अतिक्रमण रोधी अभियान की बाधाएं, देश में हर वर्ग के लोग स्वार्थ पूर्ति के लिए उड़ाते हैं कानून की धज्जियां
जो समूह हल्द्वानी में चिन्हित अतिक्रमणकारियों के मौलिक अधिकारों की दुहाई देकर उसमें मानवीय पक्ष अमीर-गरीब या इस्लामोफोबिया ढूंढ रहे हैं उनमें से अधिकांश की संदेवना हरियाणा में फरीदाबाद स्थित खोरी गांव मामले में क्यों जागृत नहीं हुई?
बलबीर पुंज : हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई होनी है। पिछली सुनवाई में अतिक्रमण हटाने संबंधित उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी गई थी। गत 30 जनवरी को बनभूलपुरा स्थित नए अवैध निर्माणों की जानकारी प्रशासन को मिली। जब वे उसे हटाने पहुंचे, तो लोगों ने उन पर हमला और पथराव कर दिया। जिला प्रशासन द्वारा हाजी मोहम्मद इरशाद, सरफराज अहमद और मोहम्मद सलीम पर नगर-निगम कर्मियों पर हमला, जेसीबी पर पथराव करने, अवैध निर्माणस्थल में खनिज की चोरी करने, तो मोहम्मद गुरफान सहित 200 पर हिंसा हेतु उकसाने का मामला दर्ज करने का निर्देश दे दिया।
अदालती निर्देश के बाद प्रशासन ने बनभूलपुरा में अतिक्रमण को लेकर पुन: सीमांकन किया है। इसका उद्देश्य जिला प्रशासन, नगर निगम और रेलवे, तीनों नक्शों का मिलान कर वर्षों पुरानी रेल-लाइन का सीमा-निर्धारण करना है। क्षेत्र में पहला सीमांकन 2017 में हुआ था, जिसमें सामने आए सैकड़ों अतिक्रमणों और उस पर होने वाली अदालत निर्देशित कार्रवाई को समाज के एक वर्ग, जिसका अपना राजनीतिक एजेंडा है, ने विकृत ढंग से प्रस्तुत किया। यह मामला जब से सार्वजनिक विमर्श में आया है, तब से निहित-स्वार्थों के कारण इसे 'सत्ता-अधिष्ठान बनाम गरीब' और 'हिंदूवादी सरकार बनाम मुसलमान' के रूप में स्थापित किया जा रहा है। मूलत: यह पूरा मामला जरूरतमंद परंतु स्वछंद प्रकृति के लोगों द्वारा प्रशासन में व्याप्त बेईमान-अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की मिलीभगत से सार्वजनिक संपत्ति की चोरी करने का है। यह कदाचार न तो पहली बार हुआ है और न ही शायद आखिरी बार। देश में प्रत्येक वर्ग के लोग, चाहे वे छोटे हो या बड़ें, अक्सर अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु कानून की धज्जियां उड़ाते हैं और यह सब करते हुए वे अपराधबोध से मुक्त होते हैं।
हल्द्वानी का मामला विशुद्ध रूप से न्यायालय और अतिक्रमणकारियों के बीच का है, किंतु एक कुनबा इसे 'हिंदूवादी सरकार द्वारा मुस्लिम उत्पीड़न' के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। कुछ लोग इसे 'अमीर बनाम गरीब' की संज्ञा देकर यह विमर्श बना रहे कि यह गरीबों पर अत्याचार है, क्योंकि धनवान और साधन-संपन्न परस्त शासन-व्यवस्था में साधनहीनों का शोषण हो रहा है। येन-केन प्रकारेण इन सभी तर्कों का निचोड़ यह है कि चाहे कुछ भी हो जाए, दशकों से जिन लोगों का सरकारी भूमि पर अवैध कब्जा है, वह बना रहना चाहिए।
उच्च न्यायालय में हल्द्वानी प्रकरण पहली बार 2013 में पहुंचा था, जो रेलवे स्टेशन के साथ बह रही गौला नदी क्षेत्र में अवैध रेत खनन से जुड़ा था। अदालत ने मामले का विस्तार करते हुए 2016 में पहली बार अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया, जिस पर तत्कालीन राज्य सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल की, जो निरस्त हो गई। इसके बाद संयुक्त सर्वेक्षण में 78 एकड़ से अधिक रेलवे भूमि पर 4,365 अतिक्रमण चिन्हित हुए, जिसमें लगभग 50 हजार लोग रहते हैं। निवासियों द्वारा पट्टे-बिक्री के माध्यम से भूमि का स्वामित्व का दावा करने के बाद भी उच्च न्यायालय ने 20 दिसंबर 2022 को रेलवे के पक्ष में निर्णय सुनाया और अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया, किंतु जब इसे शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई, तो वहां इसे मानवीय मुद्दा बता दिया गया।
