद से अफगानिस्तान में राजशाही, सोवियत समर्थित कम्युनिस्ट सरकारें और तालिबान की इस्लामिक सरकारें रही हैं, लेकिन किसी ने भी अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरंड रेखा को मान्यता नहीं दी। डूरंड रेखा ही वर्तमान पाकिस्तान-अफगानिस्तान की सीमा है। इसे मान्यता न देने के पीछे कारण यह है कि यह रेखा पश्तून (पख्तून) इलाकों को दो हिस्सों में बांटती है, जिसके चलते चार करोड़ पश्तूनों को पाकिस्तान के शासन में रहना पड़ रहा है।

जबकि वे स्वाभाविक रूप से अफगानिस्तान से जुड़ाव महसूस करते हैं। इस कबीलाई भावना को दबाने के लिए ही पाकिस्तान ने इस्लामिक कट्टरवाद को हवा दी। अपने कब्जे वाले पश्तून इलाकों में सैंकड़ों मदरसे स्थापित कर पाकिस्तानी फौज ने ही तालिबान को खड़ा किया। 9/11 के बाद पाकिस्तान ने तालिबानी नेताओं को पाकिस्तान में अपने संरक्षण में यह कहकर रखा कि वह उन्हें अमेरिका से बचाना चाहता है।

पाकिस्तान ने उनके जरिये अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना पर हमले कराए और अमेरिकी दबाव पड़ने पर कई तालिबान नेताओं को डालरों के बदले अमेरिका के हवाले कर दिया, जहां उन्हें वर्षों तक ग्वांतानामो बे जेल में अमानवीय यातनाएं झेलनी पड़ीं। इसलिए तमाम तालिबानी मौलाना मन ही मन पाकिस्तानी जनरलों से नफरत करते हैं। ग्वांतानामो बे जेल में चार साल बिताने वाले ऐसे ही एक तालिबान नेता मुल्ला जईफ ने अपनी आत्मकथा ‘माई लाइफ विद तालिबान’ में पाकिस्तान को विश्वासघाती बताते हुए उसकी पोल खोली है।

पाकिस्तान की धोखेबाजी को देखकर ही तालिबान ने अमेरिका से सीधा संपर्क साधा और अमेरिकी फौज एकाएक अफगानिस्तान को तालिबान के हवाले कर वहां से चली गई। इसके चलते पाकिस्तान का दोहरा खेल बंद हो गया और अमेरिका से आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर आने वाले अरबों डालर के पैकेज बंद हो गए। इसके चलते अब पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल है।

अब अफगानिस्तान में तालिबान की कट्टरपंथी इस्लामिक स्वयंभू सरकार है। तालिबान को लगता है कि असली इस्लाम तो वही जीते हैं और वे शरीयत के अनुसार चल रहे हैं। उन्हें लगता है कि अमेरिकियों के साथ शराब पीने वाले पाकिस्तानी जनरल इस्लामिक दृष्टिकोण से उनसे बहुत नीचे हैं। तालिबानी मौलानाओं को लगता है कि पाकिस्तानी जनरलों को उनके मार्गदर्शन में चलना चाहिए, न कि वे तालिबान को अपनी कठपुतली बनाने का प्रयास करें।

वे पड़ोसी ईरान के शिया कठमुल्ला शासन के सुन्नी रूपांतरण का सपना संजोए हैं, जिसमें एक इस्लामिक धर्मगुरु आयतुल्ला खामेनेई सर्वोच्च नेता हैं और सरकार से लेकर फौज तक उनका ही आदेश मानती है। टीटीपी के रूप में तालिबान के पास एक हथियार भी है, जिसके जरिये पाकिस्तान द्वारा उसे ब्लैकमेल करने या उस पर दबाव बनाने की स्थिति में वह पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा को भी खतरे में डाल सकता है। तालिबान में पश्तून भी हैं, जो डूरंड रेखा को समाप्त कर पाकिस्तान के पश्तून बाहुल्य प्रदेश खैबर पख्तूनख्वा को अफगानिस्तान का हिस्सा बनता देखना चाहते हैं।

यह वही क्षेत्र है जो भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान को मिला था, लेकिन अफगानिस्तान का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार नया राष्ट्र बनने पर पिछली सरकार द्वारा की गई संधि समाप्त हो जाती है। इसलिए डूरंड रेखा को लेकर ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान के बीच हुई संधि पाकिस्तान बनने पर समाप्त हो चुकी है। पाकिस्तान इसे किसी हालत में स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने पर उसे खैबर पख्तूनख्वा से हाथ धोना पड़ेगा। साफ है कि तालिबान के जरिये अफगानिस्तान पर कब्जा करने की चाल पाकिस्तान को उलटी पड़ती जा रही है।

पश्तून राष्ट्रवाद के उभार वाले दौर में पाकिस्तानी फौज से एक और बड़ी भूल हुई और वह यह कि पश्तून प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता से अपदस्थ करना और उनका लगातार उत्पीड़न करना। इससे पाकिस्तान के पश्तून समुदाय में यह भावना बढ़ी है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और वे अब अफगानिस्तान की ओर देखने लगे हैं।

यही कारण है कि टीटीपी पाकिस्तानी फौज के तमाम सैन्य अभियानों के बाद भी ताकतवर बना हुआ है। पाकिस्तान और पश्तूनों के रिश्ते वैसे ही बिगड़ते जा रहे हैं जैसे कभी पाकिस्तान और बंगाली मुसलमानों के बीच बिगड़े थे। पश्तून बाहुल्य क्षेत्र में पश्तून तहफ्फुज जैसे आंदोलन भी जोर पकड़ रहे हैं, जो पाकिस्तान के सैन्य और खुफिया अभियानों में पश्तूनों की हत्याओं को लेकर आवाज उठा रहे हैं।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)