स्पष्ट है कि हल्द्वानी में अवैध अतिक्रमण को हटाने की अदालती प्रक्रिया में, कहीं कोई राजनीतिक भूमिका नहीं है। क्या हल्द्वानी में अतिक्रमणकारियों को केवल इसलिए निशाना बनाया गया, क्योंकि वे गरीब हैं? क्या संपन्न वर्ग सदैव ऐसे मामलों में बच जाते हैं? गत 31 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में सरकारी भूखंडों पर अतिक्रमण हटाने की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत का कहना है कि "इसके लाभार्थी बड़े लोग है। यदि हम याचिकाकर्ता को राहत देते हैं, तो इसका प्रभाव पूरे जम्मू-कश्मीर पर पड़ेगा।" गत वर्ष अदालती निर्देश पर उत्तर प्रदेश में नोएडा स्थित बहुमंजिला अवैध 'ट्विन टावर' को विस्फोट करके ढहा दिया गया था। इससे भवन निर्माता कंपनी को करोड़ों रुपये की क्षति हुई। यह कार्रवाई तब हुई, जब अवैध इमारत का निर्माण बिल्डर के स्वामित्व वाली भूमि पर ही हुआ था। यही नहीं, यमुना नदी के बाढ़ क्षेत्र में बने एक हजार अवैध फार्महाउसों को नोएडा प्राधिकरण ध्वस्त कर रहा है। गत वर्ष ऐसे 150 अवैध निर्माणों को मलबे में परिवर्तित कर दिया गया, जिसका खर्चा तक प्रभावितों से वसूला गया था।
दक्षिण मुंबई स्थित आदर्श हाउसिंग सोसायटी में क्या हुआ? भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़े और आपराधिक षडयंत्र का खुलासा होने के बाद कोलोबा में कारगिल युद्ध नायकों के लिए बनी यह इमारत 2010 से विवादों में है। 29 अप्रैल 2016 को बंबई उच्च न्यायालय ने पर्यावरण मंत्रालय को 31 मंजिला सोसाइटी को गिराने के आदेश दिए थे, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी और तभी से यह भवन रक्षा मंत्रालय के अधीन है। भले ही यह इमारत अभी तक खड़ी है, किंतु जिन लोगों ने करोड़ों रुपये खर्च करके अनैतिक रूप से इसके फ्लैटों को हथियाना चाहा, उनके हाथ कुछ नहीं लगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि उपरोक्त चारों मामलों में प्रभावितों की आर्थिक स्थिति क्या है?
जो समूह हल्द्वानी में चिन्हित अतिक्रमणकारियों के मौलिक अधिकारों की दुहाई देकर उसमें 'मानवीय पक्ष', 'अमीर-गरीब' या 'इस्लामोफोबिया' ढूंढ रहे हैं, उनमें से अधिकांश की संदेवना हरियाणा में फरीदाबाद स्थित खोरी गांव मामले में क्यों जागृत नहीं हुई? जून 2021 को शीर्ष अदालत ने फरीदाबाद के खोरी गांव में 80 एकड़ की वन भूमि पर अवैध अतिक्रमण को छह सप्ताह के भीतर हटाने का निर्देश दिया था। वहां 10,000 घरों में लगभग एक लाख लोग रहते थे। जब अदालत में कार्रवाई रोकने हेतु याचना की गई, तब उसने यह कहते हुए इनकार दिया कि 'यह वन भूमि है, कोई साधारण भूमि नहीं'। तब न्यायालय ने मानवीय पक्ष से अधिक वन भूमि की सुरक्षा और पर्यावरण पर चिंता प्रकट की थी।
सच तो यह है कि सरकारी भूखंडों पर अतिक्रमण और अवैध निर्माण भारत में बड़े पैमाने पर होता है। अकेले रेलवे की लगभग दो हजार एकड़ भूमि पर अब भी अतिक्रमण है। यदि व्यवस्था अतिक्रमित भूमि को मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ती है, तो इसे रोकने के लिए भू-माफियाओं, स्वार्थी नेताओं और अराजक तत्वों और भ्रष्ट-अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ मिलकर उसे अवरुद्ध करते हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।